राजनीति में सब जायज़ नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता है, तो यह लोकतंत्र की हत्या करने का एक षड्यंत्र है। यह उसी जनता को मारने का षड्यंत्र है, जिसने नेताओं को चुनकर इसलिए आला अधिकारियों से भी ऊपर का दर्जा दिया है, ताकि वे आला अधिकारियों को भ्रष्टचार करने से रोकें और जनसेवा करें। इसलिए राजनीति में योग्यता को नहीं, बल्कि जनसमर्थन को वरीयता दी गयी है। ऐसा माना जाता है कि जनसमर्थन उसी को ज़्यादा मिलता है, जो ज़्यादा अच्छा और ईमानदार होता है। लेकिन आज के नेताओं को भ्रष्टाचार का जन्मदाता कहा जाए, तो ग़लत नहीं होगा। इन नेताओं की ग़लतियों और कुकर्मों की सज़ा अगर जनता समय रहते उन्हें नहीं देती है, तो उसे इसके बेहद भयंकर परिणाम भुगतने ही होंगे। आजकल एक बड़ा वर्ग अपनी ऐसी ही ग़लती की सज़ा भुगतने की स्थिति में आ चुका है। आने वाले दिनों में इसका पछतावा और भी ज़्यादा लोगों को होगा, यह तय है। तेज़ी से लोगों का रोज़गार छिन रहा है। व्यापारिक क्षेत्र में मंदी की मार है। महँगाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इतने पर भी सरकार अपनी पीठ थपथपाने में लगी है।
हाल ही में जारी हुए सीएमआई के आँकड़े इस बात का संकेत हैं। इन आँकड़ों के अनुसार, देश पिछले चार वर्षों में चार करोड़ रोज़गार छिन चुके हैं। कहना ही होगा कि हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्मचारियों की संख्या 45 करोड़ से घटाकर 41 करोड़ कर दी है। यह आरोप प्रो. अरुण कुमार का है। प्रो. अरुण कुमार ने कहा है कि सरकारी बयानों में कहा जा रहा है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था छ: या पाँच फ़ीसदी की रफ़्तार से बढ़ रही है। लेकिन वास्तव में आर्थिक विकास दर पाँच, छ: या सात फ़ीसदी की दर से नहीं, बल्कि शून्य फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। प्रो. अरुण कुमार ने कहा है कि सरकारी आँकड़ों में असंगठित क्षेत्र के आँकड़े शामिल ही नहीं किये जाते हैं, जबकि असंगठित क्षेत्र ही सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। उन्होंने कहा है कि जिस दिन विकास दर में असंगठित क्षेत्र के आँकड़े उसमें जोड़ लिये जाएँगे, तो पता लग जाएगा कि विकास दर शून्य या एक फ़ीसदी है। प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि वास्तव में अर्थ-व्यवस्था की विकास दर पाँच फ़ीसदी से भी कम है।
प्रो. अरुण कुमार से पहले भी एक अर्थशास्त्री ने पिछले साल आरोप लगाया था कि मोदी सरकार ने सात वर्षों में सात करोड़ लोगों के रोज़गार छीन लिये। इसके साथ ही मोदी सरकार ने कई साल से रोज़गार के सही आँकड़े भी पेश नहीं किये हैं। मोदी के कार्यकाल में सरकारी विभागों में ख़ाली पड़े कई पदों पर भर्ती प्रक्रिया के लिए प्रपत्र (फॉर्म) ख़ूब भरवाये गये हैं। लेकिन उनके माध्यम से एक मोटी रक़म जमा करके परीक्षाएँ ही नहीं करायी गयी हैं। यदि कहीं परीक्षा हो गयी है, तो वहाँ परिणाम घोषित नहीं किये गये हैं। कहीं-कहीं साक्षात्कार नहीं लिया गया है। इसे बेरोज़गारों से सरकार द्वारा कमायी करना कहें, तो ग़लत नहीं होगा।
आँकड़े बताते हैं कि असंगठित क्षेत्र में 94 फ़ीसदी कर्मचारी काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र से 45 फ़ीसदी उत्पादन होता है। इसका मतलब यह है कि अगर रोज़गार घट रहे हैं, तो उत्पादन भी घट रहा है। असंगठित क्षेत्र में कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा है। लेकिन सबसे ज़्यादा दुर्दशा का शिकार आज यही क्षेत्र है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार के नोटबंदी और जीएसटी जैसे बेअक़्ली वाले फ़ैसलों से असंगठित क्षेत्र बुरी तरह से ढह गया। गिरती जीडीपी के बारे में अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बोल चुके हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी बोल चुके हैं। सरकार के फ़ैसले से नाराज़ होकर तो उन्होंने इस्तीफ़ा तक दे दिया था। हाल यह है कि नोटबंदी से न तो कालाधन आया। न आतंकवाद की कमर टूटी। ऐसे ही न ही जीएसटी से व्यापार में पारदर्शिता