बात कोई पांच महीने पुरानी है. अक्टूबर, 2012 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में एक रैली की थी. रमाबाई मैदान में हुई इस रैली में देश भर से पार्टी कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ा. विशाल भीड़ देखकर मायावती उत्साहित हो गईं और उन्होंने कार्यकर्ताओं से 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी शुरू करने को कहा. इस मायने में बसपा के लिए यह रैली एक तरह से चुनावी शंखनाद थी. मायावती ने अपने भाषण में दो और बातों पर जोर दिया था. उनका कहना था कि पार्टी के किसी भी नेता के रिश्तेदार को चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं मिलेगा चाहे वह खुद उनका सगा-संबंधी क्यों न हो. उनका दूसरा एलान यह था कि बाहुबलियों और दागी छवि के लोगों के लिए पार्टी में कोई जगह नहीं है, उनका चुनाव लड़ना तो दूर की बात है.
वैसे यह पहला मौका नहीं था जब मायावती ने सार्वजनिक रूप से ये दो बातें कही हों. 2010 में हुए पंचायत चुनाव के पहले भी उन्होंने यह कहा था. फिर भी पार्टी के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने अपने-अपने रिश्तेदारों को पंचायत चुनाव के मैदान में उतारा और कई ने जीत भी हासिल की. बाहुबली भी मैदान में पीछे नहीं थे. अब लोकसभा चुनाव के लिए उनके शंखनाद के पांच महीने के भीतर ही एक बार फिर यह समझ में आने लगा है कि बसपा अपने नेताओं के रिश्तेदारों, बाहुबलियों और दागी छवि के लोगों से पीछा नहीं छुड़ा पा रही. मौका कोई भी हो, समाजवादी पार्टी पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाली बसपा भी परिवारवाद का लबादा ओढ़े नजर आ रही है. आधिकारिक तौर पर पार्टी की ओर से भले ही अभी तक प्रत्याशियों की कोई सूची जारी न की गई हो लेकिन पार्टी हाईकमान की ओर से लोकसभा प्रभारी बना कर प्रत्याशियों को उनके क्षेत्रों में भेज दिया गया है. जो लोग ताल ठोककर लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे हैं, उनमें से करीब आधा दर्जन ऐसे नाम हैं जो किसी न किसी बड़े नेता के परिजन हैं या उनके करीबी रिश्तेदार.
उदाहरण के लिए, पार्टी की पहली पंक्ति के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बेटे अफजल को हाईकमान की ओर से चुनाव लड़ने का संकेत हो गया है. अफजल ने फतेहपुर सीट से अपनी तैयारी भी शुरू कर दी है. सिद्दीकी तो सिर्फ अपने बेटे को ही टिकट दिलाने में सफल हुए हैं लेकिन बसपा सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे रामवीर उपाध्याय ने अपनी सांसद पत्नी के साथ छोटे भाई को भी टिकट दिलवाने में कामयाबी पाई है. उपाध्याय की पत्नी सीमा उपाध्याय ने 2009 के चुनाव में फतेहपुर सीकरी से चुनाव लड़ा और सांसद बनीं. निवर्तमान सांसद होने के कारण उनके टिकट को काटना असंभव था लिहाजा 2014 के लिए उनके टिकट पर तो मुहर लगी ही, उपाध्याय के छोटे भाई मुकुल उपाध्याय ने भी गाजियाबाद से चुनावी तैयारी शुरू कर दी है. पार्टी सूत्र बताते हैं कि हाथरस जिले के निवासी पूर्व मंत्री उपाध्याय ने सियासी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए पहले से ही आस-पास के जिलों में राजनीतिक गतिविधियां शुरू कर दी थीं ताकि मौका पड़ने पर सियासी फसल काटी जा सके.
[box]नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर दांव लगाने के अलावा बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रयोग की गई सोशल इंजीनियरिंग भी फिर से आजमाने जा रही है[/box]
परिवार में अधिक से अधिक लाल बत्तियों का मोह पार्टी के दूसरे बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भी नहीं छोड़ पा रहे. मौर्य की अपनी बेटी संघमित्रा को मैनपुरी से चुनाव लड़वाने की योजना है. हालांकि पार्टी के सूत्र बताते हैं कि उनके चुनावी क्षेत्र में अभी बदलाव किया जा सकता है क्योंकि मैनपुरी सपा का गढ़ माना जाता है और इसलिए चुनाव में कोई गड़बड़ न हो, यह बात ध्यान में रखते हुए संघमित्रा को किसी ऐसी सीट से चुनाव लड़ाया जा सकता है जहां से उनकी जीत आसानी से हो सके. लेकिन इतना जरूर तय है कि मौर्या अपनी बेटी को लोकसभा चुनाव जरूर लड़ाएंगे. पार्टी का ब्राह्मण चेहरा कहे जाने वाले सतीश चंद्र मिश्रा के करीबी रिश्तेदार रमेश शर्मा भी झांसी से चुनाव मैदान में हैं. रमेश शर्मा मिश्रा के समधी हैं. कभी बसपा सुप्रीमो मायावती का चुनावी क्षेत्र रहे अंबेडकर नगर से बसपा सांसद राकेश पांडे भी अपने छोटे भाई पवन पांडे को चुनावी मैदान में उतार चुके हैं. उन्होंने अपने छोटे भाई के लिए अंबेडकर नगर से सटी सुल्तानपुर लोकसभा सीट को चुना है. पवन ने कुछ माह पूर्व सुल्तानपुर से अपना प्रचार भी शुरू कर दिया है. पवन इससे पहले भी सुल्तानपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं.
