प्रदेश भाजपा की भगवा राजनीति में इन दिनों जिस तरह अमूर्त रणनीतियों के पासे चले जा रहे हैं, उनमें किसी धारावाहिक से कम नाटकीयता नहीं है। जिस समय भाजपा की सियासी चर्चा में वसुंधरा राजे के बारे में ‘इस्तेमाल करके फेंकने’ वाले शब्द-आडंबर पैकेज की षड्यंत्रकारी बातें चल रही थीं, उस समय वसुंधरा के मन में इस बात की आशंका यकीन में बदलती दिख रही थी। अब जब उन्हें भाजपा नेतृत्व की नीयत में खोट का लगातार अहसास होने लगा, उन्होंने एकाएक अपने समर्थकों को साथ लेकर ‘टीम वसुंधरा’ नाम का संगठन खड़ा करके पार्टी नेतृत्व को हक्का-बक्का कर दिया। वसुंधरा राजे के आकस्मिक विस्फोट का क्या अर्थ लगाया जाए? विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी (भाजपा) में बाहर का रास्ता दिखाने के लिए चिह्नित की गयीं राजे महज़ हवा का रुख भाँपने के लिए पतंग उड़ा रही हों।
सूत्रों का कहना है कि फिलहाल तो भाजपा नेतृत्व ने इस उकसावे को अनदेखा कर दिया है और असल नीति बनने तक इंतज़ार करना बेहतर समझा है। राजनीति के इस तूफानी मंजर में भाजपा की प्रदेश कोर कमेटी में वसुंधरा राजे को शामिल करने से तो यही लगता है। विश्लेषकों का कहना है कि विरोध के इस जलसे पर भाजपा की उदास खामोशी का क्या मतलब हुआ? विश्लेषक इसे प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के कुटिल पैंतरे की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि दरअसल पूनिया वसुंधरा पर ताबड़तोड़ हमले कर पार्टी में अपने विश्वास का निवेश करना चाहते हैं। लेकिन पूनिया का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उनके बढ़ते हमलों ने प्रदेश की राजनीति में वसुंधरा का कद और ऊँचा कर दिया है। भले ही इस मुद्दे पर दिल्ली का असमंजस चौंकाता है। लेकिन दिल्ली की बेखुदी बेसबब भी तो नहीं, कुछ तो परदादारी है। आखिर इस दोहरे खेल का क्या मतलब है कि एक तरफ तो प्रदेश कार्यकारिणी में वसुंधरा समर्थकों को फटकने तक नहीं दिया।
भाजपा नेतृत्व में डर भी
दूसरी तरफ वसुंधरा को कोर कमेटी में शामिल कर लिया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि यह खबरों के सिलसिले को अपने हिसाब से फेंटने और लगातार आ रही बुरी खबरों से ध्यान भटकाने की कोशिश भी हो सकती है। अलबत्ता यह कोई साधारण सियासी गणित नहीं है। इस गोपनीय गणितीय आकलन के जो भी मायने रहे हों, वसुंधरा ने कोर कमेटी की बैठक में जाना तो दूर, उधर का रुख भी नहीं किया। इससे कहीं-न-कहीं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व एक डर तो है कि कहीं आने वाले समय में राजस्थान में वह बहुत कमज़ोर न हो जाए। भले ही प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया अपने दफ्तर में अपनी पीठ ठोंकने की मुद्रा में बैठे हों, लेकिन न तो उनकी कार्रवाइयों में षड्यंत्र छिपाये छिप रहे हैं और न पार्टी नेतृत्व को करार पड़ रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि सतीश पूनिया को टकराव के अलावा कोई दूसरी राजनीति नहीं आती। इसलिए उन्होंने गवर्नेंस के मूलभूत कामों पर भी टकराव को ही संवाद बना लिया। बहरहाल फिलहाल तो उपेक्षा के अभिशाप से जूझ रही वसुंधरा कुछ भी कहने की बजाय धौलपुर महल में शाही चुप्पी ओढ़े बैठी हैं। सूत्रों का कहना है कि वसुंधरा ने केंद्रीय नेतृत्व को अपनी शक्ति का अहसास कराने के लिए यह कदम उठाया है। अब तक प्रदेश के 28 ज़िलों में इस संगठन का गठन हो चुका है। समझा जाता है कि यह संगठन वसुंधरा की भाजपा में