आयी। न लोगों पर दोहरे-तिहरे टैक्स की मार पडऩी बन्द हुई। न महँगाई घटी। कई बैंक डूब गये। कुछ के घाटे पर पर्दा डालने के लिए उन्हें दूसरी बैंकों में मर्ज कर दिया गया। आँकड़ों के अनुसार, एक साल में स्विस बैक में भारतीयों का पैसा 1.5 गुना हो गया है। सन् 2020 के अन्त तक भारतीयों के स्विस बैंक में 20,700 करोड़ रुपये थे, जो कि मंदी, कोरोना और नोटबंदी के बाद भी वर्ष 2021 में ही लगभग 4,800 करोड़ रुपये हो गया था। इतने पर भी कई उद्योगपति भारतीय बैंकों से लाखों करोड़ का ऋण लेकर भाग गये। अब अडाणी को मोटा क़र्ज़ बैंकों ने दे रखा है। वर्तमान में अडाणी समूह की सात कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध हैं। इनमें से वित्त वर्ष 2021-22 के अन्त तक छ: कम्पनियों पर 2.3 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ था। इसमें शुद्ध क़र्ज़ 1.73 लाख करोड़ रुपये है। कहा जा रहा है कि इनमें से कभी भी कोई भी कम्पनी दिवालिया हो सकती है। ऐसा हुआ तो कोई न कोई बैंक भी ध्वस्त होगी।
इधर आँकड़े कह रहे हैं कि असंगठित क्षेत्र के आठ प्रमुख उद्योगों की वृद्धि दर 7.3 फ़ीसदी से घटकर 2.1 फ़ीसदी हो चुकी है। इससे उत्पादन घटा है और असंगठित क्षेत्र संकट में आ गये हैं। सन् 2021 में केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में एक सवाल के जवाब में 30 नवंबर 2021 तक के आँकड़े पेश किये। उन्होंने कहा कि देश भर में सन् 2014 के बाद से अभी तक क़रीब 2,800 विदेशी कम्पनियाँ भारत से बोरिया-बिस्तर लेकर जा चुकी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सन् 2014 से 2021 तक 10,756 विदेशी कम्पनियाँ भारत में स्थापित भी हुई हैं। साथ ही 30 नवंबर, 2021 तक कुल 12,458 विदेशी कम्पनियाँ भारत में सक्रिय थीं।
नौकरी जाने के आँकड़े इतने ज़्यादा हैं कि उनका रिकॉर्ड सरकार के पास नहीं है। साथ ही भारत में हर वर्ष 18 से 21 साल के तक़रीबन 4.3 करोड़ युवा नौकरी के लिए तैयार होते हैं। इन युवाओं को सरकारी नौकरी मिलना तो दूर, असंगठित क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिल रही है।
मोदी सरकार से पहले वित्त वर्ष 2012-13 में निवेश की दर 37 फ़ीसदी की दर से बढ़ी थी। लेकिन अब निवेश की दर 30 फ़ीसदी से भी काफ़ी नीचे पहुँच चुकी है। जबकि भारत की मुद्रा का विदेशी निवेश और कालेधन में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
कराधान की बात करें तो जीएसटी लागू होने के दौरान लगभग 1.2 करोड़ लोगों ने इस नयी व्यवस्था के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था। लेकिन जीएसटी फाइल करने वालों की संख्या सिर्फ़ 70 लाख ही है। सरकार ने जीएसटी के माध्यम से ज़्यादा टैक्स जमा करने के विचार से जीएसटी प्रक्रिया में अब तक 1,400 से ज़्यादा बदलाव भी कर लिये, तब भी टैक्स भरने वालों की संख्या नहीं बढ़ सकी।
कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार ने सात वर्षों में 12 करोड़ युवाओं का रोज़गार छीना है। अब एक बार फिर मोदी अगले डेढ़ साल में 10 लाख नौकरियाँ देने का वादा कर चुके हैं। उन्होंने ट्वीट के ज़रिये सभी केंद्रीय विभागों और मंत्रालयों को आदेश दिया है कि वे अगले डेढ़ साल में 10 लाख युवाओं को नौकरी दें। इसी साल सेना में अग्निपथ योजना के तहत अग्नि वीरों की भर्ती भी हुई है। लेकिन इस घोषणा के अनुसार, 75 फ़ीसदी अग्निवीर चार साल बाद बाहर कर दिये जाएँगे। पिछले साल ही सरकारी आँकड़ों में कहा गया था कि सेना में सवा लाख से ज़्यादा पद रिक्त पड़े हैं।
वित्त वर्ष 2020-2021 तक के आँकड़े देखने पर पता चलता है कि मंत्रालयों और विभागों में कुल 9,79,327 पद ख़ाली थे। सन् 2014 के बाद से बीते आठ वर्षों में सरकारी नौकरियों के लिए कुल 22,05,99,238 (22 करोड़, 5 लाख, 99 हज़ार 238) आवेदन आये। जबकि सरकार ने केवल 0.3 फ़ीसदी अर्थात् 7,22,311 (7 लाख, 22 हज़ार, 311) लोगों को स्थायी नौकरी दी है।
अगर यही रफ़्तार नौकरी जाने की रही और 0.3 फ़ीसदी की दर नौकरी देने की रही, तो अगले 20 वर्षों में भारत में केवल 10-12 फ़ीसदी लोगों की ही नौकरी बचेगी।