क्या राहुल गाँधी कोविड-19 में अपनी सक्रियता, सुझावों और विपक्षी नेता होने के बावजूद सहयोगी भूमिका दिखाकर देश के सामने एक ‘राहुल मॉडल’ पेश करने की कोशिश कर रहे हैं? कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गाँधी लॉकडाउन काल में लगातार सक्रिय हैं और मज़दूरों के पलायन, किसानों की मुसीबतों, गरीबों के दर्द और नीतियों को लेकर जो कह रहे हैं, वह एक नये ‘राहुल मॉडल’ के साथ देश के सामने आने की उनकी तैयारी का हिस्सा है। राहुल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में तेवर के साथ सामने आना चाहते हैं और कोरोना और लॉकडाउन को उन्होंने एक अवसर के रूप में लिया है।
माना जा रहा है कि राहुल गाँधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वापसी अब कुछ ही दिनों की बात है और राहुल अपनी एक विशेष छवि के साथ वापसी करना चाहते हैं। राहुल गाँधी जिस तरह लॉकडाउन से उपजी कठिन स्थितियों को लेकर मुद्दों को उठा रहे हैं, उसे वह एक रोल मॉडल की तरह पेश करने की तैयारी में हैं। वे गरीबों, मज़दूरों, किसानों, छात्रों, कर्मचारियों की सहानुभूति को इस मॉडल में समाहित करने की कोशिश कर रहे हैं और अगर इसमें उन्हें सफलता मिलती है, तो यह भाजपा के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है।
यह कहा जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल के साथ देश के सामने आये थे। राहुल उसी तरह कोविड-19 के हालत पर राहुल मॉडल सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं; जिसमें गरीब, किसान, मज़दूर, कर्मचारी और तमाम ज़रूरतमंद वर्ग ही नहीं, बल्कि वे बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री भी हैं, जो कोविड-19 के दौरान मोदी मॉडल को फेल होता महसूस कर रहे हैं।
राहुल पहले भी देश के मुद्दों को लेकर बोलते रहे हैं, लेकिन इस बार वे एक नये मॉडल के रूप में सामने हैं। इसे राहुल मॉडल का नाम दिया जा सकता है जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान देश के मज़दूरों, किसानों, गरीबों और अन्य लोगों से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर राहुल गाँधी की वीडियो प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर देश के आॢथक विशेषज्ञों और अन्य जानकारों से उनकी ऑनलाइन वीडियो बातचीत इस बात का संकेत है कि वे एक मज़बूत और देश के मुद्दों से जुड़े नेता के रूप में अपनी छवि सामने करना चाहते हैं।
पिछले साल जनवरी तक राहुल गाँधी लोक्रप्रियता के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले भले पीछे थे, लेकिन इतने भी पीछे नहीं कि वे बिल्कुल मुकाबले में न हों। हालाँकि पुलवामा की घटना के बाद राजनीति की तस्वीर बदल गयी और मोदी एक मज़बूत नेता वाली अपनी छवि गढऩे में सफल रहे। इसी का नतीजा था कि मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने 30 साल के इतिहास में पहली बार 300 सीटों के पार निकल गयी। बहुत से जानकार मानते हैं कि भाजपा का यह स्वर्ण काल था और आने वाले समय में उसके लिए बड़ी चुनौतियाँ सामने होंगी।
यहाँ एक बड़ा सवाल यह भी है कि मई, 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस या राहुल गाँधी में ऐसा क्या बदला है कि जनता उन्हें भाजपा या मोदी के विकल्प के रूप में देखने लगे? इसका जवाब यह है कि देश में आॢथक हालात बदतर हैं और कोविड-19 की महामारी की चुनौती से मोदी सरकार सुनियोजित तरीके से नहीं निपट पायी है। यह कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा नोटबन्दी के वक्त हुआ था। लाखों लोगों को बेरोज़गार होना पड़ा है और लोग निश्चित ही मोदी सरकार से बहुत नाराज़ हैं।
