संजय निरुपम व्यथित हैं। अशोक तंवर और ओर भी बहुत होंगे। लेकिन एक गंभीर और अहम खबर इस व्यथा और नाराजगियों से छनकर सामने आ रही है। कांग्रेस ”दोफाड़” हो गयी है – राहुल और सोनिया कांग्रेस में। तो क्या राहुल को अबके सोनिया के नजदीकी बुजुर्ग लोगों (नेताओं) ने सिर्फ इसलिए ”फेल’ करने की कोशिश में रोल अदा किया, क्योंकि वे राहुल के रहते अप्रसांगिक होने की तरफ बढ़ रहे थे और युवा नेता कांग्रेस का नेतृत्व ओढ़ने की तैयारी कर रहे थे !
दिल्ली के बंद कमरों में बैठकर सुदूर इलाकों के टिकट तय करने वाले यह बुजुर्ग नेता राहुल के समय कमोवेश अप्रसांगिक हो रहे थे। राजनीति की भाषा में कहें तो इनकी ”दुकान” बंद हो रही थी। यह राहुल ही थे जिन्होंने अपने इस्तीफे के बाद यह कहने की हिम्मत की थी कि कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुनना चाहिए। लेकिन कांग्रेस के भीतर बुजुर्ग नेताओं ने राहुल की इस कोशिश को बहुत योजनाबद्ध तरीके से किनारे कर अस्वस्थ चल रहीं सोनिया गांधी को दोबारा कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया।
क्या कांग्रेस राहुल के युवा और सोनिया गांधी के बुजुर्ग साथियों के बीच बंट गयी है ? या संजय निरुपम और अन्य के भीतर की बैचेनी का कोइ और कारण है। कहीं संजय शिव सेना में जाने की भूमिका तो तैयार नहीं कर चुके। बड़े सवाल हैं, लेकिन एक बात सच है कि कांग्रेस में राहुल गांधी को किनारे करने की कोशिश हो रही है।
राहुल के काम करने के तरीके पर नजर दौड़ाएं तो साफ़ होता है कि वे कांग्रेस को लोकतंत्रिक तरीके से पुनर्जीवित करने की कोशिश रहे थे। ज़मीन से जुड़े लोगों और आम कार्यकर्ता की सलाह को फैसलों में शामिल करने की राहुल की कोशिश एक खुला सच है। इसी तरह टिकट वितरण में भी वे कार्यकर्ता की सलाह को शामिल करने पर जोर दे रहे थे। बुजुर्ग हो रहे या हो चुके नेता इससे विचलित थे। उन्हें लग रहा था कि इससे तो पार्टी में उन्हें कोइ पूछेगा तक नहीं। उन्हें यह बिलकुल गवारा नहीं था।
राहुल कांग्रेस में कितने अकेले हो चुके हैं यह उनकी गतिविधियों से जाहिर होता है। हाल के लोकसभा चुनाव में जनवरी तक वे पीएम मोदी को गंभीर टक्कट देते दिख रहे थे। लोकप्रियता दिखाने वाले सर्वे राहुल को लगातार मोदी के निकट आते दिखा रहे थे। लोग उनकी बातों को गंभीरता से सुन रहे थे।
लेकिन ”पुलवामा और बालाकोट ने” सारा परिदृध्य बदल दिया। मोदी (भाजपा) का ग्राफ अचानक दोबारा ऊपर चढ़ गया। यह देश की राजनीति का ऐसा घटनाक्रम था जिसमें राहुल का कोइ रोल, राजनीतिक दोष या नाकामी नहीं थी। यह ऐसा घटनाक्रम था जिसके असर को इतनी जल्दी और किसी राजनीतिक कलाबाजी से बदला नहीं जा सकता था। राहुल भी नहीं बदल सकते थे। इसलिए माहौल के जोर पर मोदी दोबारा ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में लौट आये। लेकिन राहुल पार्टी की हार के बाद कांग्रेस के भीतर ”अकेले” से पड़ गए।
राहुल ऐसे नेता नहीं जो तिकड़मबाजी और समर्थकों की ताकत के बूते राजनीति करें। कांग्रेस में इसलिए वे अलग-थलग दिख रहे हैं। वे समर्थकों के होते हुए भी सोनिया के इर्द-गिर्द जमा बुजुर्ग नेताओं को चुनौती नहीं दे पायेंगे। विपक्ष से ज्यादा पार्टी के ही इन नेताओं ने कांग्रेस के भीतर यह विचार स्थापित कर दिया है कि राहुल पार्टी को चुनाव ”नहीं” जितवा सकते।
