बाइडेन प्रशासन की भारत के प्रति धमकी भरी भाषा से भी है नाराज़गी
डेढ़ साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में तल्ख़ी जैसा कुछ देखने को मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच रिश्ता ‘निजी मित्रता’ जैसा दिखता था; भले कुछ विशेषज्ञ इसे लेकर आशंकाएँ भी जताते थे। जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद दोनों देशों के बीच का रिश्ता इस एक साल में ट्रंप के समय की तरह जोश भरा नहीं दिखा है। लेकिन ऐसा लगता है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच भारत के प्रति अमेरिकी रुख़ ने भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर रूस के ख़ेमे में जाने का रास्ता खोल दिया है।
अमेरिका ने रूस और भारत के बीच इस पहल पर बहुत ख़राब प्रतिक्रिया दी है। उसने भारत के ख़िलाफ़ खुलकर धमकी भरी भाषा इस्तेमाल की है। रूस से भारत को कम मूल्य पर हथियार और तेल मिलने से अमेरिका विचलित दिखा है। उसे यह भी लग रहा है कि भारत रूस की निंदा करने से बच रहा है। ज़ाहिर है उसकी यह प्रतिक्रिया अपने व्यापारिक हितों को चोट पहुँचने की आशंका के कारण है।
इसे एक बैठक से समझा जा सकता है। अप्रैल के पहले हफ़्ते में जब अमेरिका की उप विदेश सचिव विक्टोरिया नूलैंड भारत यात्रा पर थीं। भारतीय अधिकारियों ने चीन और पाकिस्तान का सामना करने के लिए हथियारों का विकल्प देने में मदद के उनके (नूलैंड के) प्रस्ताव पर दो-टूक कह दिया कि रूसी हथियारों के विकल्प बहुत महँगे हैं। ज़ाहिर है विकल्प के अभाव में पहले जिस तरह अमेरिका मनमर्ज़ी के दामों में हथियार बेचता रहा है, उस पर यह कड़ी टिप्पणी थी। ज़ाहिर है रूस-यूक्रेन युद्ध के बहाने भारत को अमेरिका से सौदेबाज़ी का विकल्प मिला है।
लेकिन क्या भारत सचमुच रूस के ख़ेमे में जा रहा है? या पिछले एक साल में बाइडेन राज में अमेरिका ने भारत के साथ रिश्तों में जो ठंडक दिखायी है, भारत उसका बदला ले रहा है। विपक्ष में रहते हुए या राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के समय जो बाइडेन और कमला हैरिस दोनों के ही सुर भारत की सत्ता (मोदी शासन) के प्रति तल्ख़ दिखते थे; ख़ासकर मानवाधिकार के मामलों को लेकर। सत्ता में आने के बाद भले अमेरिका के दो बड़े नेताओं ने भारत के साथ रिश्तों के महत्त्व को दोहराया है; लेकिन ज़मीन पर रिश्तों में वैसी गर्माहट कभी नहीं दिखी।
अमेरिका अब जी-तोड़ कोशिश कर रहा है कि भारत को रूस के ख़ेमे में जाने से रोका जाए। यह अलग बात है कि भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में अपना पक्ष एकतरफ़ा नहीं रखा है। उसने जहाँ बूचा नरसंहार का विरोध किया, वहीं द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर भी सधा हुआ रुख़ अपनाया है। इस घटनाक्रम के बीच भारत और अमेरिका के विदेश मंत्री भी मिल चुके हैं। अमेरिका कह रहा है कि भारत के साथ इस 2+2 बातचीत से दोनों देशों के बीच समग्र वैश्विक रणनीतिक साझेदारी मज़बूत होगी और इससे अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा तो ताक़त मिलेगी। यहाँ सवाल यह भी है कि क्या भारत को रूस के ख़ेमे में जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है? भारत जिस तरह से रूस-यूक्रेन मामले में तटस्थ रहा है, उसे भी कुछ विशेषज्ञ रूस का साथ देने जैसा बता रहे हैं। अमेरिका इस तरह के प्रचार में सबसे आगे है। अमेरिका की यह नीति रही है कि जो उसके हर स्वार्थ में उनके साथ नहीं, वह उसका दोस्त नहीं। अमेरिका और उसके पश्चिमी दोस्त शुरू से ही भारत की गुट निरपेक्ष नीति को स्वीकार करने से हिचकते रहे हैं।
यहाँ यह बताना भी दिलचस्प है कि अमेरिका भारत पर रूस के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढऩे पर तो हाय-तोबा मचा रहा है; लेकिन ख़ुद उसने रूस के साथ अपने व्यापार को ख़त्म नहीं किया है। अभी तक भारत ने अमेरिकी दबाव को मज़बूती से झेला है।