राहुल गाँधी और कांग्रेस के लिए ये मुद्दे ही खुराक हैं। क्योंकि यह उसे सरकार के खिलाफ मज़बूत हमले के लिए एक प्लेटफार्म तैयार कराते हैं। यही कारण है कि राहुल गाँधी लगातार मज़दूरों, गरीबों, कर्मचारियों, किसानों पर फोकस कर रहे हैं। वे बार-बार उनके मसलों पर सरकार के सामने असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं।
इनमें सबसे नया प्रवासी मज़दूरों और अन्य फँसे गरीब लोगों के अपने घरों को लौटने के लिए कांग्रेस की तरफ से किराया देने की घोषणा थी, जिसने निश्चित ही मोदी सरकार को बैकफुट पर कर दिया। सरकार के लोग घोषणा कर चुके थे कि किराया इन मज़दूरों को ही देना होगा, सरकार नहीं देगी। कांग्रेस की इन मज़दूरों को किराया देने की घोषणा होते ही सरकार ने नुकसान की भरपाई की कोशिश की; लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कांग्रेस ने अपनी राज्य इकाइयों को तब तक सक्रिय कर दिया था। ऐसे कई मुद्दे हैं।
दुनिया भर में लॉकडाउन ने जब पेट्रोलियम (तेल) का तेल निकाल दिया और कच्चे तेल की कीमतें हटने के बाद पेट्रलियम रेट पाकिस्तान तक में कम हो गये, भारत में मोदी सरकार ने इनमें बढ़ोतरी कर दी। इस फैसले ने लोगों को चौंकाया है। क्योंकि उनका सवाल है कि क्या जनता से पैसा जुटाना ही इस सरकार का काम है? कांग्रेस, खासकर राहुल गाँधी इन मुद्दों को पूरी ताकत से उठा रहे हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि जनता की मोदी सरकार से नाराज़गी ही पार्टी के लिए सत्ता में वापसी का रास्ता बन सकती है।
इससे पहले राहुल गाँधी ने कार्यकर्ता साकेत गोखले के आरटीआई से बैंक कर्ज़ों के बड़े देनदारों (डिफॉल्टर्स) के नामों को लेकर माँगे जवाब पर सरकार को खूब घेरा था। इसका इतना असर था कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक के बाद एक लगातार 13 ट्वीट राहुल गाँधी की बात को काटने के लिए किये। प्रकाश जावड़ेकर भी राहुल गाँधी को कोसते दिखे। इससे ज़ाहिर होता है कि सरकार को लेकर कही राहुल गाँधी की बातों का भाजपा और सरकार पर कितना गहरा असर होता है और उसकी प्रतिक्रिया प्रहार स्वरूप होती है।
हाल में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कोविड-19 के दृष्टिगत पार्टी के राजनीतिक और नीतिगत विचार तय करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में को समिति बनायी, उसमें राहुल गाँधी को तो शामिल किया ही गया; उसमें ज़्यादातर सदस्य राहुल गाँधी के समर्थक नेता हैं। इनसे संकेत मिलता है कि राहुल पार्टी में दोबारा मज़बूत हुए हैं और उनकी बात और समर्थकों को अहमियत दी जा रही है।
तहलका को मिली जानकारी के अनुसार, राहुल अध्यक्ष के तौर पर वापसी के बाद सबसे पहला फोकस संगठन पर करने वाले हैं। सम्भावना है कि उसमें बड़े पैमाने पर फेरबदल होगा और पार्टी के मज़बूत ज़मीन वाले राज्यों में राज्य इकाइयों को पुनर्गठित कर सक्रिय करने की योजना उनके एजेंडे में शामिल है। पार्टी उत्तर प्रदेश में भी ताकत झोंकने की योजना बना रही है, जहाँ प्रियंका गाँधी को पूरे प्रदेश की कमान सौंपी जा सकती है। इसके अलावा मज़बूत छवि वाले युवा नेताओं को आगे किया जाएगा, जो जनता में मोदी सरकार के खिलाफ जनमत बना सकें।
एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राज्य सभा के सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर तहलका से बातचीत में कहा कि राहुल गाँधी राज्यों में पार्टी संगठन को खड़ा करना चाहते हैं। राहुल वहाँ बेहतर छवि वाले युवा और अनुभवी नेताओं को कमान सौंपकर कांग्रेस को अन्य दलों के मुकाबले तैयार करना चाहते हैं। उनके मुताबिक, ऐसे बहुत से राज्य हैं, जहाँ पार्टी ने पिछले काफी समय से बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है। लेकिन पार्टी के लिए बड़ी सम्भावनाएँ वहाँ आज भी हैं।
