अमीर ख़ुसरो ने लिखा है- ‘राजकीय मुकुट का प्रत्येक मोती ग़रीब किसान की अश्रुपूरित आँखों से गिरी हुई रक्त की घनीभूत बूँद है।’ लोकतंत्र के आवरण में व्याप्त पूँजीवादी साम्राज्यवाद के कुलीनतंत्र ने कृषि और किसान दोनों का निरंतर उत्पीडऩ किया है। आश्चर्य है कि $गरीबों के शोषण के लिए पूँजीवाद का सबसे सुलभ हथियार लोकतान्त्रिक सरकारें बन गयी हैं।
भारत में आधिकारिक तौर पर पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी, 2016 को बरेली में एक रैली को सम्बोधित करते हुए चालू वर्ष 2022 तक (देश की आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ के अवसर तक) किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन बढ़ी कृषि लागत ने किसानों की आय और कम कर दी है। आज लक्षित वर्ष में प्रवेश के पश्चात् सरकार के उस दावे की समीक्षा आवश्यक है।
हालाँकि सरकार को स्वयं इस पर स्पष्टीकरण देना चाहिए था, किन्तु बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री सरकार के इस बहु-प्रचारित वादे की चर्चा से बचकर निकल गयीं। उन्होंने इस बहु-प्रतीक्षित लक्ष्य को लेकर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझा। कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने भी कहा कि पिछले लगभग पाँच साल से किसानों की आय दोगुनी करने की बात ज़ोर-शोर से कही जाती रही है कि वर्ष 2022 तक इस मंज़िल को हासिल करने की सरकार की योजना है; लेकिन बजट में इस बहु-प्रचारित दावे पर चुप्पी साध ली गयी है।
भारत सरकार के पास किसानों की आय में हुई बढ़त से सम्बन्धी कोई स्पष्ट आँकड़े मौज़ूद नहीं हैं। परन्तु कृषि सम्बन्धित योजनाओं की स्थिति, कृषि की वृद्धि दर, अर्थ-व्यवस्था में कृषि क्षेत्र का हिस्सा, फ़सलों के दामों में हुई वृद्धि और किसानों की आर्थिक स्थिति या उनके आत्महत्या से सम्बन्धित आँकड़ों इत्यादि से सत्य का अनुमान लगाया जा सकता है। किसानों की आय को दोगुनी करने के उद्देश्य में सहयोग देने हेतु केंद्र सरकार ने अशोक दलवई समिति का गठन किया। दलवई समिति ने वर्ष 2015-16 के थोक मूल्यों के आधार पर 2022 तक किसानों की औसत वार्षिक आय को 96,000 रुपये से 1.92 लाख रुपये तक बढ़ाने के लिए एक विस्तृत रणनीति के साथ रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।
समिति के आकलन के अनुसार, यदि 2015-16 को आधार वर्ष मानकर भी इस दिशा में कार्य किया जाए, तो 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए प्रतिवर्ष कृषि आय में 10.4 फ़ीसदी की दर से वृद्धि आवश्यक थी। वहीं बहुत-से आर्थिक एवं कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 2022 तक किसानों की आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश की वार्षिक कृषि विकास दर 14.86 फ़ीसदी होनी चाहिए। लेकिन कृषि क्षेत्र के पिछले कुछ वर्षों के विकास दर के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों की वार्षिक विकास दर 2012-13 में 1.5 फ़ीसदी, 2013-14 में 5.6 फ़ीसदी, 2014-15 में -0.2 फ़ीसदी, 2015-16. में 0.6 फ़ीसदी, 2016-17 में 6.3 फ़ीसदी, 2017-18 में 5.0 फ़ीसदी, 2018-19 में 2.9 फ़ीसदी, 2019- 20 में 2.8 फ़ीसदी ही रही है।
वहीं जीवीए (कृषि सकल मूल्य वर्धित) 2014-15 में 18.2 फ़ीसदी, 2015-16 में 17.7 फ़ीसदी, 2016-17 में 17.9 फ़ीसदी, 2017-18 में 17.2 फ़ीसदी, 2018-19 में 16.1 फ़ीसदी, 2019-20 में 16.5 फ़ीसदी रहा। ये आँकड़े कृषि क्षेत्र में कमोबेश नकारात्मक ही हैं। ऐसे में सरकार किस प्रकार निरंतर कृषि आय में वृद्धि के दावे कर रही थी? यह समझ से परे है। इन बीते वर्षों में कृषि क्षेत्र के बेहतरी, निरंतर किसानों की दशा में सुधार के लिए कई योजनाओं की घोषणा की गयी। परन्तु वास्तव में हर योजना असफल रही। उदाहरण के लिए ई-नैम, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना आदि।
भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, भारत में कुल कृषि भूमि के 52 फ़ीसदी हिस्से अर्थात् 14.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर ही कृषि होती है। इस कृषि भूमि का लगभग आधा भाग या उससे अधिक सिंचाई के लिए वर्षा के अनियमित स्रोत पर निर्भर है। स्पष्ट है कि देश में कृषि संकट से उबरने के लिए सिंचाई समस्या का निदान प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके समाधान हेतु पाँच वर्ष में 50,000 करोड़ के भारी-भरकम बजट वाली जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना प्रारम्भ की गयी। किन्तु समय बीत जाने के बावजूद देश का बड़ा कृषि क्षेत्र सिंचाई-सुविधा से वंचित है। इसी तरह किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से फ़सलों को हुए नुक़सान की भरपाई हेतु प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना फरवरी, 2016 में शुरू की गयी। निरपेक्ष रूप से देखें, तो यह भी एक बेहतरीन योजना थी। किन्तु यह तकनीकी आधारित योजना थी और दूसरे इसके क्रियान्वयन में भी कमियाँ थीं। इस योजना में कम प्रीमियम के भुगतान की शिकायत मिली, जिसमें किसानों को भुगतान के प्रतिफल में नुक़सान ही हुआ। समय बीतने के साथ इस योजना के दायरे में आने वाले किसानों की संख्या में बड़ी गिरावट देखी गयी। वर्ष 2016-17 में प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के अंतर्गत कुल 5.80 करोड़ किसानों ने पंजीकरण कराया था। लेकिन वर्ष 2017-18 में ही यह संख्या घटकर 4.70 करोड़ रह गयी। इसमें किसानों की रुचि निरंतर कम हो रही है। सरकार द्वारा देश के हर किसान को इस योजना के दायरे में लाकर उसे नुक़सान से बचाने का दावा तो सही साबित नहीं हुआ, मगर बीमा क्षेत्र इससे अधिक लाभान्वित हुआ।
इसी तरह कृषि बाज़ार को विकसित करने के उद्देश्य से ई-नेम योजना एक उत्कृष्ट योजना के तौर पर प्रचारित की गयी। किन्तु तकनीकी ज्ञान पर आधारित यह योजना भारतीय किसानों के लिए कहीं से भी तर्कसंगत नहीं साबित हुई। इसी कारण किसानों की बड़ी आबादी इसके बहु-प्रचारित लाभों से वंचित ही रही। ऊपर से धान क्रय केंद्र किसानों के उत्पीडऩ और शोषण के सबसे बड़े केंद्र बन चुके हैं। वहाँ धान में 10 कमियाँ निकालना। पल्लेदार के न होने का बहाना बनाकर कई दिनों तक किसानों को इंतज़ार कराना इन क्रय केंद्रों पर रोज़मर्रा की बात है; लेकिन सरकार और प्रशासन इन शिकायतों के निस्तारण के लिए तत्पर कभी नहीं रहे हैं।
भाजपा सरकार की एक बड़ी समस्या रही है- ‘ज़मीनी हक़ीक़त को समझे बिना योजनाओं का निर्माण करना।’ वह जब तक सत्ता से बाहर होती है, तब तक स्वदेशी एवं सांस्कृतिक नारे देती है। मगर जब सत्ता में आती है, तो भारत को सीधे अमेरिका और यूरोप में तब्दील करने लग जाती है। जिस देश में पूरा ज़ोर प्राथमिक शिक्षा को मानक स्तर पर पहुँचाने का हो एवं लगभग 70 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती हो, वहाँ किसान या जन कल्याण की योजनाओं को डिजिटल माध्यम से संचालित करने का तर्क समझना कठिन है।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में किसानों को डिजिटल और हाईटेक सेवाएँ मुहैया कराने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कराने की घोषणा की। ऐसे समय में जब सरकार को सिंचाई, खाद, उन्नत बीज और बिजली की उपलब्धता जैसी मूलभूत समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तब वह ड्रोन तकनीक में उलझी है। प्रश्न यह भी है कि अपना और परिवार का पेट भरने को जूझता आम किसान हज़ारों रुपये के ड्रोन पर क्यों और कहाँ से निवेश करेगा? ऊपर से यह ड्रोन तकनीक भारतीय कृषि के लिए निकट भविष्य में कामयाब होगी या नहीं; इस पर भी संशय है।
