राजस्थान : विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस को मज़बूती

चुनावी गणिताई अनिश्चय की राजनीति में बिंधी होती है। इसलिए कंटीली भाषणबाज़ी से वोटरों का मिज़ाज आँकने का दावा करना तीखी बहस तो पैदा कर सकता है, किन्तु फ़तह की चाबी नहीं थमा सकता। विश्लेषकों का कहना है कि जातीय रुझानों, दीवानावार निसार होने वाले चेहरों और लुढक़ते आँकड़ों के अलावा तथ्यों का एक उजला झरोखा भी होता है, जहाँ से वोटरों का मन पढ़ा जा सकता है। इसकी तार्किक परिणिति पिछले दिनों भीलवाड़ा ज़िले के सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में देखी गयी। हालाँकि उप चुनाव सहाड़ा, सुजानगढ़ और राजसमंद समेत तीन विधानसभा क्षेत्रों में हुए थे। लेकिन सहाड़ा में कांग्रेस के चुनाव प्रभारी रामसिंह कस्वां ने अपेक्षित जज़्बा, संकल्प और इच्छा शक्ति के साथ दोहरा खेल खेलकर राजनीति के अनुभवी से अनुभवी राजनीति के जानकारों को भी हैरान कर दिया।


कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र में हुई। यहाँ दिवंगत विधायक कैलाश त्रिवेदी की पत्नी गायत्री देवी मैदान में थीं। उनके विरुद्ध भाजपा की नुमाइंदगी खेमाराम कर रहे थे। विश्लेषकों का कहना है कि दाँव-पेच में प्रतिद्वंद्वी की कमज़ोरी का स्यापा करने की बजाय मुनाफ़े पर दाँव लगाना चाहिए। कांग्रेस के चुनाव प्रभारी रामसिंह ने यही किया। उन्होंने विधानसभा के हर वोटर के घर पर दस्तक देते हुए बेधडक़ सवालों-जवाबों के साथ सबसे जुडऩे की राह बनायी। अपने प्रचार अभियान में उन्होंने मतदाताओं के दिमाग़ पर क़ब्ज़ा करने की हर तरकीब अपनायी। विश्लेषक इसे प्रचार और विचार के आदर्श मॉडल की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि वोटर अगर न्यौछावर हुआ, तो इसलिए कि चुनाव प्रभारी उनकी चिन्ताओं के लिएफ़िक्रमंद होकर उनकी ड्योढ़ी पर खड़े थे। उन्होंने कम्युनिकेशन की रणनीति से जुड़ी चिन्ताओं को भी दूर किया। रामसिंह ने सु$िर्खयाँ ही नहीं बटोरीं, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की शाबासी भी बटोरी। सहाड़ा में कांग्रेस की गायत्री देवी को 81,700 वोट मिले, जबकि भाजपा के रतनलाल जाट को 39,500 वोट मिले।

जीत का अन्तर 42,200 वोटों का रहा। सूत्रों का कहना है कि सहाड़ा विधानसभा क्षेत्र के क़रीब 35,000 लोग बाहर रह कर कारोबार में जुटे हैं। यदि समय पर उनका आना सम्भव होता तो जीत का अन्तर 17,000 पर आ सकता था। वोटरों का यही रुख़ राजसमंद में भी रहा, जहाँ भाजपा की दीप्ति माहेश्वरी केवल 3,310 वोटों से जीत पायीं। इन चुनावों में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया को अपने आपको करिश्माई साबित करने के लिए बड़ी लहर चाहिए थी। लेकिन लहर तो दरकिनार भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया अपना लोहा भी नहीं मनवा सके। विश्लेषकों का कहना है कि ये उप चुनाव सतीश पूनिया की ताक़त की सैम्पलिंग थे, लेकिन पूनिया बातों की गैम्बलिंग करके ही रह गये कि पराजय की समीक्षा करेंगे और नए मनोबल के साथ आगे बढ़ेंगे।फ़िलहाल पूनिया राहत की साँस ले सकते हैं कि उन्होंने फीकी ही सही राजसमंद की सीट बचा ली है। भाजपा विधायक किरण माहेश्वरी के निधन से ख़ाली हुई इस सीट पर पार्टी को नयी किरण की तलाश थी।

