हाल के वर्षों में आए कविता संग्रहों में श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह इस दृष्टि से विशिष्ट है कि इसमें केवल नदी और रेत को लेकर कविताएं हैं. वैसे तो नदी में पसरे रेत को विषय बनाकर कुछ छिट-पुट कविताएं हिंदी में मिल जाती हैं पर रेत की इतनी बहुविध अर्थ छवियां पहली बार श्रीप्रकाश शुक्ल के इस संग्रह में ही दिखाई देती है. संग्रह की कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता है कि रेत जैसी शुष्क और नीरस चीज भी कविता में आकर इतनी जीवंत कैसे बन जाती है? कविताओं में रेत न सिर्फ तमाम तरह की मानवीय भावनाओं का आलंबन है बल्कि वह प्रकृति की गति के साथ गतिशील और परिवर्तनशील भी है. जड़ को चेतन में बदलना ही कवि कर्म की सार्थकता है. कवि जितना समर्थ होगा उसमें यह क्षमता उतनी ही अधिक होगी. रेत का सर्वाधिक बेहतरीन उपयोग मूर्तिकला में होता आया है. एक नए कला माध्यम यानी कि कविता के लिए रेत को संदर्भवान बनाना कवि की निजी उपलब्धि है.
‘रेत में आकृतियां’ स्वयं श्रीप्रकाश शुक्ल के कवि-कर्म में एक प्रस्थान बिंदु है. भूमंडलीकरण की निर्मम प्रक्रिया में खत्म हो रहे लोक की चिंता ही उनकी कविताओं का मुख्य स्वर रहा है. ‘बाली बात’ कविता संग्रह इसका मुखर प्रमाण है. पर अपने इस तीसरे संग्रह में वे अपनी मूल जमीन से कुछ दूर जाते दिखाई दे रहे हैं. हालांकि वे इस बात को लेकर बहुत सचेत हैं कि उनके इस प्रयास को ‘कलावाद’ के दायरे में न देखा जाए. संग्रह की भूमिका में वे स्पष्ट कहते हैं, ‘कला यहां केवल मानवीय सृजन की इच्छा का परिणाम है और सृजन की इच्छा अनिवार्यत: सामाजिक हुआ करती है.’ संग्रह की कविताओं से कवि की इस बात की पुष्टि: होती है. कवि के लिए रेत में बनने वाली आकृतियां सिर्फ सौंदर्य बोध की चीज न होकर इस घनघोर अमानवीय समय में मनुष्यता की आवाज है. इसीलिए वह कहता है, ‘जब कभी उदासी के गहन अंधकार के बीच/ बाहर निकलने की बात उठेगी-/ जो कि उठेगी ही/ बहुत याद आएंगे ये कलाकार.’ क्योंकि, ‘यह जो आकृतियां हैं/ महज आकृतियां नहीं हैं/ ये इनके अरमान हैं/ जो फूट पड़ने को बेताब हैं.’ सामाजिक सरोकार और दृष्टि कविताओं में अंतर्धारा के रूप में सर्वत्र विद्यमान है. शायद इसीलिए ये कविताएं प्रत्यक्ष रूप से रेत पर होते हुए भी सिर्फ रेत की कविताएं नहीं हैं बल्कि हमारे जीवन की कविताएं हैं.