चार नवंबर को पटना में हुई अधिकार रैली संकेत देती है कि बिहारी उपराष्ट्रीयता के जरिये राज्य को विशेष राज्य दर्जा दिलवाने का एकरस राग गानेवाले नीतीश कुमार 2014 के लोकसभा चुनाव तक राष्ट्रीय राजनीति में छलांग की आकांक्षा परवान चढ़ाना चाहते हैं. निराला की रिपोर्ट.
अभियानी यात्राओं के लिए मशहूर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ड्रीम एजेंडे यानी बिहार को विशेष राज्य दर्जा अभियान का राजनीतिक फलाफल मापने के लिए जदयू की ओर से आयोजित ‘अधिकार रैली’ चार नवंबर को संपन्न हो गयी. पटना के गांधी मैदान में कई वर्षों बाद इतनी बड़ी रैली हुई. रैली की भीड़ को करीब दो लाख बताया गया. लालू प्रसाद के जमाने में गरीब रैला, लाठी रैली से भी इस रैली और रैली में आयी भीड़ की तुलना करने में कुछ लोग लगे हुए हैं. हालांकि यह तुलना निराधार–सी है. नीतीश और जदयू की इस रैली की तुलना पूर्व की किसी राजनीतिक रैली से करना कुछ मायनों में उचित नहीं लगता. दिखावे या राजनीतिक चाल के तहत ही सही, बिहार के विकास को केंद्र में रखकर यह रैली आयोजित की गयी थी. बेशक, कई कमियां रहीं इस रैली में. फिर भी नीतीश की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और 2014 में होनेवाले लोकसभा की चुनावी तैयारी को दिखाने वाली यह रैली एक मायने में खास रही और बिहार की राजनीति में एक नयी शुरुआत की तरह भी. बिहार की राजनीति में विशेष राज्य दर्जे का अभियान उपराष्ट्रीयता और बिहारी अस्मिता जैसे जटिल शब्दों और आंकड़ों के मकड़जाल के जरिये चल रहा है. इस नीरस और एकरस विषय पर सभा–संगोष्ठी या सम्मेलन तक की गुजाइश तो बनती है लेकिन उसी विषय पर रैली कर लगभग दो लाख लोगों को पटना जुटा लेना इस रैली की सफलता का एक बड़ा मानक रहा, जो आगे भी बना रहेगा. हालिया दिनों में जनता के विरोध और अपनों के घात–प्रतिघात से परेशान चल रहे नीतीश इस रैली से अपनी क्षमता को कितना आंक पाये, यह तो वही जानेंगे लेकिन इस रैली से कई संकेत मिले हैं, जिससे उनकी, उनकी पार्टी की और बहुत हद तक बिहार की राजनीति के आगामी भविष्य की दिशा भी दिखती है.
रैली के दौरान ही प्रदेश के कोने–कोने से आयी राजनीतिक पंडितों की फौज इसके विश्लेषण में भी लगी हुई थी. कुछ का मानना था कि अधिकार रैली में इतनी भीड़ तो हुई लेकिन जितने लोग मैदान में थे, उतने ही पटना शहर में घूम रहे थे. यानी यह भीड़ अधिकार रैली की बजाय सैर–सपाटे के लिए आयी थी. विरोधी विश्लेषकों के इस विश्लेषण का जवाब समर्थक प्रेक्षक यह कहते हुए देते रहे कि ऐसा तो हर रैली में होता है और यह परंपरा तो लालू प्रसाद ने ही शुरू की थी. उनकी रैली में तो कंप्लीट टूर व इंटरटेनमेंट पैकेज जैसा होता था. दिन भर की घुमाई के बाद रात में लौंडा नाच, आर्केस्ट्रा आदि का भी इंतजाम होता था, ताकि लोग टिके रहें. विरोधी विश्लेषकों का मत रहा कि रैली में भीड़ तो थी लेकिन उसमें जोश नहीं दिखा, जिंदाबाद–जिंदाबाद जमकर नहीं हुआ, इससे लगता है कि यह प्रायोजित भीड़ थी, लोगों को किसी तरह यहां तक पहुंचाया गया था. समर्थक प्रेक्षकों का यह मानना था कि यह नीतीश के अनुशासन का असर था और उन्होंने फरमान भी सुना रखा था कि भीड़ हुल्लड़बाजी या हो–हंगामा नहीं करेगी.