ऐसा नहीं कि हाल के वर्षों में भारत रूस के नज़दीक नहीं रहा है। लम्बे समय से भारत के रूस के साथ व्यापारिक और सैन्य सम्बन्ध रहे हैं। रणनीतिक भागीदारी के मामले में भी भारत की जनता रूस को अमेरिका की तुलना में ज़्यादा विश्वसनीय मानती रही है। युद्ध में आगे कर अमेरिका ने जिस तरह यूक्रेन को गम्भीर संकट में अकेला छोड़ दिया, यह बात यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के बार-बार नाटो और अमेरिका को कोसने से साफ़ हो जाती है।
पश्चिमी देशों की उदारवाद की नीति अपने हितों तक सीमित है। यूक्रेन को युद्ध की आग में झोंककर अमेरिका ने देशों को अपने ख़ेमे में लाने की कोशिश की है। लेकिन कड़वा सच यह है कि यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान दुनिया की दो बड़ी महाशक्तियाँ चीन और भारत रूस के ज़्यादा निकट गये हैं। रूस पहले से ही बड़ी शक्ति है। ऐसे में अमेरिका पर दबाव बढ़ा है।
चीन भी बड़ा कारण
दरअसल भारत के वर्तमान रुख़ के पीछे चीन भी एक बड़ा कारण है। चीन के साथ भारत के सम्बन्ध हाल के महीनों में काफ़ी तनाव भरे रहे हैं। लद्दाख़ से लेकर अ रुणाचल तक चीन सीमाओं पर निर्माण करके भारत पर दबाव बढ़ाने की कोशिश करता रहा है। हालाँकि भारत ने चीन के इन प्रयासों का दृढ़ता से विरोध किया है। हालाँकि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद चीन और भारत के सम्बन्धों में तल्ख़ी थोड़ी कम दिखी है।
चीन रूस का सहयोग कर रहा है और भारत भी कमोवेश उसी ध्रुव पर खड़ा है। चीन और भारत के बीच तनाव कम करने में रूस हाल के महीनों में मध्यस्थता करने से कतराता दिखा है। कुछ महीने पहले रूस के पाकिस्तान की सेना के साथ साझे सैन्य अभ्यास से यह संकेत गया था कि भारत से नाराज़गी के कारण ऐसा किया गया। इसका एक कारण रूस के अलावा सैन्य उपकरण ख़रीदने के लिए हाल के वर्षों में भारत का अमेरिका और इजरायल के पास जाना भी रहा है। रूस तब भी भारत से नाराज़ दिखा था, जब कुछ महीने पहले वह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वाड) गुट में शामिल हुआ था। रूस ने इस पर खुले रूप से नाराज़गी दिखायी थी।
चीन भारत के लिए आज की तारीख़ में एक महत्त्वपूर्ण मसला है। चीन के खुले रूप से रूस का साथ देने से भारत के पास एक विकल्प है कि यदि रूस के साथ हमारे सम्बन्ध और दृढ़ होते हैं, तो चीन से भी सम्बन्ध बेहतर करने का रास्ता खुल सकता है। हाल के महीनों में चीन की नीति से साफ़ दिखता है कि लद्दाख़ के हिस्से पर उसकी बुरी नज़र है। ऐसा नहीं है कि भारत अमेरिका से पूरी तरह कट जाना चाहता है। अमेरिका की मजबूरी है कि वह भारत का साथ नहीं छोड़ सकता। चीन उसके लिए एशिया क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती है। लिहाज़ा भारत को उसे एक सहयोगी के रूप में साथ रखना होगा।
अमेरिका को चिन्ता है कि यदि भारत चीन और रूस साथ जुड़कर एक त्रिकोण बना लेते हैं, तो अमेरिका के लिए यह बहुत चिन्ताजनक स्थिति होगी। इससे पश्चिम अमेरिका के नेतृत्व में जिस तरह अपनी मनमर्ज़ी करता है, वह नहीं कर पाएगा। हालाँकि फ़िलहाल रूस और चीन तो पश्चिम दादागिरी के ख़िलाफ़ साथ दिख ही रहे हैं। लेकिन यहाँ एक सत्य यह भी है कि रूस आँख मूँदकर चीन पर भरोसा नहीं करता; क्योंकि एशिया क्षेत्र में जो रूस चाहता है, चीन भी वही चाहता है- ‘अपना दबदबा’। इधर भारत ‘देखो और इंतज़ार करो’ की नीति पर चल रहा है।
लेकिन रूस भारत पर भरोसा कर सकता है। हो सकता है कि भारत को रूस के साथ जाने लिए नेहरू के समय की गुटनिरपेक्ष नीति का त्याग करना पड़े। रूस भारत का पड़ोसी है और अमेरिका के मुक़ाबले वह भारत के लिए किसी भी रणनीतिक गठबंधन की नज़र से कहीं बेहतर विकल्प है। बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका चीन से सम्बन्ध सुधार सकता है। इसका कारण यह है कि ट्रंप प्रशासन के समय चीन से उसके रिश्ते बहुत ज़्यादा तल्ख़ रहे थे। जब ट्रंप हारे थे, तब चीन में राहत महसूस की गयी थी।