कई बार कोई करारी शिकस्त राजनैतिक दल को बुरी तरह सदमें में ला देती है तो उसके पीछे अप्रत्याशित भला भी छिपा हो सकता है? लोकसभा चुनावों में राजस्थान में कांग्रेस की पराजय को पार्टी नेतृत्व इसी चश्में से देखने की कोशिश करे तो सिर धुनने से बचा जा सकेगा। दरअसल इस चुनावी दंगल में कांग्रेस ने अपने एक दर्जन विधायक दांव पर लगा दिए थे। अगर सभी विधायक फतह हासिल कर लेते तो किनारे पर टिकी गहलोत सरकार इनकी भरपाई कैसे करती? मोदी मैजिक के अंधड़ में यह संभव ही नहीं था। नतीजतन गहलोत सरकार तिनके की तरह उड़ जाती? लिहाजा कांग्रेस नेतृत्व को ठेठ राजनीतिक मातमी सूरत बनाने की ज़रूरत नहीं होनी चािहए। ज़रूरत तो फिलहाल इस बात की है कि इस बात पर गहन मंथन किया जाना चाहिए कि कांग्रेस का संगठन क्यों ध्वस्त हो गया? विश्लेषक इसका रटा-रटाया उत्तर देते हैं कि,’संगठन का मुखिया तो सत्ता से रोमांस करता हुआ संगठन को श्रद्धांजलि दे रहा था? इस जनादेश ने इस साधारण से सत्य को सामने ला दिया कि क्या संगठन के मुखिया की सत्ता में उपस्थिति होनी चहिए थी?
विश्लेषकों का कहना है कि,’उत्तर विचारधारा के इस युग में जबकि गतिज उर्जा निर्माण अथवा विध्वंस रचती है? क्या कांग्रेस को गुब्बारों की तरह फुलाए गए सपनों के थोक व्यापारियों से डर जाना चािहए? विश्लेषकों का कहना है कि,’बदलाव के सियासी रोमांस की प्रचलित अवधारणा के मद्देनजर कांग्रेस को इस पराजय से पहला सबक लेना चाहिए कि प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति गढऩे तक हुई भारी भूलों का मलबा किस तरह साफ किया जाए? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि,’इस जनादेश ने अप्रत्यक्ष रूप से संदेश दे दिया है कि,’सरकार को बदलाव के बड़े कदम उठाने के लिए शासन की निरन्तरता और स्थायित्व आवश्यक है। कोठारी कहते है कि,’जनादेश में जो बात स्पष्ट रूप से सकारात्मकता के साथ सामने आई? उसके मुताबिक भाजपा और संघ के कार्यकर्ता ज़मीन से जुड़े नजर आए जबकि कांग्रेस एक कागज़ी पार्टी बनकर रह गई? कांग्रेस के किसी भी नेता को ज़मीनी हकीकत क्यों नजऱ नहीं आई? कोठारी कहते हैं कि प्रश्न हार जीत का नहीं है। सुलगता सवाल है कि आग्रही लोकतंत्र में विपक्ष कहां मौजूद था? कांग्रेस के स्तर पर सबसे बड़ा खोट था उसका संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह लडख़ड़ा गया था। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट दो नावों पर सवार थे। पायलट सत्ता में भी घुसपैठ किए हुए थे और कथित रूप से संगठन को भी संभाल रहे थे? कोठारी कहते हैं कि, कांग्रेस ने युवा शक्ति को नजऱ अंदाज किया जबकि इस बार युवा शक्ति ने भावावेश में नहीं दीर्घकालीन हित को ध्यान में रखकर मोदी को वोट दिया।
प्रदेश अध्यक्ष पायलट के निर्वाचन क्षेत्र टोंक में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया? विश्लेषक कहते हैं कि, चुनावी रण में जब प्रदेश अध्यक्ष को सबसे चुस्त दांव चलने चाहिए थे, वे ‘कुर्सी’ से लगाव की अपनी रटी-रटाई राजनीति कर रहे थे। जिस वक्त सियासत को ज़्यादा रूमानी बनाने की जरूरत थी, उसकी संगठनात्मक रणनीति गायब थी। ऐसा क्यों कर हुआ कि राजस्थान के हर निर्वाचन क्षेत्र में रोजमर्रा की राजनीति ही चलती रही? नतीजतन वर्ष 2014 की तरह फिर प्रदेश में क्लीन स्वीप हुआ। भाजपा केा 58.5 फीसदी और कांग्रेस को 34.2 फीसदी वोट मिले। विश्लेषकों का मत है कि विधानसभा चुनावों के जयघोष में कांग्रेस को इस बात को नहीं भूलना चाहिए था कि,’वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं…।’’