इसके अलावा राहुल गाँधी की राज्यों में उन मित्र दलों से तालमेल बेहतर करने की योजना है, जहाँ कांग्रेस के लिए मज़बूत सम्भावनाएँ नहीं हैं। लेकिन पार्टी का वहाँ अस्तित्त्व है। पार्टी इस आधार को धीरे-धीरे मज़बूत करना चाहती है। लिहाज़ा वहाँ पार्टी का फोकस गठबन्धन में अपनी हिस्सेदारी को ज़्यादा-से-ज़्यादा मज़बूत करना है, ताकि उन राज्यों में पार्टी का अपना भी अस्तित्त्व दिखे। सच यह है कि कोरोना के फैलने और लॉकडाउन से उपजी विपरीत परिस्थितयों को लेकर जैसी मुखर कांग्रेस और राहुल गाँधी रहे हैं, वैसा टीएमसी को छोडक़र विपक्ष का कोई भी दल नहीं रहा है। राहुल गाँधी ने इस दौरान सरकार की कमियों को उजागर करने में कोई हिचक नहीं दिखायी और सुझाव भी दिये।
कुछ महीने हो चुके हैं, जब देश का विपक्ष बिना किसी बड़े चेहरे के भाजपा की सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के सामने है। लेकिन यह दौर जल्दी खत्म हो सकता है। क्योंकि कांग्रेस राहुल गाँधी को दोबारा कमान सौंपने की तैयारी कर चुकी है। कांग्रेस लॉकडाउन का दौर खत्म होने के इंतज़ार में है और राहुल गाँधी अपने स्तर पर नयी पारी की तैयारी में जुट गये हैं। बड़ा सवाल यही है कि राहुल गाँधी इस ज़िम्मेदारी को सँभालने के लिए कितना तैयार हैं?
समर्थकों को तरजीह
काफी समय बाद कांग्रेस में राहुल गाँधी समर्थकों को तरजीह मिलने लगी है, जो कई संकेत करती है। हाल में सोनिया गाँधी ने जो समिति बनायी थी, उसमें के.सी. वेणुगोपाल, पी. चिदंबरम, रणदीप सुरजेवाला, मनीष तिवारी, जयराम रमेश, प्रवीण चक्रवर्ती, गौरव वल्लभ, सुप्रिया श्रीनेत, रोहन गुप्ता जैसे नेताओं को लिया गया है। इनमें से ज़्यादातर राहुल गाँधी के करीबी माने जाते हैं। यह समिति पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनायी गयी है, जो यह दर्शाता है कि उनके अनुभव का पार्टी पूरा लाभ उठाना चाहती है। यह पिछले दो दशक में पहली बार हुआ है कि गुलाम नबी आज़ाद, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, शशि थरूर, आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता किसी अहम पार्टी टीम में न हों।
महासचिव प्रियंका गाँधी तक इस टीम में शामिल नहीं की गयीं, जबकि वो उत्तर प्रदेश को लेकर कोरोनाकाल में बहुत ज़्यादा सक्रिय रही हैं। प्रियंका ने योगी सरकार पर हमले करने में कभी कमी नहीं रखी है। दिलचस्प यह है कि कोरोना वायरस के संक्रमणकाल में यूपी के दो बड़े विपक्षी नेता बसपा की मायावती और एसपी के अखिलेश यादव तक सक्रिय नहीं दिखे हैं, जिससे योगी सरकार प्रियंका की आलोचना के कारण उन पर ही हमलावर दिखी है।
अभी कांग्रेस के संगठन चुनाव की प्रक्रिया पूरी होनी है। कोरोना ने इन विषयों को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। सोनिया गाँधी अंतरिम अध्यक्ष हैं और समर्थक चाहते हैं कि उन्हें ही दोबारा पूर्णकालिक अध्यक्ष बना दिया जाए। सोनिया के स्वास्थ्य को लेकर पार्टी में चिन्ता रही है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि संकट के हर काल में सोनिया गाँधी ने पार्टी को नेतृत्व दिया है और अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर भी स्वास्थ्य की परवाह किये बिना काम में जुटी रही हैं। पार्टी में अध्यक्ष का कार्यकाल पाँच साल है। हालाँकि इसे तीन साल का करने का भी सुझाव दिया जाता रहा है। राहुल ने जब 12 फरवरी को ही ट्वीट करके मोदी सरकार को कोरोना के खतरेे से आगाह किया था, तो उनके बयान को मीडिया में तरजीह तो मिली थी; लेकिन मोदी सरकार ने इसे कोई महत्त्व नहीं दिया। तब कुछ भाजपा नेताओं ने तो इसे देश को डराने वाला और महामारी पर राजनीति करने वाला बयान तक बता दिया था।