रामवीर उपाध्याय के पैतृक जिले हाथरस से सटी अलीगढ़ लोकसभा सीट पर पार्टी ने वर्तमान सांसद राजकुमारी सिंह के पति जयवीर सिंह को टिकट दिया है. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब राजकुमारी सांसद बनी थीं उस समय जयवीर सिंह बसपा सरकार में मंत्री थे. 2012 के विधानसभा चुनाव में जयवीर सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा. मायावती के साथ हर मंच पर दिखने वाले सिंह को पार्टी ने ठाकुर चेहरा होने का लाभ दिया और चुनाव हारने के बाद भी एमएलसी बना दिया. सूत्रों के मुताबिक वे एमएलसी बनने भर से नहीं माने हैं इसलिए उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी भी शुरू कर दी है. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भले ही मंचों से पार्टी में परिवारवाद न होने का दम भरती हों लेकिन ये चंद आंकड़े बताते हैं कि किस तरह पार्टी का हर बड़ा नेता अपने भाई, पत्नी या बेटे के मोह में फंसा हुआ है.
अब यदि पार्टी में बाहुबलियों की बात करें तो सबसे पहला नाम सांसद धनंजय सिंह और सांसद प्रत्याशी बबलू सिंह का आता है. जौनपुर से सांसद धनंजय सिंह पर बसपा के शासनकाल में ही प्रदेश में हुए एनआरएचएम घोटाले के साथ सीएमओ की हत्या का आरोप लग चुका है. इन आरोपों से घिरे धनंजय सिंह को पार्टी ने विधानसभा चुनाव से पहले इसलिए बाहर निकाल दिया था कि उन्होंने बिना पार्टी अनुमति के अमर सिंह से मुलाकात कर ली थी. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि अमर सिंह से मुलाकात के बाद धनंजय को पार्टी से निकाला जाना महज दिखावा था और ऐसा सीएमओ मर्डर केस और एनआरएचएम के आरोप के कारण किया गया था. विधानसभा चुनाव की वजह से मायावती कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थीं. पार्टी से निकाले जाने के बाद धनंजय सिंह पर मायावती की सख्ती का आलम यह था कि अमर सिंह से मुलाकात के बाद जब धनंजय वापस हवाई जहाज से बनारस आए तो उनके सैकड़ों समर्थक वाहनों से उनको लेने गए थे. इन वाहनों को पुलिस ने सूजे से पंचर करने के साथ ही समर्थकों को लाठी मार कर खदेड़ दिया था. मायावती और धनंजय सिंह के बीच कड़वाहट इतनी बढ़ गई थी कि सिंह के पिता का जौनपुर से विधानसभा का टिकट भी कट गया था. लेकिन मायावती की यह सख्ती विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद गायब हो गई. अक्टूबर में राजधानी में बसपा की हुई विशाल रैली के दौरान कई जगह होर्डिंगों पर मायावती की फोटो के साथ सिंह की भी फोटो दिखी. रैली स्थल पर भी सिंह सिर पर पगड़ी बांधे अपने समर्थकों के साथ पार्टी के बड़े नेताओं से मिलते-जुलते रहे. धीरे-धीरे स्थितियां सुधरीं और धनंजय को पार्टी ने फिर जौनपुर से अपना प्रत्याशी बना दिया.
