फणीश्वर नाथ रेणु ने उल्लेख किया है कि जब वह (रेणु) तीसरी कसम फिल्म के निर्माण के बाद वापस आ रहे थे, तो शैलेन्द्र के जूनियर ने पूछा कि इतना लम्बा नाम देने की बजाय पी.एन. रेणु क्यों न लिख दिया जाए! शैलेन्द्र ने कहा कि कितना भी लम्बा नाम हो, पूरा ही जाएगा। उसके बाद लेखक के रूप में उनका पूरा नाम ही दिया गया।
रेणु अंचल के रचनाकर होते हुए भी साहित्य के क्षितिज पर जिस तरह जगह बनाते हैं, उससे उनकी कहानियों के विस्तृत फलक को समझा जा सकता है। तीसरी कसम हिन्दी की शायद सबसे भोली, सबसे तेज़, सबसे ज़बरदस्त और सबसे गहरी कहानियों में से एक है। एकदम टिपिकल, ठेठ देहाती अंचल से निकली और दिल-ओ-दिमाग पर छा जाने वाली कहानी। कहानी की मूल कथा तो वही प्रेम परक दास्तान है, जहाँ प्रेमी मन मिल नहीं पाते और एक गहरी उदासी पाठक के भीतर छोड़ जाते हैं। रेणु की कहानी में हीरामन और हीराबाई एक से नामों वाले मीता तो बन गये, पर जनम-जनम के साथी न बन सके। एक भोला-भाला गाड़ी चालक हीरामन और दूसरी ओर नौटंकी में काम करने वाली हीराबाई; उन दोनों के बीच क्या कोई सम्बन्ध हो भी सकता था? किसी भी युग में? हीरामन को तो भौजाई एक कुँवारी कन्या (भाभी की ज़िद, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवायेगी। कुमारी का मतलब हुआ पाँच-सात साल की लड़की…) से शादी कराने के लिए प्रतिश्रुत है, पर हीराबाई की शादी कैसे हो सकती है? सामाजिक बन्धनों को तोडऩे का भ्रम पाल बैठी हीराबाई को भी खुद को बुरा बनाकर हीरामन का दिल तोडऩा ही था और उसने तोड़ा भी। ये बन्धन टूट नहीं सकते थे, तो रेणु की कथा में भी नहीं टूटे। साहित्य की दुनिया में तो कथा अमर हो गयी, पर दुनियावी बन्धनों को तोडऩे में कथा असफल रही।
अब इस कहानी के दूसरे पक्षों पर बात करें। इस कहानी के भीतर जो अंतर्कथा है, वह हमें दो समाजों के बीच के अन्तर को दिखाती ही नहीं, बल्कि उस अन्तर को पुख्ता ही करती है। हीरामन जो अन्तर्मन से एक तरफ इतना भोला है कि जिस नौटंकी कम्पनी की औरत (स्त्री नहीं) को सभी जानते हैं और पतुरिया मानते हैं, उसके बारे में हीरामन जानता ही नहीं। यहाँ तक कि उसके बारे में जानने के बाद भी वह उसे पतुरिया नहीं मान पाता, बल्कि हीरादेवी ही मानता है या परी ही समझता है। (हिरामन को सबकुछ रहस्यमय- अजगुत-अजगुत लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान… कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं? हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी, तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया… अरे बाप! ई तो परी है!)