लेकिन मार्च खत्म होते-होते राहुल गाँधी के इस बयान को लेकर बहुत से लोगों ने कहा कि सरकार को राहुल की बात गम्भीरता से लेनी चाहिए थी, क्योंकि सरकार ने कोरोना का मुकाबला करने के लिए कदम काफी देरी से उठाये। इसके बाद उन्होंने 12 अप्रैल को ट्वीट करके केंद्र सरकार को आगाह किया कि इस संकटकाल में चीन निवेश बढ़ाने की कोशिश कर सकता है। राहुल की बात सही निकली क्योंकि एक हफ्ते के भीतर ही 18 अप्रैल को मोदी सरकार ने इसे लेकर फैसला कर लिया।
राहुल गाँधी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस की खासी चर्चा में रही। खासतौर से 8 मई वाली उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस का जनता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसमें उन्होंने एक परिपक्व नेता की तरह पत्रकारों के सवालों के जवाब दिये और उन्होंने कहा कि इकोनॉमी को जल्दी दोबारा शुरू करने की ज़रूरत है। हम समय गँवा रहे हैं। उनका मतलब था कि सरकार समय गँवा रही है। सरकार के कुछ फैसलों पर सवाल ज़रूर उठाये, सहयोग और समर्थन की बात भी मज़बूती से कही, साथ ही सुझाव भी दिये। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल कोरोना पर बहुत बेहतर तैयारी करके आये थे, जिसके कारण लोगों में इसकी खासी चर्चा हुई। हालाँकि आदत के मुताबिक भाजपा नेताओं ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए भी राहुल गाँधी की खिल्ली उड़ायी, लेकिन इसके खिलाफ वे कोई तर्क नहीं दे सके।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के नेता अपनी तरफ से यह ज़ाहिर करने की कोशिश करते हैं कि वे राहुल गाँधी को गम्भीरता से नहीं लेते, लेकिन सच्चाई इसके उलट है। राहुल को लेकर सोशल मीडिया के दुनिया भर के दुष्प्रचार के पीछे भाजपा के होने का ही आरोप लगाया जाता रहा है। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उसने एक सुनियोजित तरीके से राहुल गाँधी की छवि को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की। बहुत-से जानकार यह मानते हैं कि भाजपा ऐसा करने में काफी हद तक सफल रही, लेकिन साथ ही उनका यह भी मानना है कि यह लम्बे समय तक नहीं चल सकता। खुद राहुल गाँधी भाजपा की इन कोशिशों को लेकर लोकसभा में बोल चुके हैं और उनका कहना था कि वह देश के मुद्दों को लेकर बोलते रहेंगे। भाजपा उनकी छवि खराब करने के लिए जो करना चाहे, करे। यदि मई, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देखें, तो जनवरी तक टीवी चैनल के सर्वे में राहुल गाँधी लोकप्रियता के मामले में मोदी को टक्कर देते दिख रहे थे। एक मौके पर इन सर्वे में मोदी के पीएम होने के हक में 47 फीसदी, जबकि राहुल गाँधी के पक्ष में 37 फीसदी जनता वोट कर रही थी। मई के चुनाव आते-आते यह स्थिति राहुल के लिए और बेहतर हो सकती थी। हालाँकि फरवरी में पुलवामा की घटना के बाद देश का सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया, साथ ही मुद्दे भी। बेरोज़गारी, किसान, गरीबी, अर्थ-व्यवस्था जैसे गम्भीर मुद्दे पीछे चले गये और भाजपा ने इस मौके को हाथों-हाथ लपकते हुए उग्र राष्ट्रवाद का हथियार सामने कर दिया। कांग्रेस और राहुल गाँधी सहित विपक्ष की कोई पार्टी इसका मुकाबला नहीं कर सकी। सच यह है कि इस स्थिति को पलटा ही नहीं जा सकता था। लेकिन नोटबन्दी से लेकर लॉकडाउन तक मोदी सरकार को यदि किसी नेता