इस साल की पहली सुबह देश के मशहूर कामेडियन अभिनेता और लेखक कादर खान की मौत कनाडा में हुई। उन्होंने न केवल कामेडिय़न बल्कि दुखांत अभिनय भी किए हैं। उन्हें साहित्य पढऩे का बहुत शौक था। मंटो, गालिब, गोर्की दिखाने आदि उनके पसंदीदा लेखक थे।
उनका पहला शौक अभिनय, मिमिक्री और अपनी नज़र से संबंधों को जानना-समझना था। ज्य़ादातर लोग जानते हैं कि गणित, फिजिक्स, एप्लाइड मैकेनिक्स और हाइड्रॉलिक्स में उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई थी। मुंबई में एक अर्से तक उन्होंने इंजीनियरिंग छात्रों की ट्यूशन ली। वे अभिनय थिएटर में भी करते थे। साथ ही दूसरे अभिनेताओं के ‘मूवमेंट्स’ पर उनकी नज़र रहती थी।
साहित्य और समाज के प्रति अनुराग से लेखक भी बने। उन्होंने मुंबई सिने जगत में अपने लेखन का सिक्का जमा लिया। उनके लेखन और संवाद प्रस्तुति की शैली गजब की थी। वे संवाद लिखते और अभिनेताओं से उसे पढऩे को कहते। कहा जाता है कि एक बार एक कामयाब फिल्म में उन्होंने तकरीबन 16 पेज का खुद से स्वगत कथन लिखा और हिंदी सिनेमा में तब के यशस्वी अभिनेता अभिताभ बच्चन को उसे पढ़ कर सुनाने को दिया। अभिताभ ने उसे अपने अंदाज़ से पढ़ा। बाद में कादर खान ने उन्हें वह सुनाया। अमिताभ बच्चन उनका लोहा मान गए।
मुंबई मे कादर खान ने 1974 मेें अपना पहला संवाद लेखन ‘रोटी’ में किया था। मनमोहन देसाई की यह फिल्म बाक्स ऑफिस पर भी हिट रही। कादर खान के दिमाग में बड़ी ही सहजता से इस प्रकार के शब्द आते जो छोटे वाक्यों में ढल कर सही समय और सटीक जगह निहायत प्रभावी ढंग से सुनने वाले को प्रभावित कर जाते थे।
70 और 80 के दशकों में उनकी ज्य़ादातर फिल्में खासी कामयाब रहीं। अमर अकबर एंथोनी (1977), कुली (1983), और लावारिस (1981) ऐसी फिल्में थीं जिनसे लेखक, स्क्रिप्ट राइटर, और अभिनय के कारण वे चर्चा में भी रहे और हमेशा सराहे जाते रहे। हिंदी सिनेमा में 90 के दशक में फिल्म निदेशकों की एक नई पौध आ गई। इसके कारण कादर खान पीछे हुए। इन नए निदेशकों की सोच थी कि फिल्मों में अब सारतत्व की बजाए शैली पर ध्यान दें और संवाद की अपेक्षा स्पेशल इफेक्ट्स का इस्तेमाल किया जाए। इस नए दौर से कादर को झटका लगा। उन्होंने हैदराबाद से 56 की उम्र में इस्लाम में मास्टर्स की डिग्री ली। खुद कनाडा चले गए। बच्चों और परिवार के बीच।
बालीवुड में लेखक, अभिनेता, कामेडियन बतौर मशहूर रहे कादर खान ने कनाडा में आखिरी सांस ली। उन्होंने अपनी जि़ंदगी में कई उसूल बनाए और उनका पालन किया। उन्होंने अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाई। फिल्मों में आने से रोका। अर्से पहले उन्होंने बालीवुड को अलविदा कहा था। कनाडा में वे पत्नी हजरा और बेटे और पोते-पोतियों के घर रहे।
कनाडा पहुंच कर कादर खान चुप नहीं बैठे। वे बड़े बेटे सरफराज के निर्देशन में हुए नाटक देखते, इस्लाम को और लोकप्रिय बनाने के लिए छोटी-छोटी फिल्में बनाते। कुछ ही समय में वहां भी वे ‘सेलेब्रेटी’ हो गए। आज उनके बेटे सरफराज का वहां अपना एक थिएटर समूह है। इसका नाम है ‘इंटरनेशनल थिएटर कंपनी’। इसके बैनर तले कई नाटक खेले जा चुके हैं। जिनके कारण सरफराज की अपनी अलग एक पहचान है। यह पहचान थिएटर और प्रोडक्शन के चलते बनी। उनके नाटकों में हैं। ‘बड़ी देर कर दी मेहरबान आते-आते’, ‘लोकल ट्रेन’, ताश के पत्ते आदि।