1996 की कक्षा के तीन विद्यार्थी जब 2021 में अपने रजत जयंती पुनर्मिलन समारोह में मिलेंगे तो तब तक इतिहास एक क्रम व्यवस्थित कर चुका होगा. उनकी उपलब्धियां भी एक परिप्रेक्ष्य में रखी जा चुकी होंगी. अभी जो महत्वपूर्ण लग रहा है तब वह सिर्फ प्रासंगिक लग रहा होगा. 1996 में सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखा था. 1961-62 के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि कौशल में इतनी विविधता और उपलब्धियों में इतनी असाधारणता रखने वाले तीन खिलाड़ियों ने एक ही सत्र में शुरुआत की हो. तब मंसूर अली खान पटौदी, फारुख इंजीनियर और एरापल्ली प्रसन्ना कुछ हफ्तों के अंतराल पर ही भारतीय क्रिकेट टीम में आए थे.
सोचना दिलचस्प है कि क्या उस समारोह में गांगुली लॉर्ड्स में अपने पहले ही मैच में जमाए गए शतक की बात करेंगे या फिर उस कप्तानी की जिसमें द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी चमके? गौरतलब है कि गांगुली की कप्तानी में द्रविड़ का टेस्ट में बल्लेबाजी औसत 73 रहा और लक्ष्मण का 52. क्या द्रविड़ लॉर्ड्स में अपने पहले मैच में बनाए गए 95 रन की पारी को याद करेंगे या फिर यह कि वे 1999 के विश्व कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी रहे थे? क्या लक्ष्मण यह याद करेंगे कि कैसे उन्होंने चयनकर्ताओं को अल्टीमेटम दे दिया था कि वे सिर्फ मध्य क्रम में खेलेंगे? या फिर वे आखिरकार इस रहस्य से पर्दा उठा ही देंगे कि आखिर क्यों उन्होंने अप्रत्याशित रूप से अचानक ही खेल को अलविदा कहने का फैसला किया.
गांगुली और द्रविड़ दोनों ने ही अपनी शर्तों पर संन्यास लिया था. लक्ष्मण चर्चित रूसी उपन्यासकार चेखव के किसी पात्र की तरह निकले. उन्होंने तब खेल छोड़ा जब उनके पास अपने शहर में अलविदा कहने का बढ़िया मौका था. हैदराबाद टेस्ट में खेलकर वे घरेलू दर्शकों के सामने शान से विदा लेते, लेकिन वे इस दिखावे के चक्कर में नहीं पड़े. वैसे भी खेल में किसी चीज की कोई गारंटी नहीं होती. हैदराबाद से ही ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मण के गुरु एमएल जयसिम्हा ने अपना आखिरी टेस्ट घरेलू मैदान पर ही खेला था. उनका करियर दोनों पारियों में शून्य के स्कोर के साथ खत्म हुआ. लक्ष्मण ने हर चीज की खबर रखने वाले मीडिया और उन चयनकर्ताओं को भी चौंकाया जिन्हें इस तरह उनके अचानक खेल छोड़ने की उम्मीद नहीं थी.
संन्यास का फैसला उनके लिए आसान भी नहीं रहा होगा. लक्ष्मण प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान थोड़े-से संकोच में भी लग रहे थे. वैसे भी भाषण देने से ज्यादा आनंद उन्हें शेन वार्न को खेलने में आता रहा है. कोई भी खिलाड़ी चाहता है कि दर्जनों माइकों के बजाय वह मैदान में हजारों दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच संन्यास ले. इस मौके पर भी उनमें वह ईमानदारी दिखी जिनके लिए उन्हें जाना जाता रहा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने दिल की सुनी और तब यह फैसला लिया. अलग-अलग मौकों पर लोग यह जुमला इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन लक्ष्मण सरीखे कुछ विरले ही होते हैं जिनके चेहरे पर इस साधारण बात की सच्चाई पढ़ी जा सकती है.
