सामाजिक सुधार आंदोलनों से राजनीतिक दल भी उभरे। हिंदुओं और मुसलमानों के अपने स्वयं के राजनीतिक प्रभुत्व वाले आंदोलन भी उठे, जिन्होंने बाद में खुद को राजनीतिक दलों में स्थापित किया। संघीय व्यवस्था में लोकतांत्रिक राजनीति के प्रभुत्व के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय दलों का गठन असामान्य नहीं है। साथ ही, एक विविध समाज में मतभेद भी क्षेत्रीय राजनीति पर अपना प्रभाव डालते हैं, जो नई पार्टियों को जन्म देता है।
अकु श्रीवास्तव, पत्रकारिता, सम्पादन और लेखन की लंबी पारी खेल चुके हैं। उनकी नई किताब ‘क्षेत्रीय दलों का सेंसेक्स’, राज्यों की राजनीति की जानकारी के लिहाज से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह जानना किसी के लिए भी बहुत दिलचस्प हो सकता है कि एक विशेष पार्टी का गठन कब हुआ, किन परिस्थितियों के कारण इसका गठन हुआ और यह अब कैसे कार्य कर रही है। हिंदी में अपनी तरह की यह पहली किताब है जो इन सभी जिज्ञासाओं का समाधान करती है। पुस्तक में क्षेत्रीय दलों की चर्चा है, लेकिन विषय से परे जाकर और कांग्रेस से टूटकर बनी नई पार्टियों के इतिहास को भी इसमें संजोया गया है जो पुस्तक को अधिक प्रासंगिक बना देता है।
क्षेत्रीय दलों के उदय ने निर्विवाद रूप से भारत की चुनावी राजनीति की प्रकृति को बदला है। साल 1990 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में क्षेत्रीय दलों की स्थिति में अभूतपूर्व वृद्धि के बाद, राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी प्रतिस्पर्धा में शक्ति का एक नया संतुलन उभरा और यह था जाति और सामुदायिक राजनीति। क्षेत्रीय दलों ने वहां न केवल अपने-अपने राज्यों बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। और अब राज्य के भीतर अपनी पसंदीदा क्षेत्रीय पार्टी को वोट देने वाले मतदाता लोकसभा चुनाव में अपना नजरिया बदल लेते हैं। इस नए चलन को रेखांकित करते हुए क्षेत्रीय दलों की दिलचस्प कहानियां इस किताब में हैं।