यथास्थिति में वापसी के लिए प्रभावी मंच साबित हो सकता है। हालाँकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया इसे जुगाड़ का नाम दे रहे हैं। बहरहाल वसुंधरा राजे ने तीसरे मोर्चे की सम्भावनाओं का ढक्कन तो खोल ही दिया है। उधर वसुंधरा राजे के धुर विरोधी गिने जाने वाले विधायक मदन दिलावर का कहना है कि टीम वसुंधरा राजे से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। जिसने भी यह संगठन बनाया, भाजपा से उसका कोई सरोकार नहीं हो सकता। विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच यह लुकाछिपी का खेल विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजय के बाद से ही चल रहा है। इस सियासी पतंग की डोर आरएसएस के हाथों में है। संघ वसुंधरा को सक्रिय राजनीति या चुनावी राजनीति में देखना ही नहीं चाहता। नतीजतन लाख प्रतिरोध के बावजूद वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया गया। राजे की असहमितयों के बावजूद एक दूरदर्शी फैसले के तहत गुलाब चंद कटारिया को यह पद सौंप दिया गया। जिस वक्त नेता प्रतिपक्ष पद पर कटारिया की ताजपोशी की जा रही थी, वसुंधरा के चेहरे पर खीझ के भाव साफ नज़र आ रहे थे। टीम वसुंधरा के गठन की पटकथा अनायास ही नहीं लिख दी गयी। सूत्रों की मानें तो सम्भवत: यह मकर संक्रांति की पूर्व संध्या थी, जब वसुंधरा के बेहद खास माने जाने वाले भाजपा विधायक प्रताप सिंह सिंघवी के घर पर वसुंधरा गुट के तमाम विधायकों और सांसदों की गुप्त बैठक हुई। यह बैठक विधायकों, सांसदों का जमावड़ा अधिक लग रही थी। इस बैठक में वसुंधरा राजे खुद भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से वर्चुअली जुड़ी हुई थी। अधिकांश की राय थी कि वसुंधरा राजे अपना अलग राजनीतिक दल बनाएँ और अगले विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दें। हालाँकि बैठक में ठहाकों की गूँज भी थी। लेकिन इन हँसी-ठहाकों के पीछे दर्द भी छिपा था।
दरअसल पिछले दिनों भाजपा नेतृत्व द्वारा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया को फ्री हैंड दिये जाने के बाद यह बात तकरीबन तय हो चुकी थी कि पूनिया कभी भी वसुंधरा को राजनीतिक वानप्रस्थ पर भेजने के अपने खेल में सफल हो सकते हैं। वसुंधरा समर्थकों का अभिमत था कि फिलहाल केंद्रीय नेतृत्व को गुर्राहट दिखाने की बजाय 2008 और 2013 की दबाव की राजनीति करनी चाहिए। इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व से अनुमति लेकर देव दर्शन यात्रा शुरू कर देनी चाहिए। लेकिन इस बीच पूनिया की त्रिपुरा सुन्दरी की यात्रा को लेकर नयी अटकलें शुरू हो गयी हैं।
त्रिपुरा सुन्दर की आराधना
उल्लेखनीय है कि त्रिपुरा सुन्दरी वसुंधरा राजे की अराध्या है। जब भी राजे राजनीतिक दूरभिसंधियों से दो चार हुईं, उन्होंने त्रिपुरा सुन्दरी के मन्दिर की तरफ ही रुख किया। ऐसे में सतीश पूनिया का त्रिपुरा सुन्दरी जाना और राजसमंद में भाजपा कार्यकर्ताओं को चुनाव की तैयारी के लिए दिशा-निर्देश देना इस बात का साफ संकेत है कि भाजपा संगठन वसुंधरा राजे के खिलाफ उन्हीं हथियारों की आजमाइश कर रहा है, जिनके बूते वसुंधरा दो बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। बहरहाल राजे की देव दर्शन यात्रा के बारे में कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि जिस तरह से कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच शीत युद्ध चरम पर है, वहीं भाजपा में भी वसुंधरा राजे और संगठन