इसके अतिरिक्त किसानों की एमएसपी को क़ानूनी रूप देने की माँग की भी अनदेखी कर दी गयी। सरकार की ओर से एमएसपी पर एक समिति के गठन का वादा किया गया था। बजट सत्र में सरकार को उस समिति के गठन की औपचारिक घोषणा करनी चाहिए थी; लेकिन इस दिशा में भी कोई पहल नहीं हुई। कृषि की अन्य दूसरी मदों में कमी के अलावा एमएसपी की राशि को इस बजट में गेहूँ-धान के लिए 2.37 लाख करोड़ निर्धारित किया गया है, जबकि पिछले साल यह 2.48 लाख करोड़ था। साथ ही 2022-2023 के मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये। यह राशि भी मौज़ूदा वित्त वर्ष के लिए संशोधित अनुमान से 25.51 फ़ीसदी कम है। वित्त वर्ष 2021-22 में भी इस योजना के लिए 73,000 करोड़ रुपये ही आवंटित हुए थे, जिसे बाद में काम की अधिक माँग को देखते हुए संशोधित कर 98,000 करोड़ रुपये कर दिया गया था। देवेंद्र शर्मा का कहना है कि अगर देखा जाए, तो नरेगा सहित तमाम मदों में कमी ही की गयी है और कृषि प्रणाली में जान फूँकने जैसा कोई प्रयास नहीं दिखता है।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि किसान हमेशा से संकट में रहे हैं, और अब भी हैं। एक पुराने आँकड़े को लें, तो मात्र सन् 2014 से सन् 2018 के बीच कुल 57,345 किसानों ने आत्महत्या की है अर्थात् हर वर्ष औसतन 11,469 और प्रतिदिन 31 किसानों ने आत्महत्या की है।
हालाँकि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना (सन् 2019 में घोषित) जिसके अंतर्गत किसानों को 6,000 रुपये वार्षिक की आर्थिक मदद दी गयी। यह सरकार का एक प्रशंसनीय प्रयास रहा है; लेकिन इस राशि में वृद्धि की जानी चाहिए। साथ ही इस योजना में कृषि मज़दूरों को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि वैश्विक महामारी कोरोना के समय कृषि क्षेत्र ने ही अर्थ-व्यवस्था को सबसे बड़ा संबल दिया।
ऐसा नहीं कि किसानों की दुर्दशा के लिए प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, ओला, आँधी, बीमारियाँ और पशु ही ज़िम्मेदार होते हैं। दरअसल पूँजीवादी शक्तियों का यह पुराना षड्यंत्र है कि कृषि और गाँवों का विकास न हो। क्योंकि इससे उनके हित सधते हैं। एक तो कृषि के नष्ट होने से उद्योगों के लिए मज़दूर अधिक होने से सस्ता श्रम मिलता है, जिससे आसानी से उनका शोषण पूँजीपति करते हैं।
दूसरे कृषि की हानि से ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था की आत्मनिर्भरता समाप्त होती है, जिससे पूँजीवादी बाज़ार का प्रसार होता है। इसमें भी दो-राय नहीं है कि वर्तमान सरकार ने किसानों के हित में काम करने की पहल की है। किन्तु सत्तारूढ़ दल के साथ कई समस्याएँ हैं। पहली यह कि पार्टी अपने चुनावी मोड और कुर्सी के मोहजाल से बाहर निकल ही नहीं पा रही है।
दूसरी यह कि शीर्ष नेतृत्व नौकरशाही के एक $खास समूह से घिर चुका है, जो भाजपा सरकार को घेरकर बैठा है और उसे जनता से दूर-दूर भटकाकर पूरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है। साथ ही सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी सरकार में बैठे ऐसे लोगों की है, जो कि वातानुकूलित कमरों में बैठकर नीतियाँ तय करते हैं। लेकिन देश के प्रधान सेवक एवं उनका मंत्रिमंडल इन परिस्थितियों की अन्तिम ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते; क्योंकि जनता ने सत्ता तो इन्हें ही सौंपी है। उन्हें याद रखना है कि ‘ग्राम-देवता’ (रामकुमार वर्मा के काव्य में किसान के लिए सम्बोधन) अभी तक रामराज्य की प्रतीक्षा में हैं।
कहा जाता है कि समय (काल) बड़ा निर्मम है। वह किसी को भी उसके कर्मफल के चंगुल से मुक्त नहीं होने देता। इसीलिए कहा गया है कि कठोर पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति भले ही परेशानी में जीवन व्यतीत करे; लेकिन उसका प्रारब्ध स्वर्णिम होता है। किन्तु जब कोई व्यक्ति अपूर्व वैभव और सत्ता प्राप्त करता है, तो उसे अपने शरीर के नश्वर होने तक का ज्ञान नहीं रहता और वह अहंकार से इस तरह घिर जाता है कि वह पाप करने से भी परहेज़ नहीं करता। कहा जाता है कि सत्ता का मद तो देवताओं की भी मति भ्रष्ट कर देता है। लेकिन देवता हो या मानव वक़्त किसी को भी दण्डित करने से नहीं चूकता। यह एक सलाह है, जिस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व और उनकी नौकरशाही को ध्यान देना चाहिए। बाक़ी अपने विधान और ऋत् नियमों (प्राकृतिक व्यवस्था और सन्तुलन के सिद्धांत) के प्रति महाकाल बड़ा निर्मम है।