झारखंड हाई कोर्ट ने राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा ली गई विभिन्न परीक्षाओं की जांच सीबीआई से करवाने के आदेश दिए हैं. इससे करीब 12 हजार कर्मचारियों का रोजगार खतरे में पड़ता दिख रहा है. अनुपमा की रिपोर्ट.
झारखंड ने किसी और चीज में रिकॉर्ड बनाया हो या नहीं लेकिन तरह-तरह के भ्रष्टाचार में यह सभी राज्यों को पछाड़ चुका है. 12 साल के सफर में इस राज्य ने भ्रष्टाचार के इतने रिकार्ड अपने नाम कर लिए हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर आकलन हो तो संभवतः यह विजेता राज्य बनकर उभरे. कभी राज्य के मुखिया भ्रष्टाचार की बाजीगरी दिखाते हैं तो कभी विधानसभाध्यक्ष. कभी माननीय विधायक राज्यसभा चुनाव में पैसे को लेकर दीन-ईमान और नैतिकता को गिरवी पर रख राज्य को चर्चा में लाते हैं तो कभी राज्यसभा चुनाव ही टालने पड़ जाते हैं. ये सारी बुरी खबरें मानो पर्याप्त नहीं थीं कि हाई कोर्ट के डंडे से राज्य लोक सेवा आयोग के काले कारनामों का घड़ा फूट गया. 14 जून को राज्य के हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि झारखंड लोक सेवा आयोग के तहत आयोजित द्वितीय सिविल सेवा परीक्षा में चयनित 166 अधिकारियों को तत्काल ही काम करने से रोक दिया जाए और उनके वेतन पर भी रोक लगाई जाए. कोर्ट के डंडे से संचालित होने की अभ्यस्त हो चुकी झारखंड की सरकारी मशीनरी इस आदेश के बाद मजबूरी में हरकत में आई. इस परीक्षा के तहत 172 अधिकारियों की नियुक्ति विभिन्न पदों पर हुई थी. 172 में से पांच लोगों ने पदभार ग्रहण ही नहीं किया था, 166 को अदालत ने अयोग्य ठहरा दिया है. ले-देकर पूरे बैच से सिर्फ एक विकलांग महिला अधिकारी कार्यरत हैं.अदालत का आदेश सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा. उसने आयोग द्वारा अब तक ली गई 16 विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में से 12 की जांच सीबीआई से करवाने का आदेश भी जारी किया है. जिन 12 परीक्षाओं की जांच सीबीआई करने वाली है, उसकी जद में लगभग 12 हजार सरकारी कर्मचारी आ गए हैं. कोर्ट ने अपने आदेश में राज्य के निगरानी विभाग को निर्देश दिया है कि वह इस मामले से संबंधित सारे दस्तावेज 15 दिन के अंदर सीबीआई को उपलब्ध करवाए, और सीबीआई तीन महीने के भीतर अपनी जांच रिपोर्ट सौंप दे. जांच रिपोर्ट आने और उस पर कोई निर्णय लेने में अभी काफी वक्त लगेगा, लेकिन जिन लोगों को कोर्ट ने तत्काल कार्यमुक्त करने और वेतन रोकने का आदेश दिया है उन पर इसका बुरा असर दिखना शुरू हो गया. बीडीओ वगैरह बनकर घूमने वाले कई अधिकारी कार्यमुक्त और वेतनरहित होते ही लोगों की नजरों से ओझल हो गये हैं. दूसरी ओर ऐसे अधिकारियों को मोटा दहेज देकर अपनी बेटी का हाथ सौंपने वाले अभिभावकों के पास फिलहाल किस्मत का रोना रोने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है. बोकारो के निवासी एके सिन्हा कहते हैं, ‘दो साल पहले अपनी जिंदगी की सारी बचत खर्च कर अधिकारी दामाद को अपनी बेटी दी थी. अब मैं अपनी बेटी के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हूं. क्या करूं, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है.’ सिन्हा जी का दर्द कइयों का दर्द है.