मुखिया के नाते सतीश पूनिया के बीच सियासी पैंतरेबाज़ी चरम पर है; जिसके और तेज़ होने की सम्भावना जतायी जा रही है। इसे संयोग नहीं कहा जा सकता कि राजस्थान में भाजपा की कलह उस समय सतह पर आयी, जब कॉर्पोरेशन चुनावों में पार्टी ने अपने जयपुर, जोधपुर और कोटा जैसे बड़े िकले गँवा दिये। हालाँकि इसका अंदेशा पहले से ही था कि भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। एक वरिष्ठ नेता आंतरिक आकलन का हवाला देते हुए कहते हैं कि पिछले दो साल में यह पहला मौका है, जब किसी चुनावी रण क्षेत्र से वसुंधरा राजे लापता रहीं। चुनावों की बागडोर ऐसे लोग थामे हुए थे, जिनका न कोई रसूख था और न ही कोई तज़ुर्बा। उन्होंने कहा कि बेशक सियासत पैंतरे और चेहरे बदलती है, लेकिन राजस्थान की रेतीली राजनीति में तो भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे हैं। ऐसे में पार्टी की ओर से उनकी अनदेखी पार्टी को पराजय की ढलान पर लुढ़कने से कैसे रोक पाती?
अवसरवाद की राजनीति!
प्रदेश में चल रहे इस केसरिया कोलाहल को लेकर राजनीतिक जानकारों का नज़रिया कहता है कि राजनीतिक दलों के अपने-अपने हित होते हैं। ऐसे में राजनीति को अवसरवाद का आईना कहना ज़्यादा सटीक होगा। इसलिए किसी नेता का अगला कदम क्या होगा? इस बाबत कयास लगाने का कोई मतलब नहीं है। इस मुकाम पर यह तर्क समझना आसान नहीं हो सकता कि बीती चुनावी फिज़ाँ में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे की तारीफ में कसीदे पढऩे में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी कि जब तक वसुंधरा हैं, राज्य में नेतृत्व कोई मुद्दा नहीं है। आज वही वसुंधरा नेतृत्व की आँखों का कांटा बन गयी हैं। हालाँकि इस ज़ोर आजमाइश की राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा बौद्धिकता के साथ व्याख्या करते हैं कि अगर नये नेतृत्व को सक्रिय करना है, तो उन्हें काम करने की आज़ादी देनी होगी। इसलिए प्रदेशों में बरसों से जमे पुराने नेताओं को वहाँ से बाहर निकालकर केंद्रीय राजनीति में सक्रिय करना होगा, तभी राज्यों में नया नेतृत्व उभरेगा। चर्चित अनुवादक आलोक राय कहते हैं कि राजनीति जोड़-तोड़ और छल-प्रपंचों की महारत रचने का मैदान बन गया है। इसलिए कैसी भी किसी घटना-परिघटना पर तात्कालिक टिप्पणी करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो दर्द की गर्द को ज़िन्दगी भर बैठने नहीं देना चाहते। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया भी ऐसे ही हैं। और सियासी रंजिश के ऐसे अलाव को भड़काने के लिए घास-फूँस डालने वालों की कौन-सी कमी रहती है? यह काम विधानसभा में विपक्ष के उप नेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ बखूबी कर रहे हैं। सतीश पूनिया यह भूलने को तैयार ही नहीं हैं कि वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनने दिया। दिलचस्प बात है कि इस दौड़ में पूनिया संघ की पहली पसन्द थे; जबकि वसुंधरा राजे दोबारा से ताजपोशी पर तुली हुई थीं।
संघ की पसन्द पूनिया