राहुल अध्यक्ष होते हुए भी मर्जी के फैसले नहीं कर पा रहे थे। आठ महीने पहले तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री चयन के समय ही यह साफ़ हो गया था। राहुल जिन्हें सीएम बनाना चाहते थे, वे नहीं बने। राहुल का जोर युवाओं को जिम्मा देने का था। ऐसा कांग्रेस की इस बुजुर्ग कोटरी ने ही नहीं होने दिया।
बहुत दिलचस्प बात है कि कांग्रेस की जो युवा ब्रिगेड आज राहुल गांधी के साथ है, इसे किसी और ने नहीं खुद सोनिया गांधी ने बनाया है पार्टी अधयक्ष रहते। तब राहुल और यह सभी नेता काफी युवा थे। सोनिया ने इन्हें बेटों की तरह पार्टी के भीतर बहुत योजनाबद्ध तरीके से ताकत दी। लेकिन समय का फेर देखिये कि सोनिया के अध्यक्ष रहते हुए ही यह युवा नेता किनारे हो रहे हैं
इसका कारण है सोनिया गांधी का बुजुर्ग नेताओं पर ज़रुरत से ज्यादा निर्भर हो जाना। कांग्रेस की जैसी हालत है उसमें शायद यह उनकी मजबूरी भी है। अन्यथा सोनिया आज से दस-ग्यारह साल पहले अध्यक्ष के नाते जितनी ताकतवर थीं, उसमें इस तरह की संभावनाओं के लिए जगह ही नहीं थी।
सोनिया की रणनीति कांग्रेस में बुजुर्ग और युवा नेताओं का साझा नेतृत्व बनाने की रही। यह ठीक भी है। लेकिन राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद युवा जिस तरह उभरे, उसने बुजुर्ग नेताओं में असुरक्षा का भाव जगा दिया क्योंकि राहुल उन्हें यह सन्देश नहीं दे पाए कि वे उनका भी साथ चाहते हैं।
राहुल दरअसल कांग्रेस का ढांचा बदलना चाहते थे। वे पार्टी सिस्टम को ज्यादा खुला और लोकतांत्रिक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि संगठन फैसलों से लेकर टिकट वितरण तक में कार्यकर्ता को इन्वॉल्व किया जाये। लेकिन बुजुर्ग नेताओं को लगता है कि इससे उनकी अपनी प्रसांगिकता ख़त्म हो जाएगी। जब असुरक्षा की यह भावना उनपर बहुत हावी हो गयी तो उन्होंने राहुल के साथ ही ”असहयोग” की नीति अपना ली। इसमें सिर्फ कांग्रेस का नुक्सान हुआ है।
सिर्फ छह महीने पहले तक कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी के भविष्य के पीएम उम्मीदवार राहुल गांधी आज कांग्रेस में अकेले और चुपचाप हैं। उनके बनाये लोगों को सोनिया गांधी के दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद एक-एक करके निपटा दिया गया है। उनके बहुत से समर्थकों को चुनावों में टिकट से महरूम कर उनकी ज़मीन ख़त्म की जा रही है। इनमें ज्यादातर ऐसे हैं जो ज़मीन से जुड़े कार्यकर्ता हैं और लगातार पार्टी के लिए काम करते रहे हैं।
राहुल अपने मन की कांग्रेस बनाने से कुछ कदम ही दूर रह गए, क्योंकि वे ”घाघ” टाइप के नेता नहीं हैं। यह राहुल ही कर सकते थे कि कांग्रेस में गैर गांधी अध्यक्ष बनाने की ईमानदार और बहुत लाभकारी सलाह दें, खुद अपना पद त्यागकर। भले इसके पीछे ”बहाना” लोकसभा चुनाव में हार का हो। राहुल कांग्रेस को कभी कमजोर नहीं कर रहे थे बल्कि एक ऐसा स्वरुप देने की कोशिश कर रहे थे, जो संगठन को ज़मीन से जोड़कर स्थाई मजबूती दे।
अब सोनिया गांधी और उनके बुजुर्ग सलाहकारों के सामने हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव कांग्रेस को जिताने की बड़ी चुनौती है। सभी टिकट उनकी मर्जी से बंटे हैं। जिम्मेदारियां उनकी मर्जी से दी गयी हैं। चुनाव प्रचार का पूरा नियंत्रण उनके लोगों के हाथ में है। ऐसे में कांग्रेस को जीतना चाहिए। नहीं जीती तो सोनिया के इन बुजुर्ग सलाहकारों के पास क्या जवाब होगा। राहुल के नेतृत्व में तो कांग्रेस ने २०१८ की दिसंबर में तीन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव जीते थे।