देश के 80 करोड़ ग़रीब निवासियों को अगले पाँच साल तक मुफ़्त अनाज का ऐलान हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छत्तीसगढ़ के दुर्ग में एक चुनाव सभा में यह घोषणा करते हुए उत्सुक नज़र आ रहे थे। इसका असर परखने के लिए उन्होंने सभा में उपस्थित जनता पर गहरी नज़र डाली। मानों देखना चाहते हों कि अनाज की ये बोरियाँ वोट में तब्दील होंगी या नहीं? चुनाव जनता का भला कर जाते हैं। राजनेता जो काम पाँच साल तक नहीं करते, वह चुनाव में करने को मजबूर होते हैं। साल 2014 में जब मोदी सत्ता में आये, तब भी ग़रीब जनता की संख्या 80 करोड़ थी और आज जब वे तीसरी बार जनता के बीच जाने के नज़दीक हैं, तब भी ग़रीब जनता 80 करोड़ ही है। देश की इकोनॉमी पाँच ट्रिलियन होने को है, जीएसटी और टैक्स से रिकॉर्ड कलेक्शन सरकार को मिल रहा है; लेकिन ग़रीबी ज्यों-की-त्यों है। ग़रीब नहीं घटने का एक मतलब यह भी है कि नौकरियाँ नहीं मिलीं। विश्व गुरु होने की यह गली काफ़ी सँकरी दिखती है।
तो फिर सरकार किस मुँह से देश के विकसित होने का दावा कर रही है? इस दौरान वैश्विक भूख सूचकांक 2023 की रिपोर्ट भी सामने आयी है। इसके मुताबिक, भारत की स्थिति एक साल पहले से ज़्यादा ख़राब हुई है। रिपोर्ट, जिसे भारत सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है; के मुताबिक, कुल 125 देशों में भारत 111वें स्थान पर है। रिपोर्ट में चिन्ता की बात यह है कि देश के बच्चों में कुपोषण की दर सबसे अधिक 18.7 फ़ीसदी है। एक साल पहले भारत इस रिपोर्ट में 107वें स्थान पर था। आज़ादी के वक़्त देश की 25 करोड़ आबादी ग़रीब थी, जो उस वक़्त की आबादी की 80 फ़ीसदी थी।
भारत के कर्णधारों के लिए शर्म की बात यह है कि जिस पाकिस्तान का वे और देश का गोदी मीडिया रोज़ टाइम पास रिपोट्र्स के ज़रिये मज़ा$क उड़ाते रहते हैं, रिपोर्ट में उसका नंबर 102 है; यानी हमसे बेहतर। यहाँ तक कि बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका तक हमसे कहीं बेहतर हैं। बांग्लादेश 81वें, नेपाल 69वें और श्रीलंका कहीं बेहतर 60वें नंबर पर है। श्रीलंका का सबको पता है कि एक साल पहले उसने कितनी गम्भीर आर्थिक स्थिति देखी। लेकिन तय है कि भारत की प्रगतिशील सरकार के मुक़ाबले इन अपेक्षाकृत छोटे देशों ने भुखमरी से निपटने के लिए ज़मीन पर हमसे बेहतर रणनीति के साथ काम किया। जब चुनाव नहीं होते हैं, तो ग़रीबी अभिशाप होती है। चुनाव जब होते हैं, तो ग़रीबी दुधारू गाय बन जाती है। इसका बखान किया जाता है। प्रधानमंत्री ने हाल में कहा कि ग़रीब इस देश की सबसे बड़ी आबादी हैं। यह कहते हुए उनका लक्ष्य ग़रीबी ख़त्म करने का निश्चय नहीं, बल्कि उस आबादी को वोट में बदलने का अधिक दिखा। हो सकता है कांग्रेस के जातिगत जनगणना कार्ड को काउंटर करने के लिए मोदी ने यह कहा हो। लेकिन बात सिर्फ़ यही है कि यह सब राजनीति और सत्ता के लिए है; ग़रीबों के लिए नहीं।
देश में रोटी और राजनीति का यह खेल लम्बा है। समझ लीजिए, दोनों की जंग है। रोटी वाले रोटी के लिए लड़ रहे हैं, राजनीति वाले चुनाव के लिए रोटी को इतेमाल कर रहे हैं। राजनीति इस जंग में हमेशा जीत जाती है, रोटी हमेशा हार जाती है। रोटी की इस हार का ही नतीजा है कि देश में ग़रीबी है। रोटी की लड़ाई सबसे ज़्यादा ग़रीब लड़ता है। इसलिए ग़रीब राजनीति का हथियार है। उसे दाल-भात की तरह चुनाव में परोसा जाता है। ग़रीब भूखा रहता है, और राजनीति भर पेट खाती है। रोटी पैसे से आती है। लेकिन पाँच ट्रिलियन की इकोनॉमी के मुहाने पर खड़ा होने के बावजूद भारत की 80 करोड़ आबादी ग़रीब क्यों है? यह बात राजनीति वाले ग़रीब को बता नहीं पाते।
वैश्विक भूख सूचकांक-2023 से ज़ाहिर होता है कि भारत में ग़रीबी राजनीति की प्राथमिकता में नहीं। हालाँकि हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की इकोनॉमी को लेकर एक लिंक्डइन पोस्ट किया, जो बताता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सही ट्रैक पर है। इस पोस्ट में प्रधानमंत्री ने हाल की दो रिसर्च का हवाला देते हुए भारत में लोगों के समृद्ध होने और अर्थव्यवस्था पूरी तरह से मज़बूत होने पर ख़ुशी ज़ाहिर की। प्रधानमंत्री ने शोध रिपोर्ट के जो अंश अपनी पोस्ट में शेयर किये, उनके मुताबिक भारतीयों की औसत आय में बीते नौ साल में सराहनीय उछाल दर्ज किया गया है। साल 2014 में जो आय 4.4 लाख रुपये थी, वो साल 2023 में बढक़र 13 लाख रुपये हो गयी। लेकिन यहाँ सवाल यही है कि ऐसा है, तो फिर ग़रीबी वैसी-की-वैसी ही क्यों है, और क्यों आपको 80 करोड़ ग़रीब भारतीयों को मुफ़्त अनाज देने को मजबूर होना पड़ रहा है?