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तो यहाँ तक कह चुके थे कि जिस प्रदेश में भाजपा की सरकार हो, वहाँ मुख्यमंत्री का खास समझा जाने वाला व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष नहीं होना चाहिए; इससे संगठन चौपट हो जाता है। इस सियासी खींचतान में जिस तरह पूनिया की भद्द उड़ी, उसे न तो पूनिया भूलने को तैयार हैं और न ही संघ। वसुंधरा को लेकर संघ के थिंक टैंक की अनेक आशंकाएँ हैं। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि वसुंधरा शक्तिपुंज बनकर फिर अधिनायकवाद को बढ़ावा दे सकती हैं। तब भाजपा की रीति-नीति के विरुद्ध एक अटपटा परिदृश्य उभर आयेगा। एक आशंका यह भी है कि कालांतर में पार्टी में धृतराष्ट्र, भीष्म और गांधारियों का बोलबाला हो जाएगा; जिसकी परिणिति इस परिदृश्य में होगी कि वसुंधरा का आचरण अहसान करने जैसा हो जाएगा कि उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा बहुमत लेकर आयी, अन्यथा किसमें इतनी सामथ्र्य थी?
प्रधानमंत्री के मन में खटास
वसुंधरा की वापसी को लेकर पार्टी नेतृत्व भी विश्वास की लकीर खींचने को तैयार नहीं है। वसुंधरा का रोचक राजनीतिक रोज़नामचा बाँच चुके रणनीतिकार अनेक दृष्टांत गिनाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी से तो राजे के रिश्तों में तब खटास आ गयी थी, जब वसुंधरा प्रतिगामी राजनीति की पटरी पर चल पड़ी थी। विश्लेषकों ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वसुंधरा को राज्य की नयी गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वह अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमज़ोर कड़ी बन गयी है। आईपीएल के पूर्व कमिश्नर रहे ललित मोदी को लेकर पासपोर्ट विवाद ने भाजपा नेतृत्व को कितनी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा था। कहने की ज़रूरत नहीं है। इस मुद्दे को लेकर पार्टी में सुलग रही आग आज भी नहीं बुझी है। राजमहल होटल विवाद ने भाजपा नेतृत्व को क्या कुछ नहीं भुगतना पड़ा था? कहने की ज़रूरत नहीं है।
क्या सियासी दाँव समझ चुकी थीं राजे
अतीत के पन्ने पलटें, तो राज्य में समग्र बदलाव का खाका खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को विकल्प भी दिया था कि आम चुनाव जीतने के बाद विधानसभा सीटों से इस्तीफा दिलवाकर उनके बेटे दुष्यंत को चुनाव लड़वाया जाए, ताकि राज्य की सियासत में युवा सक्रिय भूमिका निभा सकें। लेकिन राजे ने केंद्रीय नेतृत्व के दाँव पर खेलने से साफ इन्कार कर दिया। राजे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए इसलिए भी तैयार नहीं थीं, क्योंकि इससे उनके बेटे दुष्यंत की उम्मीदवारी खतरे में पड़ जाती; जो इस समय झालावाड़ से सांसद हैं। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वह इस व्यवस्था के पीछे छिपा संदेश पढ़ चुकी थीं। उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि उन्हें सियासत की किस धुरी पर स्थापित किया जाएगा? सूत्र कहते हैं कि राजे इस मुद्दे पर भी नाराज़गी भरी चुप्पी साधे रही हैं कि उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष का ओहदा तो बख्श दिया, लेकिन उन्हें लोकसभा चुनावों के लिए बनायी गयी 17 समितियों में से एक में भी जगह क्यों नहीं दी गयी? जबकि इन समितियों में केंद्रीय मंत्रियों, संगठन के पदाधिकारियों और हिन्दी भाषी राज्यों के नेताओं को प्रमुखता से जगह दी गयी। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि उन्हें यह कहकर उपाध्यक्ष बनाया गया था कि उन जैसी जनाधार वाली और सक्रिय नेता के दिल्ली जाने से पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूती मिल सकती है। निकटवर्तियों का कहना है कि उनकी (वसुंधरा की) तेज़-तर्रार नेता की छवि और अनुभव का फायदा पार्टी को आम चुनावों में राजस्थान समेत अन्य राज्यों को मिल सकता था, तो फिर समितियों से उन्हें दूर क्यों रखा गया?