कई बार जिन स्थितियों की हमने कल्पना नहीं की होती उनसे अचानक सामना होने पर हमारी जो प्रतिक्रिया होती है वह हमारे चरित्र के बारे में काफी कुछ बताती है. लक्ष्मण का चरित्र ऐसी कई परिस्थितियों में दिखा. द्रविड़ संन्यास लेने के फैसले पर महीनों सोचते रहे थे. लक्ष्मण ने यह फैसला लेने में एक-दो दिन ही लगाए. इससे पहले वे पूरे सत्र के लिए कड़ा अभ्यास करते रहे थे जिसमें इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया दोनों के खिलाफ होने वाले टेस्ट मैच शामिल थे. हैदराबाद में न्यूजीलैंड के खिलाफ टेस्ट मैच खेलने की तो उनमें प्रबल इच्छा रही होगी. वे टीम में भी थे ही. नवंबर में वे 38 साल के हो जाएंगे. जब वे 17 साल के थे तो उन्होंने खुद के लिए एक लक्ष्य तय किया था.
यह लक्ष्य था पांच साल के भीतर टेस्ट टीम में शामिल होने का. उन्होंने सोच लिया था कि अगर ऐसा नहीं हो पाया तो वे अपने परिवार की लीक पर चलेंगे. उनके माता-पिता और ज्यादातर रिश्तेदार डॉक्टर हैं. यानी अपने लिए एक रास्ता तय करने और कर्मठता से उस पर चलने का गुण उनमें नया नहीं है. संन्यास लेने के फैसले में भी दिखा कि उनके चरित्र की यह मजबूती आज भी कायम है. भले ही यह एक सुनहरे करियर का आकस्मिक अंत हो मगर लक्ष्मण ने दिखा दिया कि वे किस मिट्टी के बने हैं. चयनकर्ताओं ने शायद ही सोचा हो कि लक्ष्मण यह अवश्यंभावी फैसला इतनी जल्दी ले लेंगे, इसलिए वे भी इस फैसले से हैरान हुए. यह अलग बात है कि इस अवश्यंभावी फैसले में जल्दी उनके चलते ही हुई थी.
उनके संन्यास लेने की खबर आते ही सबने उनकी सर्वश्रेष्ठ पारियां याद कीं. उनकी इस योग्यता को भी याद किया कि कैसे वे बल्लेबाजी को बहुत आसान बना दिया करते थे. कुछ ने यह भी कहा कि उनकी क्षमता के अनुसार उनका प्रदर्शन थोड़ा कम ठहरता है. शायद यह लक्ष्मण के औसत को देखते हुए कहा गया होगा जो 46 के करीब है. दरअसल 50 के ऊपर रहने वाले तेंदुलकर और द्रविड़ के रिकॉर्ड ने पिछले कुछ समय से हम भारतीयों की आदत खराब कर दी है. लेकिन अगर इतिहास टटोला जाए तो इन दोनों के अलावा सिर्फ सुनील गावस्कर ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिनका टेस्ट औसत 50 से ऊपर रहा. इससे भी अहम यह है कि लक्ष्मण खिलाड़ियों के उस दूसरे वर्ग में आते हैं जिनके खेल में एक विशेष तरह का सौंदर्य होता है.
यह ऐसा वर्ग है जिसका औसत चालीस से पचास के बीच ठहरता है. इस औसत की वजह यह है कि इन खिलाड़ियों के प्रदर्शन में उतनी निरंतरता नहीं रही. दरअसल एक ही जगह पर पिच की गई गेंद को कलाई के जादू से तीन या चार अलग-अलग जगहों पर भेजने की कला में खतरा यह भी होता है कि उन्हीं जगहों पर खिलाड़ी लगाकर आपको आउट कर दिया जाए. तो आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो लक्ष्मण डेविड गॉवर (औसत 44), मार्क वॉ (42), मोहम्मद अजहरुद्दीन (45), गुंडप्पा विश्वनाथ (42), मार्टिन क्रो (45) और जहीर अब्बास (45) के साथ खड़े दिखते हैं. यह संगत निश्चित रूप से प्रभावशाली है. क्रीज पर उनकी जादुई कलाई और टाइमिंग की बदौलत क्रिकेट ऐसा खेल लगता था जिसमें नतीजे से ज्यादा खेल का सौंदर्य और उसकी भावना ही सब कुछ थी.
