पिछले सात दशकों में कई राज्यों ने राज्यपालों की भूमिका पर विवाद देखे हैं, जिन पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने निर्णय लेने की अपनी शक्तियों में कथित तौर पर स्वतंत्रता नहीं बनाये रखी। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब के राज्यपाल के कैबिनेट की सिफ़ारिश के बाद भी विधानसभा को नहीं बुलाने के मामले में राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों से कहा कि राज्य सरकार राज्यपाल द्वारा माँगी गयी जानकारी प्रस्तुत करने के लिए बाध्य है और साथ ही राज्यपाल को विधानसभा सत्र बुलाने की मंत्रिमंडल की सिफ़ारिश को स्वीकार करना होगा।
इसके बाद ख़बर आयी कि तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि ने ऑनलाइन जुए पर प्रतिबंध लगाने वाले विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया है। बेशक उनके पास विधेयक को वापस करने की शक्ति है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा एक प्रस्ताव पेश करने के बाद राज्यपाल विधानसभा से बाहर चले गये, जिसमें कहा गया था कि सदन के शीतकालीन सत्र के पहले दिन सरकार द्वारा केवल परम्परागत भाषण ही रिकॉर्ड में जाएगा। राज्यपाल द्वारा ‘शासन के द्रविड़ मॉडल’ सहित कुछ शब्दों को छोड़ देने के बाद विवाद शुरू हो गया। हाल के दिनों में दिल्ली, पंजाब, पुडुचेरी, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठाये गये हैं।
हाल के महीनों में तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल को वापस बुलाने की माँग की थी। उधर केरल में सरकार ने राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को राज्य के विश्वविद्यालयों के चांसलर के रूप में बदलने के लिए एक अध्यादेश का प्रस्ताव दिया था। तेलंगाना में राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन ने उनके फोन टेप किये जाने का संदेह व्यक्त किया था। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री और टीएमसी नेता ममता बनर्जी और तत्कालीन राज्यपाल, जगदीप धनखड़ के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध दूर की कौड़ी बन गये थे और राज्य विधानसभा ने राज्यपाल की जगह 17 राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में मुख्यमंत्री की नियुक्ति के लिए एक विधेयक पारित किया था। दिल्ली में, जो एक पूर्ण राज्य नहीं है; सत्तारूढ़ दल आम आदमी पार्टी (आप) और उप राज्यपाल 2014 से लड़ रहे हैं, जब आम आदमी पार्टी पहली बार राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता में आयी थी। पुडुचेरी में एक पूर्व उप राज्यपाल की उनके कथित हस्तक्षेप के लिए राज्य सरकार द्वारा आलोचना की गयी थी। ये घटनाएँ सम्बन्धों में खटास और संविधान के अनुच्छेद-163 के अनुसार राज्यपालों की भूमिका के बारे में बहुत कुछ बताती हैं।
अवॉर्ड विजेता पत्रकार और लेखक कुमकुम चड्ढा, जो अपने बेरोकटोक लेखन के लिए जानी जाती हैं; ने ‘तहलका’ की आवरण कथा ‘सत्ता के लिए खींचतान’ इसी विषय पर की है। इसमें बताया गया है कि शीर्ष अदालत ने नीति निर्माताओं को आगाह किया कि वे आपसी संवाद के स्तर को निम्न स्तर पर न जाने दें। महत्त्वपूर्ण विधेयकों के मामले में राज्यपालों की ओर से जानबूझकर टालमटोल का प्रयोग विधिवत् निर्वाचित सरकारों के बीच चिन्ता पैदा करने की चाल के रूप में देखा जाता है। राज्यों में तसत्ताधारी दलों का आरोप है कि केंद्र की व्यवस्था कथित तौर पर पार्टी के विस्तार के रूप में राज्यपालों के माध्यम से शासन करने की कोशिश कर रही है। राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध किसी भी राज्य की प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही यह सलाह देकर साफ़ किया है कि संवैधानिक संवाद को मर्यादा और राजकीय कौशल के साथ संचालित किया जाना चाहिए।