ने गम्भीरता और मज़बूती से घेरा है, तो वह राहुल गाँधी ही हैं। राहुल भले अच्छा और शब्दजाल से बुना भाषण नहीं दे पाते हों, लेकिन वह बोलते हमेशा मुद्दों पर ही हैं। अब लॉकडाउन से उपजी परिस्थिति में देश की राजनीति भी करवट ले सकती है। करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये हैं और मोदी सरकार पर ऐसे आरोप लगाने वालों की कमी नहीं कि कोरोना के संकट को ठीक से नहीं निपटा गया। चीज़ें सँभालने में बहुत देरी हुई और जब सँभालने की कोशिश भी हुई, तो उसमें कोई योजना नहीं थी। अस्पतालों में कोई तैयारी नहीं की गयी और मोदी सरकार ने लोगों को घरों में रखकर (लॉकडाउन) अपनी कमज़ोरियों पर परदा डालने की कोशिश ही की है। मज़दूर, गरीब का एक बहुत बड़ा तबका सरकार की चीज़ों को सही न कर पाने और इससे उनकी जीवन में आयी भयंकर मुश्किलों के कारण उनका मोदी सरकार से मोह भंग हुआ है। यही नहीं जिस तरह मोदी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों का डीए एक साल के लिए फ्रीज कर दिया, उससे उनमें भी नाराज़गी है। साथ ही कर्मचारियों का कोरोना संकट से लडऩे के लिए थोड़ी-थोड़ी वेतन कटौती भी कर दी। ऐसे में कर्मचारी सवाल कर रहे हैं कि सरकार आरबीआई का पैसा भी खर्च रही है। उनके पीएफ के पैसे पर भी उसकी नज़र है, तो क्या अर्थ-व्यवस्था का दिवाला पिट चुका है? कांग्रेस और राहुल गाँधी इन मुद्दों को लगातार उठा रहे हैं। उन्हें पता है कि मोदी सरकार के प्रति बड़े वर्ग में नाराज़गी उभरी है और ये मसले उठाकर प्रताडि़त वर्ग, जिसकी संख्या काफी अधिक है; को कांग्रेस के पक्ष में लाया जा सकता है। मोदी सरकार कोरोना के संकट को सँभालने में नाकाम साबित हुई है, कांग्रेस के इस दावे को लोग स्वीकार भी कर रहे हैं।
योग्यता का समर्थन
राहुल ने मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बुरी तरह हारने के बाद नैतिकता की आधार पर और इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोडऩे वाले कांग्रेस सहित देश की किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के पहले अध्यक्ष बने थे। इससे पहले कभी किसी राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार का ज़िम्मा लेते हुए इस्तीफा नहीं दिया था। ज़ाहिर है इससे राहुल गाँधी की छवि एक नैतिक राजनेता की बनी है। अब एक साल के बाद राहुल गाँधी फिर सक्रिय हुए हैं। फरवरी के बाद उन्होंने लगातार सरकार की नीतियों पर सवाल उठाये हैं। कांग्रेस में ऐसे बहुत-से नेता हैं, जो यह मानते हैं कि पार्टी में राहुल ही ऐसे नेता हैं, जो भाजपा या मोदी सरकार का मुद्दों पर आधारित विरोध करने का माद्दा रखते हैं। पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष सुष्मिता देव कहती हैं कि पीएम नरेंद्र मोदी की नीतियों पर सवाल उठा सकने वाले सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, पूरे विपक्ष के पास भी राहुल गाँधी ही सबसे मज़बूत चेहरा हैं। सुष्मिता कहती हैं कि गाँधी ने हमेशा जनता से जुड़े मुद्दे उठाये हैं और वे हमेशा जनता की बातें करने वाले इकलौते राजनेता हैं। हिमाचल विधानसभा में कांग्रेस दल के नेता मुकेश अग्निहोत्री कहते हैं कि जब राहुल गाँधी मोदी सरकार की नोटबन्दी और जीएसटी के खिलाफ मज़बूती से आवाज़ उठा रहे थे, तो भाजपा के नेता इसे राजनीति बताते थे। लेकिन बाद में प्रमाणित हो गया कि राहुल सही कहते थे। अग्निहोत्री कहते हैं कि ऐसा ही कोरोना से निपटने और लॉकडाउन के मामले में भी हुआ है, जिसने करोड़ों लोगों को मुसीबत और भुखमरी में फँसा दिया गया है। सिर्फ राहुल गाँधी हैं, जिन्होंने इसके खिलाफ मज़बूत आवाज़ उठायी है।