सारे खेलों में क्रिकेट ही ऐसा है जहां संदर्भ सबसे कम मायने रखता है. इसमें ही ऐसा हो सकता है कि हारने वाली टीम के किसी खिलाड़ी द्वारा बनाए गए बढ़िया 70 रन की जीतने वाली टीम के किसी खिलाड़ी के उबाऊ शतक से ज्यादा चर्चा हो. फिर भी लक्ष्मण का मतलब सिर्फ स्टाइल नहीं था. उनमें वह बात भी थी. कोलकाता में स्टीव वॉ की ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ भारतीय टीम के फॉलोऑन के बाद उनकी 281 रन की पारी ने भारतीय क्रिकेट का चेहरा बदल दिया था. यह उस सुनहरे दौर की प्रतिनिधि पारी है जिसमें भारतीय टीम का कायाकल्प हुआ और वह दुनिया की नंबर एक टीम बनी. गौर करें कि यह पारी लक्ष्मण ने उस समय खेली है जिसे तेंदुलकर का दौर कहा जाता है.
आज से करीब एक दशक पहले उस दिन जब लक्ष्मण और द्रविड़ बल्लेबाजी कर रहे थे तो यह एक तरह से उस टीम के भविष्य की झलक भी थी जो कुछ समय पहले अपने कप्तान के मैच फिक्सिंग में फंसने के झटके से उबर ही रही थी. मोहम्मद अजहरूद्दीन की जगह कप्तानी गांगुली ने संभाली थी. लेकिन अजहर की जगह गांगुली ने ही नहीं बल्कि लक्ष्मण ने भी भरी थी जिनकी कलाई से निकले शॉट उतने ही जादुई थे जितने पूर्व कप्तान के. खेलने की एक खास शैली की विरासत लक्ष्मण ने अनुकरणीय रूप से संभाली. किसी ओवरपिच गेंद पर द्रविड़ थोड़ा आगे बढ़ते और ऑफ स्टंप के बाहर पूरे बल्ले से शॉट लगाते हुए गेंद को कवर बाउंड्री की तरफ भेजते. यह एक आदर्श शॉट होता. अगर उनकी जगह लक्ष्मण होते तो वे एड़ियों के बल थोड़ा पीछे जाते और गेंद को स्क्वायर लेग पर फ्लिक कर देते. जब वे अपने रंग में होते थे तो बड़ी रेंज और रिकॉर्ड के बावजूद तेंदुलकर भी उनके सामने उन्नीस ही लगते थे. लक्ष्मण के खेल की खूबसूरती ही इस बात में थी कि उनके शॉट बहुत सहज लगते थे.
इसके बावजूद क्या भारतीय सर्वकालिक एकादश में वे सबकी पसंद के उम्मीदवार होंगे? द्रविड़ और तेंदुलकर इसमें निर्विवाद रूप से नंबर तीन और चार पर आते हैं और दो ऑल राउंडर वीनू मांकड़ और कपिल देव छठे और सातवें नंबर पर. इस तरह देखा जाए तो इसके बाद मध्य क्रम में एक ही जगह बचती है. अब सवाल यह है कि लक्ष्मण किसकी जगह ले सकते हैं. विजय हजारे? दिलीप वेंगसरकर? मोहिंदर अमरनाथ? विजय मांजरेकर? गुंडप्पा विश्वनाथ? भावनाओं का ज्वार भले ही अभी लक्ष्मण के साथ हो मगर तर्क से काम लिया जाए तो हो सकता है कि कुछ दूसरे उम्मीदवार लक्ष्मण से इक्कीस साबित हो जाएं. यहीं वह दिक्कत समझ में आती है जो लक्ष्मण के साथ रही है.
ऐसा कभी-कभार ही हुआ कि वे विपक्ष पर हावी रहे. हो सकता है ऐसा उनके सौम्य, भद्र और निस्स्वार्थ स्वभाव की वजह से हुआ हो. उनमें गेंदबाजों को सबक सिखाने का वैसा जुनून नहीं था जैसा तेंदुलकर और द्रविड़ में देखने को मिलता है. तेंदुलकर ऐसा अपनी आक्रामक शैली के साथ करते हैं जबकि द्रविड़ रक्षात्मक शैली के साथ. इसके बावजूद दुनिया भर के गेंदबाज राहत की सांस ले रहे होंगे. यह सोचकर कि अब उन्हें उस खिलाड़ी का सामना नहीं करना पड़ेगा जो उनकी सबसे अच्छी गेंदों को भी कलाई की एक हल्की-सी घूम और हल्की-सी मुस्कान के साथ सीमा पार भेज देता था. हालांकि इस राहत में एक अफसोस भी होगा. इस बात का कि अब वे अपने उस साथी के साथ कभी मैदान साझा नहीं कर पाएंगे जिसके कौशल ने खेल का स्तर ऊंचा किया.