सियासत इतिहास को नकार सकती है। मतदाता अब गठबंधन के रसायन को स्वीकार करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं। लोगों को अब ऐसी सरकार चाहिए जोउनके मनोबल की धार कुंद न होने दें। उन्हें फख्र से बोलने का अवसर दे और आंखों में एक ‘लहक पैदा करे कि, ‘कैसे हम उनके घर में घुसकर मारकर वापसआएं? यही था ‘राष्ट्रवाद का जोश! जिसकी आंच में ग्रामीण बदहाली, मंदी, बेरोज़गारी और जातीय समीकरण सरीखे सारे मुद्दे राख हो गए। लोगों का सीधा तर्क थाकि ‘अगर हम सुरक्षित हैं तो विकास की डगर तो अपने आप ही बनती चली जाएगी। लोगों को नोटबंदी और जीएसटी की मुश्किलें बर्दाश्त करना कबूल हुआ।लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता से समझौता करना कबूल नहीं हुआ। विश्लेषकों का कहना है कि, ‘राष्ट्रवाद की भावना से उफनते युवाओं ने सेंन्टीमेंटस के अंडरकरंट मेंमतदान किया।
राजस्थान में राष्ट्रवाद का जोश मीडिया ने भी अनुभूति के स्तर पर स्वीकार किया। विश्लेषकों का तो यह तक कहना है कि, ‘विधानसभा चुनावों में जो ताकत कांग्रेस नेहासिल की, वो राष्ट्रवाद के मुद्दे के आगे नहीं ठहर सकी। विराट जीत के बाद मोदी जब पहली बार कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने जिस अंदाज में कहाकि, ‘जनता ने फकीर की झोली भर दी…। जाहिर है उन्हें ‘राष्ट्रवाद का सिक्का चल जाने की पूरी उम्मीद थी। याद रखिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जब बीते बरस संघका अधिवेशन आयोजित किया था तो उसका मजमून ‘भविष्य का भारत था। यानी संघ और मोदी एक साल पहले भारत का भविष्य गढ़ चुके थे। लेकिन कांग्रेस कोभनक तक नहीं लगी ?
इस अदृश्य शक्ति के संकेत से बेखबर कांग्रेस अपने तरकश में राफेल, बेरोजग़ारी और नोटबंदी से मोदी पर वार करने के हथियार तलाश रही थी। उस दौरान वरिष्ठपत्रकार अंशुमान तिवारी ने संकेत भी दिया था कि ‘भारतीय लोकतंत्र में एक नया वैचारिक महामंथन तैयार हो रहा है, नतीजों का इंतजार
करिए…।ÓÓ लेकिन कोई समझ ही नहीं पाया। मोदी ने जब पहली बार 23 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना था’मोदी का लक्ष्य अब दुनिया में काबिलियत का लोहा मनवाना और स्वयं को एक स्टेट्समैन के रूप में स्थापित करना है और वो घड़ी आखिर आ ही गई। विश्लेषकफिर भी एक बात तो कहते हैं कि, ‘मोदी का कहना था कि,’अच्छे दिन आएंगे….लेकिन अच्छे दिन का अहसास सिर्फ कागजों पर ही दिखा, सही मायनों में जिंदगी मेंकितना दिख पाया? लेकिन कोई बात तो थी कि,’युवाओं ने मोदी पर जमकर भरोसा लुटाया ।
राजस्थान ही नहीं, देश भर में किसानों की आत्महत्या की दुखांत कथाओं से खेत-दर-खेत, गांव-दर-गांव अटे पड़े हैं। किसानों की आत्महत्याओं को लेकरराजनीतिक माहौल क्या कम गरमाया? एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने आलेख में एक शेर का जि़क्र किया था कि, ‘जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेतके हर खोश-ए-गंदुम को जला दो, उठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो। लोग जागे भी लेकिन वो वोट तो मोदी को दे आए ? राजस्थान का शेखावाटी और कोटासंभाग तो किसानों के दर्द की दास्तानों से सुलग पड़ा था। लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि किसान अपने दर्द को भूलकर ‘राष्ट्रवाद की धुन पर नाचने लगा ।विश्लेषक कहते हैं कि बेशक ‘राष्ट्रवाद हमारा धर्म है लेकिन क्या रोटी, रोज़गार का कोई धर्म नहीं?
अर्थशास्त्र के प्रोफेसर देवाशीष मित्रा की मानें तो, ‘भारत में किसानों को बिचौलिए निचोड़ रहे हैं और उनकी पैदावार का बड़ा हिस्सा अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचनेसे पहले ही नष्ट हो जाता है। क्या इन बिचौलियों का खात्मा हुआ? मौजूदा श्रम संबंधी नियम कायदों से भारत में श्रम प्रधान मैन्यूफैकच्रिंग का विस्तार थम गया है। फिरभी श्रमिक मोदी केा वोट दे आए? मित्रा कहते हैं कि, ‘विदेशी सुपर मार्केट हमारे पड़ोस की किराना दुकानों को तबाह कर रहे हैं। इस तबाही पर जो लोग चीख-पुकार मचा रहे थे, वोट तो मोदी को ही देकर आए। मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर भाजपा ने अपने ही राज्यों की नहीं सुनी। टिप्पणीकारों काकहना है कि, शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया, लेकिन लोगों ने मोदी को झोली भर कर वोट दिए। भाजपा कीसियासत मध्यम वर्ग की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई लेकिन वोट तो मोदी को ही दिए? आखिर किस पैमाने पर मोदी लोगों के दुलारे हो गए? विश्लेषकों काकहना है कि,’क्या मोदी ने वादा किया था कि, ‘किसान हितों की रक्षा के साथ महंगाई पर काबू रखने का संतुलन होगा। लेकिन अभी तक तो मोदी सरकार इस डगरपर एक डग भी आगे नहीं बढ़ी?