कुछ का मानना था कि अधिकार रैली में इतनी भीड़ तो हुई लेकिन जितने लोग मैदान में थे, उतने ही पटना शहर में घूम रहे थे. यानी यह भीड़ अधिकार रैली की बजाय सैर-सपाटे के लिए आयी थी.इसी बीच कुछ राजनीतिक पंडित मैदान में घूम–घूमकर चेहरे–मोहरे और वेश–भूषा से यह आकलन करने में लगे हुए थे कि इस भीड़ में सवर्णों और मध्यवर्गीय जमात की कितनी उपस्थिति है और इस पैमाने पर इन दोनों वर्गों की उपस्थिति बेहद कम पायी गयी. कुछ दाढ़ी बढ़ाये और टोपी लगाये लोगों को देख अल्पसंख्यकों की भागीदारी का आकलन कर रहे थे. रैली में इनकी उपस्थिति भी अपेक्षाकृत बेहद कम पायी गयी. लगे हाथ मैदान में ही राजनीतिक पंडितों ने आकलन कर दिया कि इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यक और सवर्ण नाराज चल रहे हैं. हालांकि ठीक इसके उलट रैली में महिलाओं, अतिपिछड़ों आदि की भारी भीड़ को देखकर यह भी कहा गया कि नीतीश खुश हो सकते हैं, क्योंकि उनका कोर समूह यहां पहुंचा है. कुछ विरोधी विश्लेषकों ने कहा कि नीतीश कुमार ने इस रैली में साबित किया कि उनके लिए बिहार में पिछड़ों को उभार देनेवाले और सामाजिक न्याय के मसीहा कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता भी महत्वपूर्ण नहीं हैं और न ही वे जॉर्ज फर्नांडिस की परछाई तक अब के जदयू पर पड़ने देना चाहते हैं. इसीलिए तो राजधानी में टंगे बैनरों में तमाम दबंग किस्म के जदयू नेता छाये रहे, सभी के साथ नीतीश चमकते रहे लेकिन कहीं कर्पूरी या जॉर्ज जैसे नेता भी नहीं दिखे. विरोधी विश्लेषकों का कहना था कि नीतीश नहीं चाहते कि जदयू के अस्तित्व और उसकी मजबूती या सामजिक न्याय और पिछड़ों के उभार के साथ किसी और नेता का नाम भूतकाल से भी जुटे. इस विश्लेषण का समर्थक विश्लेषकों के पास ठोस जवाब नहीं था. इसी तरह के द्वंद्व–दुविधा भरे आकलन और तर्क–वितर्क रैली के दौरान और रैली संपन्न होने के तुरंत बाद होते रहे.
खैर! मैदान में यह आकलन भी चलता रहा और रैली के मंच से भाषण भी चल रहा था. रैली को पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव से लेकर जदयू के करीब तीन दर्जन छोटे–बड़े नेताओं ने संबोधित किया. स्वाभाविक तौर पर मुख्य आकर्षण के केंद्र सबसे आखिरी में भाषण देनेवाले नीतीश कुमार ही थे. अपने करीब 40 मिनट के भाषण में नीतीश एकरस सा भाषण ही देते रहे. विकास के तकनीकी पेंच और आत्मप्रशंसा में उलझा नीतीश का भाषण वह करिश्मा एकाध बार ही दिखा सका, जब जिंदाबाद के नारे लगे, तालियों की गड़गड़ाहट हुई. लेकिन नीतीश कुमार ने अधिकार रैली के अपने भाषण को बेहद ही चतुर–चालाक नेता की तरह नये पासे की तरह इस्तेमाल किया. कुछ बुद्धिजीवियों की सलाह पर कल तक बिहारी उपराष्ट्रीयता को जगाने और सिर्फ बिहार को विशेष राज्य दर्जा का मांग करनेवाले नीतीश ने इसे विस्तार दिया. उन्होंने कहा कि उन सभी राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए, जो विकास के पैमाने पर राष्ट्रीय औसत से कम हैं.