राजे इस बात से भी खफा हैं कि लोकसभा चुनावों में भाजपा के सभी मोर्चों की संयुक्त कार्यशाला में लगे बैनर-पोस्टरों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, दीन दयाल उपाध्याय और सुंदर सिंह भंडारी के ही फोटो क्यों थे? कार्यशाला जब जयपुर में आयोजित हुई, तो प्रदेश की कद्दावर नेता होने के नाते उन्हें भी पोस्टरों में जगह देनी चाहिए थी; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वसुंधरा के व्यवहार में हमेशा चक्रवर्ती होने की बात झलकती है। बेशक भाजपा नेतृत्व ने वसुंधरा के धुर-विरोधी संघनिष्ठ सतीश पूनिया को प्रदेश का मुखिया बनाकर उन्हें पूरी तरह फ्री हैंड कर दिया है। लेकिन वसुंधरा कहते नहीं अघातीं कि यह पार्टी मेरी माँ विजयाराजे सिंधिया ने बनायी और बढ़ायी है। उनके नाम और काम से ही आज भाजपा शिखर पर पहुँची है। ऐसे में उन्हें (वसुंधरा को) राजनीतिक वानप्रस्थ पर भेजने की तैयारी क्यों?
वसुंधरा समर्थकों की पार्टी नेतृत्व को चेतावनी
वसुंधरा समर्थकों ने दबाव की राजनीति का कार्ड खेलते हुए पार्टी हाईकमान को दो-टूक शब्दों में कह दिया है कि अगले विधानसभा चुनावों के लिए वसुंधरा राजे को अधिकृत रूप से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया जाए। राजे के पूर्व मंत्रिमंडलीय सहयोगी और छबड़ा से भाजपा विधायक प्रताप सिंह सिंघवी ने सार्वजनिक रूप से बयान देते हुए पार्टी आलाकमान को कह दिया है कि राजस्थान में अगले विधानसभा चुनावों के लिए वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। सिंघवी का कहना था कि वसुंधरा राजे राजस्थान में भाजपा की सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उन्होंने पार्टी नेतृत्व को चेतावनी भरा मशविरा देते हुए कहा कि अगर वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया, तो पार्टी को पराजय के लिए तैयार रहना चाहिए। उधर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया का कहना है कि पार्टी से बड़ा कोई चेहरा नहीं है। पार्टी का सिर्फ एक ही चेहरा है और वह नरेंद्र मोदी हैं। सवाल यह है कि क्या पूनिया मोदी के नाम का सहारा लेकर किसी और की राह में रोड़ा बनकर खुद मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनना चाहते हैं। दूसरी तरफ यह सवाल है कि क्या सिंघवी की चेतावनी वाकई वसुंधरा का भाजपा के ही खिलाफ पार्टी बनाकर आगामी विधानसभा के चुनावों में मैदान में कूदने को लेकर है? क्योंकि वसुंधरा राजे पहले दो बार पार्टी नेतृत्व को अपना अलग दल बनाने की धमकी दे चुकी हैं। लेकिन इस बार तो वह संगठन भी बना चुकी हैं। कुल मिलाकर अब गेंद भाजपा नेतृत्व के पाले में है। अगर वह राजस्थान में वसुंधरा नेतृत्व को स्वीकार करता है, तब तो ठीक, अन्यथा लगता तो यही है कि पार्टी में पड़ी फूट अलग ही इतिहास गढ़ेगी। बहरहाल, क्या होना है? यह तो भविष्य ही बतायेगा।
प्रधानजी बनेे पूनिया!