सूत्रों की मानें तो, प्रदेश की 25 लोकसभाई सीटों पर पराजय के बावजूद गहलोत सरकार पर कोई संकट आ सकता है? फिलहाल ऐसे कोई आसार तक नहीं है। अलबत्ता सरकार और संगठन में टकराव निश्चित रूप से तय है। सत्ता और संगठन में फेरबदल तो निश्चित है। लेकिन राजनीतिक राणनीतिकारों का कहना है कि,’पायलट संगठन के मुखिया बने रहेंगे? यह अब संभव नहीं है। उधर इस बार भाजपा ने बेशक 25 सीटें जीती है, लेकिन इसमें वसुंधरा की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए आलाकमान को झुकाकर मनमानी कर चुकी वसुंधरा राजे की सत्ता के गलियारों से तो विदाई तय है। अलबत्ता प्रदेश के भाजपा के राजनीतिक क्षितिज पर गजेन्द्र सिह शेखावत नए सितारे के रूप में उभर सकते है।
राजस्थान की 25 संसदीय सीटों पर दो चरणों में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में 66.12 फीसदी वोट पड़े। यह पहला रिकार्ड मतदान था। विश्लेषकों ने इसे ‘वोटर जीत गया’ की संज्ञा देते हुए परिभाषित किया। लेकिन चुनावी राजनीति की सियासी ज़मीन का पारा नापने से पहले दो बातें पूरी तरह समझ लेनी होगी। पहली- भाजपा बेशक प्रत्यक्ष्पा रूप से मजबूत नजर नहीं आई किन्तु फिर भी इस मर्तबा भी भाजपा ने सभी 25 सीटें कब्जा ली। क्या यह मोदी का अंडर करंट नहीं था? दूसरा-कांग्रेस विधानसभा सरीखा प्रदर्शन दोहरा पाएगी? ऐसा कयास ही गलत साबित हुआ। इस बार
राजस्थान में बेशक मोदी फैक्टर पूरी तरह हावी रहा है। निश्चित रूप से कांग्रेस ने ‘मोदी फैक्टर’ के दबाव में चुनाव लड़ा है। भाजपा पूरी तरह मोदी के चेहरे और मुद्दे पर सिमटी रही। साफ लग रहा था कि,’यह चुनाव भाजपा का नहीं मोदी का है….. कांग्रेस तराजू के दो पलड़ों की तरह आक्रामक और रक्षात्मक होने की जुगत में झूलती रही। चुनाव में मोदी हमलावर रहे तो सिर्फ गहलोत पर। विश्लेषकों की मानें तो गहलोत के सामने चुनौती भी इसलिए ज़्यादा रही कि 2014 के लोकसभा चुनावों में ‘रक्षात्मक रेखा’ पूरी तरह उनके खिलाफ रही थी। इसलिए गहलोत बेशक हमलावर बने रहे। लेकिन अपनी पारम्परिक और विनम्र छवि को ही भुनाने की तरफ ज्यादा तवज्जो दी। वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत की मानें तो ‘हालांकि मतदाताओं में आक्रोश और आकांक्षाएं कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही थी लेकिन उनकी उम्मीदों के फलक पर मोदी ही छाए रहे।
भाजपा ने पहली बार राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल से गठजोड़ कर एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरूआत की। भाजपा के प्रदेश प्रभारी प्रकाश जावडेकर ने यह कहते हुए इस गठजोड़ की घोषणा की कि, ‘रालोद के संयोजक हनुमान बेनीवाल अपनी पार्टी से नागौर सीट से चुनाव लड़ेंगे। सूत्रों की मानें तो,’हनुमान बेनीवाल और वसुंधरा राजे के बीच कट्टर शत्रुता थी। इस गठजोड़ का चुनावी रण किसे मुफीद हुआ इस गठजोड़ ने मारवाड़ में गहरी पैठ रखने वाले जाट समुदाय को बेशक कई हिस्सों में बांट दिया। उन्होंने तो यहां तक अंदेशा जताया कि,’बेनीवाल के साथ गठजोड़ से राजपूतों और रावणा राजपूतों का बड़ा हिस्सा गजेन्द्र सिंह शेखावत से छिटक जाएगा। ऐसा हुआ भी लेकिन फिर भी शेखावत जीत गए?
राजनीतिक रणनीतिकारों का तो यहंा तक कहना था कि,’नागोर में अगर राजपूत बेनीवाल के खिलाफ कांग्रेसी खेमें में चले गए तो इसका सीधा असर बाड़मेर पर होगा, जहां राजपूत और अन्य पिछड़ा वर्ग पूरे मन से मानवेन्द्र ंिसंह के साथ खड़ा हो जाएगा। क्यों ऐसा नहीं हुआ? इसका भेद 23 मई को ही खुला और मानवेन्द्र सिंह हार गए?