वैसे भारत की कितनी आबादी ग़रीब है? इसका कोई सही आँकड़ा है नहीं। क्योंकि देश की संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आँकड़ों में काफ़ी अंतर है। ग़रीबी रेखा क्या है? इसे लेकर 2011-12 में तेंदुलकर कमेटी ने एक पैमाना तय किया था। पैमाना यह था कि यदि शहरी क्षेत्र का हर व्यक्ति 1,000 और ग्रामीण क्षेत्र का हर व्यक्ति 816 रुपये एक महीने में ख़र्च करता है, तो उसे ग़रीबी रेखा से नीचे नहीं माना जाएगा। मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार ने इसी मसले पर रंगराजन कमेटी बनायी, जिसने 2014 में दी अपनी रिपोर्ट में हर 1,407 रुपये वाले शहरी और 972 रुपये हर महीने ख़र्च करने वाले ग्रामीण को ग़रीबी रेखा से ऊपर बताया। चूँकि मनमोहन सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया, देश में ग़रीबी का पैमाना तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही तय होता है।
वैसे देश में 1956-57 से ग़रीबी संख्या का हिसाब रखना शुरू हुआ। मिन्हास आयोग ने तब बताया था कि देश में 21.5 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। अंतिम सरकारी आँकड़ा साल 2011-12 में सामने आया, जिसमें देश की 26.9 करोड़ अर्थात् 22 फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे बतायी गयी थी। हालाँकि रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट ने यह संख्या गाँव में 26 करोड़ और शहरों में 10 करोड़ (कुल 36 करोड़) बतायी थी, जिसे मनमोहन सरकार ने नहीं माना था। सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने देश में ग़रीबों की संख्या लगातार 80 करोड़ बतायी है। मुफ़्त अनाज और पाँच साल बढ़ाने के समय भी प्रधानमंत्री मोदी ने यही आँकड़ा बताया। इसी जुलाई में नीति आयोग ने अपने मल्टीडायमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स में अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि पाँच साल में 13.5 करोड़ भारतीय ग़रीबी से बाहर आये हैं। आयोग ने इसका कारण न्यूट्रिशन और स्कूलिंग सुधार, सफ़ाई और खाना पकाने के लिए ईंधन के ज़्यादा इस्तेमाल को बताया था। रिपोर्ट के मुताबिक, 2015-16 में देश की 15 फ़ीसदी आबादी ही ग़रीबी रेखा से नीचे थी, जो 2019-21 तक घटकर 15 फ़ीसदी ही रह गयी। फिर भी देश की अनुमानित 140 करोड़ की आबादी में 80 करोड़ ग्रीन कैसे हैं? इस पर भी सवाल है। लेकिन यह सब आँकड़ों का खेल है। औसतन आँकड़े कभी सही तस्वीर नहीं दिखा सकते।
यह जानना भी ज़रूरी है कि पिछले नौ साल में मोदी सरकार ने ज़मीन पर वास्तव में क्या ग़रीबी कम करने के लिए कुछ किया है? वो दृश्य नहीं भूलना चाहिए कि कैसे 2020-21 में लॉकडाउन के कारण दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर विभिन्न प्रदेशों से अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गाँव को पैदल और भूखे पलायन करने को मजबूर हो गये थे। एक अनुमान के मुताबिक, इन लोगों की संख्या पाँच करोड़ से ज़्यादा थी। कई तटस्थ सर्वे बताते हैं कि इनमें से अधिकतर फिर अपने काम पर नहीं लौटे और इस तरह और कुछ करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे चले गये।
जिस देश में 80 करोड़ लोग ग़रीब हैं, उसमें फिर भी ग़रीबी एक मुद्दा नहीं है। है, तो चुनाव जीतने का एक हथियार भर। चुनाव में धर्म है, ग़रीबी नहीं है। धर्म के अस्तित्व के संकट में होने की चिन्ता है; लेकिन ग़रीब के भूख से मरने की नहीं। हज़ारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं, कोई सडक़ पर धरना नहीं देता। किसी मंदिर के बाहर लाउडस्पीकर लगाकार विरोध या चिन्ता दर्ज नहीं करता। धर्म के लिए करता है। आगजनी भी करता है। तोडफ़ोड़ भी करता है।
जैसे ग़रीबी चुनाव जितवा देती है, वैसे ही धर्म भी चुनाव जितवाता है। लेकिन ग़रीबी चुनाव का मुद्दा नहीं बन पाती। राजनेता ग़रीबी को भुनाना चाहता है, उसे ख़त्म नहीं करना चाहता। उसे डर है कि ग़रीबी नहीं रहेगी, तो चुनाव का एक हथियार ख़त्म हो जाएगा।