निगम चुनावों में जिस तरह भाजपा की मिट्टी पलीद हुई, उसकी राजनीतिक रणनीति का सबसे दुखांत पहलू क्या रहा? इन दिनों केसरिया खेमे में सबसे ज़्यादा कोलाहल इसी बात को लेकर है। हालाँकि चुनावी नतीजों के बाद एक बनवटी बहस चलाने की कोशिश हो रही है। लेकिन पार्टी के अंदरखाने से रिसती खबरों की बात करें, तो प्रदेश भाजपा में अध्यक्ष के तौर पर सतीश पूनिया ने जबसे पद सँभाला है, भाजपा के हर संगठनात्मक फैसले में संगठन की भूमिका निर्णायक हो गयी है। सही मायनों में देखें, तो प्रधानजी (पूनिया) पार्टी नेतृत्व की खुली छूट के चलते ब्रांड एम्बेसेडर की तरह हो गये हैं। नतीजतन पार्टी को डिपार्टमेंटल स्टोर की तरह चला रहे हैं। यह स्थिति भाजपा के स्वयंभू नेताओं के लिए किस कदर अखरने वाली है, कहने की ज़रूरत नहीं है। विश्लेषकों का कहना है कि जब कोई राजनीतिक दल अपनी प्रगति के लक्ष्य बदलता है, तो उसे चिन्ताओं के आयाम भी बदल लेने चाहिए। अन्यथा बेगानगी दलीय निष्ठा का तियाँ-पाँचा कर देती है। कोई राजनीतिक दल जब तक एक दबाव समूह के रूप में होता है, वह स्वच्छंद तरीके से व्यवहार कर सकता है; लेकिन आज भाजपा दबाव समूह के रूप में है। जबकि सतीश पूनिया की सदारत में पार्टी अनेक सवालों से घिरी है, जो उसकी विरासत और वैचारिक मिशन से मेल नहीं खाते। लेकिन सवाल है कि जब सिद्धांतकार बनकर कारण तलाशेंगे, तो नतीजा समझा जा सकता है। गलतफहमी की खोह की अथाह गहराई में गले-गले तक डूबे पूनिया का मन पढ़ें, तो वही पार्टी का विस्तार हैं; जो कि अपने मन में महाराजा होने जैसा ही है। इसलिए वह ही सम्पर्क मिशन का शुभंकर हैं, वह ही पार्टी के कर्ता-धर्ता हैं और वही प्रधानजी हैं। लेकिन प्रधानजी की पूरी तरह आवभगत में लगे राष्ट्रीय नेतृत्व को शायद ही अंदाज़ा होगा कि उनकी संागठनिक मनमानी थुलथुलेपन का साझेदार हो जाएगी। पार्टी में सदाबहार गुटबन्दी के चलते भले ही पूनिया प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना की विदाई में सफल हो गये; लेकिन क्या उनकी जगह लेने वाले अरुण सिंह पूनिया की कूटनीतिक पच्चीकारी में फँस पाएँगे? सूत्रों का कहना है कि संघ अब तक भाजपा में भेजे गये विश्वस्त स्वयं सेवकों पर निर्भर रहता आया है। किन्तु इसके परिणामों ने इस सोच को आगे बढ़ाने का काम किया है कि राजनीतिक शैली एवं प्रक्रियाओं पर नियंत्रण ज़रूरी है। सूत्रों का कहना है कि कुल मिलाकर पूनिया का मकडज़ाल राजस्थान की राजनीति से वसुंधरा राजे को परे रखने और रजवाड़ी राजनीति की नायिका दीयाकुमारी को लाइम लाइट में लाने का है। लेकिन विश्लेषकों की मानें, तो सियासी दूरंदेशी के मायने में पूनिया वसुंधरा राजे के आगे बहुत बोने हैं। कहीं ऐसा न हो कि आगे चलकर पूनिया पार्टी दफ्तर में सिर्फ गुलदस्ता बनकर रह जाएँ!