ऐसा ही फैजाबाद के पूर्व विधायक बबलू सिंह के मामले में भी हुआ. दबंग विधायक बबलू सिंह पर 2009 में कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने का आरोप है. इसके अतिरिक्त बसपा के कार्यकाल में ही राजधानी लखनऊ में जमीन हड़पने और अवैध रूप से कॉम्पलेक्स बनवाने का भी आरोप उन पर लग चुका है. 2012 के विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का आरोप लगाते हुए मायावती ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इसके बाद बबलू ने पीस पार्टी का दामन थाम लिया और बीकापुर से चुनाव लड़ा. लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. मार्च, 2012 में सत्ता से बाहर जाने के बाद बसपा को एक बार फिर बबलू सिंह की याद आई और वे कब पार्टी में आ गए किसी को खबर तक नहीं हुई. सार्वजनिक तौर पर लोगों को इसका पता तब चला जब पार्टी ने उन्हें फैजाबाद से लोकसभा प्रत्याशी घोषित कर दिया.
दागियों की इस लिस्ट में बसपा के पूर्व मंत्री अनीस अहमद खां उर्फ फूल बाबू का नाम भी शामिल है. फूलबाबू पर लैकफेड के लाखों रुपये के घोटाले का आरोप तो है ही, आम जनता के लिए सरकार की ओर से मिलने वाली विधायक निधि को निकाल कर अपने ही शिक्षण संस्थान को दिए जाने का आरोप भी है. इस आरोप के चलते बसपा ने अनीस का विधानसभा टिकट काट दिया था. इससे नाराज अनीस ने विधानसभा का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा, लेकिन हार गए. अनीस के साथ भी वही हुआ जो धनंजय सिंह और बबलू सिंह के साथ हुआ था. विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद अनीस की भी कमियां बसपा को दिखना बंद हो गया और पार्टी ने 2014 के लिए उन्हें पीलीभीत से उम्मीदवार घोषित कर दिया. नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर लोकसभा चुनाव में दांव लगाए जाने के बारे में पार्टी कोऑर्डिनेटर त्रिभुवन दत्त कहते हैं, ‘टिकट किसको देना है किसको नहीं यह पालिसी मैटर है, जिसका निर्धारण खुद बहन जी करती हैं. नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों को टिकट कैसे मिल गया हम लोगों का इससे कोई मतलब नहीं है.’
नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर दांव लगाने के अलावा बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल की गई सोशल इंजीनियरिंग भी फिर से आजमाने जा रही है. एक बार फिर ब्राह्मण और दलित वोटों के सियासी गठजोड़ के लिए पार्टी ने तैयारी भी शुरू कर दी है. पार्टी के एक सांसद बताते हैं, ‘2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जहां 15 ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकट दिया था वहीं इस बार यह आंकड़ा 20 के करीब पहुंच रहा है.’ मतलब साफ है. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बसपा 20 ब्राह्मणों और 17 रिजर्व सीटों पर दलितों को टिकट देकर आधी के करीब सीटों पर ब्राह्मण व दलित गठजोड़ आजमाना चाह रही है. सांसद बताते हैं, ‘ब्राह्मण व दलित गठजोड़ को हर सीट पर मजबूत करने के लिए ब्राह्मण भाईचारा कमेटी को सक्रिय कर दिया गया है. इसके लिए हर बूथ स्तर पर नौ ब्राह्मण कार्यकर्ताओं व एक दलित कार्यकर्ता की नियुक्ति की जा रही है.’ 2007 के चुनाव के बाद ब्राह्मणों पर अचानक मायावती की खास मेहरबानी की वजह पार्टी नेता सपा सरकार से ब्राह्मणों की नाराजगी बता रहे हैं. बसपा नेताओं का तर्क है कि सपा ने ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया है. जिन लोगों को मंत्री बनाया भी है, उन्हें महत्वहीन विभाग दे दिया गया है जिसके चलते ब्राह्मणों में खासी नाराजगी है. वे बताते हैं कि इटावा में ब्राह्मण परिवार के लोगों को यादवों ने हाल ही में निर्वस्त्र करके पीटा जो ब्राह्मणों की उपेक्षा का जीता-जागता प्रमाण है. बसपा के एक एमएलसी कहते हैं, ‘दलितों की स्थिति भी सपा सरकार में गई-गुजरी हो गई है, जिससे दलितों में नाराजगी है. इस नाराजगी का फायदा पार्टी को लोकसभा चुनाव में मिलेगा.’ उनका तर्क है कि 85 सुरक्षित विधानसभा सीटों में से 58 दलित विधायक सपा में जीते हैं. इसके बाद भी मंत्रिमंडल में मंत्रियों की संख्या मात्र छह है. जबकि मुस्लिम विधायकों की संख्या सपा में मात्र 39 है इसके बावजूद 10 मुस्लिम विधायकों को सरकार ने मंत्रिमंडल में शामिल किया है.
यानी बसपा लोकसभा चुनाव के लिए हर वह सियासी तिकड़म आजमाने जा रही है जिससे उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें मिल सकें. इसके लिए उसे न तो दागियों से परहेज है और न ही जाति आधारित राजनीति से.