कुछ जानकारों का आकलन है कि नीतीश द्वारा बार–बार दुहराये गये इस वाक्य को लोकसभा चुनाव के पहले पिछड़े राज्यों के बीच एक कॉमन एजेंडे को स्थापित कर उसका प्रतिनिधि नेता बन जाने की ख्वाहिश के रूप में देखा जा सकता है. नीतीश ने राष्ट्रीय दलों के मुकाबले क्षेत्रीय दलों में नेताओं की बेहतर स्थिति को बताने के लिए मंच पर लगी कुर्सियों और उन पर विराजमान नेताओं का हवाला देते हुए कहा कि हमारे यहां कोई बड़ा–छोटा नहीं होता, सभी बराबर होते हैं. यह वे कांग्रेस के लिए कह रहे थे या भाजपा के लिए या दोनों के लिए, बात समझ में नहीं आयी लेकिन आखिर में उन्होंने अपने 2014 के लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीटें दिलवाने की अपील की तो यह बात साफ हुई कि कुर्सियों और उन पर बैठे नेताओं के जरिये नीतीश दोनों ही बड़े राष्ट्रीय दलों की आलाकमानी परंपरा पर सांकेतिक तौर पर बोल रहे थे.
इसके बाद चूंकि वे तुरंत दूसरी बातों पर आते हुए कांग्रेस पर निशाना साधने में ऊर्जा लगाने लगे तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे क्या कहना चाह रहे थे. क्या राज्य बंटवारे के साथ ही उसी समय विशेष सहायता नहीं मिलने के लिए भी भाजपा को दोषी ठहराना चाह रहे थे!
रैली में नीतीश तो फिर भी अपने विरोधियों या सहयोगी भाजपा पर कुछ भी बोलने से बचे रहे, लेकिन उनके ठीक पहले बोलने वाले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने बार–बार कहा कि वे राज्यों के बंटवारे के विरोधी थे, आखिरी समय तक विरोध करते रहे लेकिन राज्य बंट गया, जिससे बिहार का भी नुकसान हुआ और झारखंड भी पसर गया है. यह कहकर शरद यादव सीधे तौर पर अपने सहयोगी भाजपा को दोष दे रहे थे क्योंकि केंद्र में उसी की सरकार रहते राज्य का बंटवारा हुआ था. शरद यादव यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी की भी चर्चा की. आधे–अधूरे वाक्यों में उन्होंने समेटा कि जब राज्य बंटा तो उप प्रधानमंत्री आडवाणी थे और उन्होंने बिहार को विशेष सहायता का भरोसा दिलाया था. इसके बाद चूंकि वे तुरंत दूसरी बातों पर आते हुए कांग्रेस पर निशाना साधने में ऊर्जा लगाने लगे तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे क्या कहना चाह रहे थे. क्या राज्य बंटवारे के साथ ही उसी समय विशेष सहायता नहीं मिलने के लिए भी भाजपा को दोषी ठहराना चाह रहे थे!