दूसरी ओर हीरामन उतना ही तेज़ भी है। बाँस की लदनी से लेकर कंट्रोल के ज़माने में कालाबाज़ारी का काम करके पैसा ही नहीं कमा चुका, बल्कि जब पकड़े जाने के हालात बने तो गाड़ी छोड़कर भागने की भी समझ उसमें पूरी तरह मौज़ूद है। उसकी बुद्धि के प्रमाण कहानी में हमारे सामने बार-बार रखे जाते हैं। कहानी में छोटे-छोटे सूत्र इसे प्रमाणित करते हैं। जब दूसरे गाड़ीवान उससे गाड़ी में बैठे व्यक्ति के बारे में पूछताछ करते हैं, तो कभी वह उसे छत्तापुर पचीरा की सवारी बताता है, तो कभी लाली… लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया की छवि गढ़ता है। जब छत्तापुर पचीरा के गाड़ीवान मिलते हैं, तो कहता है- सिरपुर बाज़ार के इसपिताल की डागडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम। तो हीरामन इतना तेज़ भी है और उतना ही सीधा भी (सिधाई ज़रूरी भी थी, वरना प्रेम कैसे करता, वो भी नौटंकी में काम करने वाली हीराबाई से!) राजकपूर ने इसे निभाया भी बखूबी, पर जिस िकरदार को उन्होंने अमर कर दिया, वो उसकी कथा में बदलाव करना चाहते थे; जिसके लिए न तो रेणु तैयार थे, न ही शैलेन्द्र। रेणु ने इस बात का ज़िक्र खुद किया है।
‘…शैलेंद्र ने मुझे सारी स्थिति समझा दी। टक्कर राज कपूर जैसे व्यक्ति से थी, जो न केवल फिल्म के हीरो थे, बल्कि उनके मित्र और शुभङ्क्षचतक भी। भाषण शुरू हुआ। उपन्यास क्या है? साहित्य क्या है? फिल्म क्या है? पाठक क्या हैं? दर्शक क्या हैं? कहानी लिखने से पाठक तक पहुँचने की प्रक्रिया क्या है? खर्च क्या है? फिल्म निर्माण क्या है? उसका आॢथक पक्ष क्या है? ऐसे विचार-प्रवर्तक भाषण शायद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में भी नहीं होते होंगे। इतना ही नहीं तो शैलेंद्र पर चढ़े कर्ज़ और उसे उबारने की भी दुहाई दी गयी। और तो और, पैसा लगाने वाला मारवाड़ी भी जो आँखें बन्द किये बैठा था, कहने लगा- ‘आप यह मत समझिए कि मैं सो रहा था। मैं तो कहानी का ऐंड सोच रहा था। चेन खींचकर गाड़ी रोक लो और दोनों को मिला दो।’ (रेणु रचनावली, भाग-5, पृष्ठ-295)
लेकिन शैलेन्द्र नहीं माने, न ही रेणु। मानना ठीक भी न था। असल में बम्बइया फॉर्मूले के लिहाज़ से दर्शक को शुद्ध मनोरंजन मिलना ज़रूरी था, जिसे राजकपूर भी समझ रहे थे। विदा लेने और अलग होने के प्रसंग साहित्य में तो स्वीकार हो सकते हैं, पर फिल्मी दुनिया साहित्य को अपनाकर भी साहित्य को अपनी तरह से बदलने का फॉर्मूले पर चलती रही है। रेणु इसे नहीं मान सके, शैलेन्द्र भी नहीं और आिखर फिल्म असफल हो गयी। रेणु ने इस असफलता की लम्बी कहानी ‘तीसरी कसम को जान-बूझकर फेल किया गया’ शीर्षक से लिखी है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। मैं यहाँ उस पक्ष पर विस्तार से नहीं जाऊँगी। उसके पीछे एक लम्बी कथा है, जिससे बम्बइया फिल्मों का असल चेहरा हमारे सामने दीखता है— साहित्य और फिल्मों का द्वंद्व ही नहीं एक लड़ाई, जिसमें प्रेमचन्द भी असफल हुए और कमॢशयलाइजेशन जीत गया। मज़े की बात यह कि इसका ठीकरा दर्शक यानी हम पर ही फोड़ दिया गया। अब आते हैं शैलेन्द्र और रेणु की तीसरी कसम पर! रेणु की कहानी की शुरुआत और फिल्म की शुरुआत अलग-अलग सी है। जहाँ रेणु की कथा कंट्रोल के ज़माने में कालाबाज़ारी और बाँस की लदनी का संकेत करते हुए उसकी दो कसमों का उल्लेख करती है, वहीं शैलेन्द्र की फिल्म ‘सजन रे झूठ मत बोलो..’ गीत से शुरू होती है।