लोकसभा के रण में राजस्थान की कुछ सीटें तो ऐसी रही जो सीधे-सीधे कद्दावर नेताओं की सियासी ज़मीन को हिला सकतीे थी। जोधपुर-जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा दांव पर थी। यहां से उनके बेटे वैभव गहलोत राजनीति में उतरे। ंजोधपुर गहलोत का गढ़ कहा जाता है। झालावाड़-यहां राजनीति का दूसरा नाम ही वसुंधरा राजे है और उनका इस क्षेत्र में एक छत्र आधिपत्य है। यहां से वसुंधरा राजे पांच बार और उनके पुत्र दुष्यंत लगातार तीन पारियों से जीतते रहे है। यहां इस बार राजे की प्रतिष्ठा दांव पर रही। लेकिन दुष्यंत जीत गए। दौसा-यहां टिकट बंटवारे में ही तलवारें खिंच गई थी। राजे और उनके धुर विरोधी भाजपा से राज्यसभा सदस्य किरोड़ीलाल मीणा के बीच ऐसी रस्साकस्सी चली कि पार्टी को पसीने आ गए। यहां से भाजपा की जसकौर मीणा और कांग्रेस की सविता मीणा के बीच इस मुकाबले को दिलचस्प बनाया निर्दलीय अंजु धानका ने। भाजपा के ही मीणा समुदाय के दो दिग्गजों किरोड़ीलाल मीणा और किरोड़ीमल बैसला के प्रभाव क्षेत्र वाली इस सीट की जंग को लोगों ने टकटकी लगाकर देखा।
जयपुर शहर की सीट से कांग्रेस ने पहली बार मेयर रही महिला उम्मीदवार ज्योति खंडेलवाल को रण में उतारा। उनका मुकाबला पिछले चुनावों में सबसे ज्यादा मत बटोरने वाले भाजपा के रामचरण बोहरा से हुआ। नतीजतन यह देखना दिलचस्प रहा कि,’हर बार भाजपा के कब्जे में रही इस सीट पर मेयर रही महिला को दांव पर लगाना कैसे कांग्रेस को भारी पड़ा?यहां बेशक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने आठ में से पांच सीटें जीत ली थी। लेकिन वोट प्रतिशत की हिस्सेदारी में तो भाजपा कांग्रेस से आगे थीं। जयपुर ग्रामीण सीट पर दो ओलंपियंस की भिडंत ने मुकाबले को चर्चा में ला दिया। निशानेबाजी में ओलंपियन और केन्द्रीय मंत्री राज्यवर्द्धन के मुकाबले में कांग्रेस की कृष्णा पूनिया कम नहीं रही। बेशक इस सीट पर भाजपा की पकड़ मजबूत रही, लेकिन कांग्रेस ने कृष्णा को मैदान में उतारकर खेल को नए पैंतरों में ढाल दिया किन्तु कोई भी पैंतरा काम नहीं आया। राजस्थान के दूसरे जाटलेंड कहे जाने वाले शेखावाटी में भाजपा के सामने 2014 का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती रही। जबकि कांग्रेस को सत्ता में होने की अपनी प्रामाणिकता देने के लिए जबरदस्त जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन कोई कवायद काम नहीं आई।
वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद यह कहते हुए चैंकातेे हैं कि,’शेखावाटी में धर्म, जाति, भावनाओं और संवेदनाओं की ऐसी खिचड़ी पकती रही कि दिग्गज जाट नेता भी डरे हुए नजर आए। सीकर में भाजपा ने सांसद सुमेधानंद को फिर दोहराया। इस बार उनका सामना कांग्रेस के सुभाष महरिया से था। कांटे का मुकाबला तो सीकर और झुंझनू सीट पर भी हुआ। भाजपा ने अलवर में भी धार्मिक धु्रवीकरण का पासा फेंका। यहां से बाबा बालकनाथ का मुकाबला कांग्रेस के पूर्व सांसद भंवर जितेन्द्र सिंह से था। मुकाबला बेशक बराबरी का था, फिर भी बालकनाथ जीत गए। अति पिछड़ों, पिछड़ों और दलितों के बड़े हिस्से के वोट को लेकर राजस्थान के चुनाव में भी अजब-गजब सी स्थिति बनी रही। राजस्थान की दस सीटों पर हार जीत का फैसला जात-पात पर ही होना था, लेकिन मोदी लहर में सब बह गया? प्रदेश की 25 में से 7 सीटें आरक्षित है। भरतपुर,करोली-धोलपुर,बीकानेर, और गंगानगर दलितों के लिए जबकि उदयपुर,बांसवाड़ा और दौसा आदिवासी पिछड़ों के लिए आरक्षित है। भरतपुर, करेाली, धोलपुर और दोसा में तो जाट बिरादरी ही भारी है। सबसे जबरदस्त मुकाबले की सीट तो जोधपुर और जयपुर ग्रामीण की मानी गई। आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा में बीटीपी, सीकर में सीपीएम और अलवर में बसपा वोट कटवा पार्टी ही साबित हुई। इसकी वजह भी साफ है कि बीटीपी की बूथ स्तर पर अच्छी पकड़ रही। अलबत्ता यह बात फिर दोहराना वाजिब होगा कि पहली मर्तबा वोट डालने वाले 13 लाख वोटर जिधर गए जीत की राह तो उधर से ही निकली। यानी युवा वोटर ने कर दिया फैसला।