संयोग से जिस दिन यानि चार नवंबर को जदयू का बहुप्रतिक्षित और बहुचर्चित आयोजन पटना के गांधी मैदान में चल रहा था, और जिसमें जदयू बिहार के विकास में गलती से एक बार सहयोगी भाजपा का नाम तक लेना उचित नहीं समझ रही थी, उसी रोज पटना में भाजपा का भी एक अहम आयोजन था. भाजपा के वरिष्ठ नेता कैलाशपति मिश्र की मृत्यु के बाद देश के कोने–कोने से भाजपा के बड़े नेता पटना पहुंचे हुए थे. आडवाणी, नरेंद्र मोदी, अरूण जेटली, अर्जुन मुंडा से लेकर और भी कई नेता. जदयू के शरद या नीतीश तो सांकेतिक तौर पर पटना के गांधी मैदान में भाजपा पर निशाना साधने की कोशिश कर रहे थे लेकिन भाजपा के कुछ नेता अपने बुजुर्ग नेता को श्रद्धाजंलि देने के अवसर पर भी नीतीश कुमार को गुस्सा दिलानेवाली राजनीति साधने में लगे हुए थे. नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक मार्गदर्शक कैलाशपति मिश्र को श्रद्धांजलि देने आये, भाजपा के कुछ नेताओं ने देश का पीएम कैसा हो, नरेंद्र मोदी जैसा हो का नारा लगवा दिया. जाहिर सी बात है, जिस मीडिया को उस रोज नीतीश पर ही केंद्रित रहना था, उसका भटकाव उधर भी हुआ. मोदी भी हीरो बनकर चले गए.
खैर! भाजपा और जदयू के बीच तू डाल–डाल, मैं पात–पात का रिश्ता चलता रहा है, आगे चलता रहेगा. द्विध्रुवीय राजनीति करनेवाले सहयोगी के तौर पर हैं तो अपने–अपने अस्तित्व को मजबूत करने के लिए ऐसी ओछी हरकत या चतुर चालबाजी करते ही रहेंगे. नीतीश ने इसी रैली में अगले साल मार्च में दिल्ली मार्च की घोषणा कर दी है. तय है, नीतीश की ऊर्जा फिर से दिल्ली मार्च की तैयारी में लगेगी. बिहार के लिए जिस विशेष राज्य दर्जे के मसले को विकास के तमाम एजेंडों में एक एजेंडे के तौर पर होना चाहिए था, उसे एकमात्र एजेंडा बनाकर बाल हठ ठाने हुए नीतीश लोकसभा चुनाव के पहले तक इस एजेंडे को राज्य से लेकर केंद्रीय राजनीति तक में भुना लेने की कसरत में लगे हुए हैं. राज्य में यह अभियान कितना असरदार साबित होगा वह पटना की अधिकार रैली से आंक लेना जल्दबाजी होगी. नीतीश के इस आह्वान पर कि जो भी विकास की रेस में राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं, वैसे हर राज्य को विशेष दर्जा मिलना चाहिए, कितने राज्यों के मुख्यमंत्री अथवा क्षेत्रीय क्षत्रप साथ देते हैं और नीतीश को इस अभियान का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्वकर्ता मानने को तैयार होते हैं, यह मार्च में दिल्ली में होनेवाली नीतीश की रैली से ही पता चलेगा. फिलहाल परिवर्तन यात्रा के जरिये बिखरे कुनबे को एकजुट करने में लगे लालू प्रसाद भी एक रैली करने का एलान कर चुके हैं. जाहिर सी बात है कि रैली के मामले में लालू प्रसाद खुद को बीस साबित करने की कोशिश में अभी से ही ऊर्जा लगाते रहेंगे. भाजपा तो अप्रैल में हुंकार रैली करने ही वाली है. भाजपा पटना के बाद दिल्ली वाली नीतीश की रैली का इकट्ठे जवाब देने की तैयारी में है. लोकसभा चुनाव भले ही कुछ दूर हो लेकिन बिहार में उसका माहौल बन गया है. तमाम तरह की यात्राओं के बाद रैलियों की राजनीति में ही बिहार के राजनीतिक दल अपनी ऊर्जा लगाने को तैयार हैं.