कोर्ट के इस फैसले का असर और भी कई रूप में पड़ रहा है. सरकारी कामकाज इससे सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है. हालत यह है कि पहले से ही पांच दर्जन के करीब अधिकारियों की कमी झेल रहे 70 से अधिक प्रखंड बीडीओ-सीओ विहीन हो गए हैं. सरकार का कहना है कि इसकी भरपाई फिलहाल दूसरे पदाधिकारियों को अतिरिक्त प्रभार देकर की जाएगी. लेकिन सवाल यह है कि जब नियुक्त अधिकारियों पर नियुक्ति के कुछ माह बाद ही आरोप लगने लगे थे तब सरकार क्यों नहीं चेती. आखिर उन्हें इतने दिन तक ढोते रहने की क्या मजबूरी थी और भ्रष्ट तरीके से अधिकारी बने लोगों ने राज्य का जो नुकसान किया होगा, उसकी भरपाई कौन करेगा. इसके अलावा एक और बड़ा सवाल यह है कि जो लोग इस भ्रष्ट नियुक्ति के लिए जिम्मेदार हैं उनके ऊपर क्या कार्रवाई हो रही है. कार्मिक सचिव एएन सिन्हा ने तहलका से कहा, ‘कोर्ट का आदेश है. मामला विचाराधीन है, इसलिए मैं कुछ नहीं बोल सकता.’ जो दलील कार्मिक सचिव दे रहे हैं, लगभग वही भाषा राज्य के सत्ताधारी और विपक्षी दलों के नेताओं की भी रहती है. वे कुछ भी बोलने से कतराते हैं क्योंकि ज्यादातर ने क्योंकि झारखंड लोक सेवा आयोग के जरिये अपने पुत्रों, पुत्रियों, भतीजों, बहुओं और दामादों को उपकृत किया है. हाई कोर्ट के आदेश की चपेट में आए लोगों में जहां इस फैसले से मायूसी है वहीं राज्य का एक तबका खुश भी है. विशेषकर वे लोग जो ईमानदारी से कोशिश करने के बावजूद इन परीक्षाओं में अयोग्य करार दिए गए थे.
झारखंड पहले से ही पांच दर्जन अधिकारियों की कमी से जूझ रहा हैं और अब नए आदेश की वजह से 70 से अधिक प्रखंड बीडीओ-सीओ विहीन हो गए हैं.
हाई कोर्ट के हालिया आदेश से जिस गड़बड़झाले पर पूरे देश की निगाह जम गई है उसकी परतें काफी पहले ही उघड़नी शुरू हो गई थीं. 2008 में बुद्धदेव उरांव और पवन कुमार चौधरी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करके आयोग द्वारा ली गई परीक्षा की वैधता पर सवाल खड़े किए थे. याचिका में यह आरोप भी लगाया था कि आयोग ने योग्य उम्मीदवारों को दरकिनार करके अयोग्य सदस्यों, नेताओं, अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों के रिश्तेदारों-नातेदारों को नियुक्त किया है. याचिकाकर्ताओं ने 152 ऐसे सगे-संबंधियों की सूची भी कोर्ट को सौंपी थी. इस सूची के अनुसार एक ही व्यक्ति या परिवार से ताल्लुक रखने वाले कई अभ्यर्थी अधिकारी बन गए. तब राज्य के राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी हुआ करते थे. उन्होंने इस मामले की जांच के आदेश दिए थे. निगरानी की रिपोर्ट पर सरकार ने 19 अधिकारियों को बर्खास्त भी किया था लेकिन सरकार के आदेश को चुनौती दी गई तो कोर्ट के एकलपीठ ने सभी बर्खास्त अधिकारियों की सेवा फिर से बहाल कर दी थी. फिर राज्य सरकार ने अपील याचिका दायर करके सेवा बहाल किये जाने के आदेश को चुनौती दी थी. इस बार कोर्ट ने 19 अधिकारियों के बजाय द्वितीय सिविल सेवा परीक्षा में चयनित सभी अभ्यर्थियों को नोटिस भेजा था और बाद में सुनवाई के बाद 166 अधिकारियों को कार्यमुक्त किया और इससे संबंधित कई अन्य याचिकाओं की सुनवाई करते हुए आयोग द्वारा ली गई 12 परीक्षाओं की जांच के आदेश दे दिए. हालांकि इन समस्त परीक्षाओं की जांच का जिम्मा पहले से निगरानी विभाग के पास था, लेकिन उसकी जांच के संतोषजनक परिणाम नहीं निकल रहे थे.