मोहरा चुनने की मनमानी
अपने मन की करने के मामले में वसुंधरा राजे की बराबरी भाजपा का शायद ही कोई क्षत्रप कर सके। जब भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उप चुनावों की पराजय से खफा होकर वसुंधरा राजे के सर्वाधिक भरोसेमंद प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को हटाया था, तो उनकी जगह लेने के लिए नये शख्स की राजनीतिक तस्वीर 70 दिनों तक धुँधली ही बनी रही। प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपनी पसन्द का नेता बैठाने की जद्दोजहद में दिल्ली में डेरा डाले रहे मुख्यमंत्री के समर्थकों को राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल ने समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि नया प्रदेशाध्यक्ष कौन होगा? हालाँकि सब जानते थे कि इसका फैसला तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह करेंगे। मामले का पटाक्षेप इसलिए भी आसानी से नहीं हो पाया, क्योंकि इसी अखाड़े से चुनावी टिकट बँटवारे का दंगल होना था। बेशक केंद्रीय नेतृत्व ने अपने पसन्दीदा नेता गजेन्द्र सिंह शेखावत का नाम पाले में फेंककर तसल्ली कर ली कि शेखावत के अलावा कोई और नाम कुबूल नहीं। बावजूद इसके वसुंधरा राजे आत्मविश्वास से कितनी लबरेज थीं, इसका मुजाहिरा तो उन्होंने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात के बाद मीडिया के सवाल पर कर दिया था- ‘आप मेरा चेहरा देखिए…’ इसके साथ ही राजे मुस्कुराते हुए निकल गयीं। आखिरकार पार्टी संगठन के नेता व सांसद भूपेन्द्र यादव, किरोड़ीलाल मीणा और ओम माथुर के साथ लम्बे बहस-मुबाहिसों के बाद नये प्रदेश अध्यक्ष का नाम मदनलाल सैनी पर आकर टिका। भले ही यह नाम कभी सुिर्खयों में ढला हुआ नहीं रहा; लेकिन प्रिंट मीडिया का कयास सही निकला, जिसमें कहा गया था कि नया प्रदेश अध्यक्ष जो भी होगा, अन्य पिछड़ा वर्ग से होगा।
मदनलाल सैनी की तैनाती कैसे हुई और इनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या थी? सूत्रों का कहना है कि प्रदेश अध्यक्ष को लेकर उत्पन्न विवाद पर भाजपा नेता ओम माथुर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर हस्तक्षेप का आग्रह किया था; साथ ही मशविरा दिया था कि अगर लोगों को गजेन्द्र सिंह शेखावत स्वीकार्य नहीं, तो किसी और की नियुक्ति की जाए। नतीजतन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बात मानी और शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की ज़िद छोड़ दी। हालाँकि सूत्रों का कहना है कि गजेन्द्र सिंह को नकारने से भाजपा को राजपूत वोट बैंक से हाथ धोना पड़ा। इधर मदन लाल सैनी वह संघ परिवार के अग्रिम संगठन भारतीय मज़दूर संघ के नेता थे; लिहाज़ा उन्हें किसी गुट का मानने का सवाल ही नहीं था। जनाधार की बात करें, तो भी उनके अपने घर शेखावाटी तक में उन्हें कोई नहीं जानता। सवाल यह है कि चुनाव करीब होने की बात देखते हुए क्या भाजपा के पास इतना समय था कि उन्हें जनसम्पर्क की मचान पर बैठाने के लिए लोकप्रियता के पायदान पर लाया जाता? जबकि प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका सेनापति की होती है। लेकिन जब सेना ही उन्हें नहीं जानेगी, तो जनता कैसे जान पाएगी?