आखिर इस सवाल का क्या जवाब है कि, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में राष्ट्रवाद ही छाया रहा। लेकिन क्यों यह मुद्दा पंजाब मे ज़मीनी ज़रूरतों पर हावीनहीं हुआ? दरअसल राजस्थान में सत्ता में आई कंाग्रेस दो कंगूरों पर बैठी थी। इसलिए जातिवाद के बखेड़े में उलझ गई? कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों से पहलेगुर्जर मीणा तथा युवा वोट तैयार किया था, फिर लोकसभा चुनावों में यह वोट बैंक क्यों कर छिटक गया? सूत्रों का तो यह भी कहना है कि, गुर्जर मतदाता जोपरम्परागत परिदृश्य में भाजपा का माना जाता है, पूरी तरह से कांग्रेस से जुड़ गया था, दरअसल उसे पायलट के मुख्यमंत्री बनाने की उम्मीद थी। युवा मतदाता भीनये पीढी के प्रदेशाध्यक्ष को अपनी जमात का, अपनी सोच और पसंद का व्यक्ति मान कर कांग्रेस से जुड़ा था।
जिस नेता का जो मूल समर्थक होता है नेता उसको कभी नहीं छोड़ता। चाहे मायावती हो या लालू यादव या कोई और। पर कांग्रेस ने
राजस्थान में विधानसभा चुनाव की सीमित सफलता के बाद लोकसभा चुनाव में अपनी ”मूल स्टेेंथ गुर्जर और युवा से मुंह मोड़ लिया। राजस्थान में विधानसभा चुनावके बाद नाजुक पर सफल राजनीतिक संतुलन बिखर गया । इन हालात में क्या पूर्वी राजस्थान भरपाई कर पाता? जोधपुर, बीकानेर डिवीजन के नुकसान का? संभवतया नहीं?
राजस्थान में गत् कई बार से पहले विधानसभा चुनाव होते रहे हैं और उसके कुछ माह के बाद लोकसभा चुनाव। जो पार्टी विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनातीहै, वही लोकसभा के चुनाव में भी भारी सफलता पाती रही है, सरकार में आने का जोश, लोकसभा चुनाव तक कायम रहता ही था। कार्यकर्ताओं का जोश, नयीसरकार से आशाएं, नये मंत्रीगण से अपेक्षाएं सहायक होती थी, विधानसभा चुनाव जीतने वाली पार्टी को लोकसभा चुनाव में भी सफलता पाने में। परन्तु इस बार ऐसानहीं हुआ । क्या कारण रहे? नये वादे, नयी सरकार की वादे पूरे करने की कवायद यह सभी इस बार नदारद हो गए। वो ही पुराने थके हुए चेहरे वो ही पुरानी बातें, वोही पुराने लहजे, कोई ”फ्रंश स्टार्ट या नयी ताज़गी नहीं दिखी। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं पनपी, बल्कि पनपा अविश्वास और साजिश।
युवा नेतृत्व तैयार करने तथा नया जोश भरने का अवसर था, पर हुआ उल्टा ही पुराने चेहरे, पुराना ढर्रा, युवा मतदाता, नयी ताकतें, (गुर्जर आदि) इधर-उधर भटकगये?
यहां सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर का कथन अत्यंत सार्थक है कि, मोदी ने एक अलग ही प्रचार अभियान चलाया। उन्होंने दावा किया कि भारत भीतरी वबाहरी शत्रुओं से घिरा है । केवल उनके बाहुबली राष्ट्रवादी और सतर्क चौकीदार ही देश को आतंकियों, घुसपैठियों, राष्ट्रद्रोहियों और ‘दीमकों से सुरक्षित रख सकतेहैं, जो उस हिन्दू राष्ट्र को खोखला करना चाहते हैं जिसे वे निर्मित कर रहे हैं। यह तरीका काम कर गया। मोदी के ‘खाकी प्रचार अभियान ने उन्हें 2014 से भी बड़ीजीत दे दी । उन्हें 303 सीटें मिली और इसके अलावा 50 उनके सहयोगी दलों को भी मिल गई ।
यह असाधारण बात है कि भाजपा लोगों को अपने हितों की बजाय पूर्वाग्रहों के आधार पर वोट देने के लिए प्रेरित कर सकी, क्योंकि 2014 में नौकरी की उम्मीद सेमोदी को वोट देने वाले युवा 2019 ने उन्हें फिर वोट क्यों दिया जबकि वह अब भी बेरोज़गार हैं?