झारखंड में तीन माह के बाद जेपीएससी के काले कारनामों के सिलसिलेवार खुलासों का सीबीआई जांच की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही बेसब्री से इंतजार किया जाने लगा है. द्वितीय सिविल सेवा परीक्षा के अभ्यर्थियों को तो अभी सिर्फ सेवामुक्त व वेतनमुक्त किया गया है. लेकिन निगरानी द्वारा दर्ज की गई प्राथमिकी के अनुसार प्रथम सिविल सेवा परीक्षा में आयोग ने घिनौनेपन की सारी हदें लांघ दीं. प्रथम सिविल सेवा परीक्षा में आयोग ने हर स्तर पर मसलन संचालन, कॉपियों की जांच और इंटरव्यू तक में धांधलियां कीं. आयोग के अध्यक्ष दिलीप प्रसाद और वरीय सदस्य गोपाल प्रसाद सिंह ने कुछ नेताओं, प्रभावशाली अधिकारियों को विश्वास में लेकर ऐसी साजिश रची थी, जिसमें मेधावी अभ्यर्थियों के साथ-साथ विकलांगों तक का हक मार करके अयोग्यों को अधिकारी बनाया गया. चंद उदाहरणों से ही आयोग के दोनों अधिकारियों दिलीप प्रसाद और गोपाल प्रसाद सिंह की साजिश की काली करतूत का पता चल जाएगा. इन दोनों अधिकारियों ने कई लोगों को उपकृत करके करीब दो दर्जन सगे-संबंधियों के अधिकारी बन जाने का मार्ग प्रशस्त किया. आयोग के वरीय सदस्य गोपाल प्रसाद सिंह संथाल परगना इलाके के गोड्डा कॉलेज के प्रोफेसर थे. उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके कॉपियों की जांच के लिए 22 परीक्षकों में से 13 परीक्षक गोड्डा कॉलेज के ही व्याख्याताओं को बना दिया था. राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव वीएस दुबे ने तब गोपाल सिंह के खेल के बारे में सरकार को चिट्ठी लिखी थी.
हालांकि दुबे की बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया था. तहलका से वीएस ने कहा, ‘अगर उस समय सख्ती बरती जाती तब इन कारनामों पर रोक लगाया जा सकता था.’ आयोग के अधिकारियों ने सात ऐसे उम्मीदवारों को इंटरव्यू में शामिल होने का मौका दिया, जो प्रारंभिक परीक्षा भी पास नहीं कर सके थे. निगरानी विभाग ने इस बारे में जानकारी मांगी तब आयोग यह नहीं बता सका कि उनके रैंक क्या थे. इतना ही नहीं, पहली परीक्षा के तहत कुल 64 पदों पर नियुक्ति की जानी थी, जिसके लिए नियमानुसार दस गुना ज्यादा यानी 640 अभ्यर्थियों को प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए था लेकिन 9,000 के रिजल्ट निकले. नियमानुसार 64 पदों के आलोक में तीन गुना ज्यादा यानी 192 लोगों को इंटरव्यू में बुलाया जाना चाहिए था लेकिन 246 उम्मीदवारों को इंटरव्यू में बुलाया गया यानी 54 अभ्यर्थियों को गलत तरीके से इंटरव्यू में शामिल करके उनके अधिकारी बनने का मार्ग प्रशस्त किया गया. यह सारा खेल तो आयोग द्वारा ली गई सिर्फ प्रथम सिविल सेवा परीक्षा भर का है. 12 अन्य परीक्षाओं की जांच सीबीआई करने वाली है. अंदाजा लगाया जा सकता है, कैसे-कैसे कारनामे सामने आएंगे.