उनकी बेटी दीप्ति माहेश्वरी ही उनका आईना साबित हुई। उप चुनावों में केवल भाजपा का प्रदेश नेतृत्व ही वफ़िल नहीं रहा, बल्कि पार्टी के रणनीतिकारों और नीति निर्धारकों में भी कल्पनाशीलता की कमी अखरती रही। सहाड़ा में लादूलाल पीतलिया का नामांकन और दबाव में नाम वापसी के दाँव-पेच भाजपा के लिए बहुत महँगे साबित हुए। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जनता ने सरकार को मज़बूती दी है तथा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा सामंजस्य बिठाने वाले नेता साबित हुए। अच्छी ख़बरें यहीं नहीं थमी, कांग्रेस की वोटरों की हिस्सेदारी में भी 15 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है।
विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस ने सकारात्मक सोच के साथ शुरुआत की। गहलोत सरकार के तरकश की चिरंजीवी योजना और विद्युत संबल योजना ने मतदाताओं में सरकार की पैठ बनायी। विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस की दो सीटों पर बड़ी जीत, कोरोना के दर्द के बीच हमदर्दी भरे नतीजों के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए। बहरहाल तीनों सीटों पर परिवारवाद का साया बना रहा। चुनावों से पहले भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया पूरी तरह चौकस और आत्मविश्वास से लबरेज थे।

पंचायत चुनावों में जीत इसकी बड़ी वजह थी। लेकिन पूनिया इस ताक़त को उप चुनावों में नहीं भुना सके। राजनीति में जब कोई असामान्य जीत हासिल कर लेता है, तो अनहोनी से ग़ा$फ़िल हो जाता है। सतीश पूनिया भी इसी भ्रम के शिकार हुए और तीनों सीटें जीतने का दावा कर बैठे, जबकि दावे से उलट वह दो सीटें हार बैठे। कांग्रेस ने सचिन पायलट को साथ रखते हुए गुटबाज़ी पर पर्देदारी बनाये रखी। लेकिन पूनिया भाजपा की ताक़त का स्रोत वसुंधरा राजे को भुला बैठे। विश्लेषकों का कहना है कि जब राष्ट्रीय नेतृत्व ने पूनिया को राजे को साथ लेकर चलने की नसीहत दी थी, तो वे एकला चलने की क्यों ठान बैठे? अब वसुंधरा राजे गुट खुलकर सामने आये, तो ताज्ज़ुब कैसा?

टेपिंग विवाद
राजस्थान के सियासी हलक़ों में इन दिनों नज़ारें जिस अजीबों ग़रीब ढंग से उथले पानी की तरह बदल रहे हैं, राजनीति के मिज़ाज पर संशय पैदा करते हैं। टेपिंग विवाद ऐसा ही सियासी नज़ला है, जो मूल्य आधारित राजनीति करने वाले राजनेता अशोक गहलोत को घेरने की जुगाड़ में चलाया गया भाजपा का ब्रह्मास्त्र था, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। राज्य सरकार के गृह विभाग ने इस सवाल की समीक्षा करते हुए कहा कि लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा के हित में या किसी ऐसे अपराध को प्रोत्साहित होने से रोकने के लिए, जिससे लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था को ख़तरा हो। भारतीय तार अधिनियम-1885 के अनुच्छेद-5(2), भारतीय तार अधिनियम (संशोधित)-2007 के अनुच्छेद-419(ए) और आईटी एक्ट के अनुच्छेद-69 में वर्णित प्रावधान के अनुसार सक्षम अधिकारी की स्वीकृति के उपरांत टेलीफोन अंत: अवरोध किये जाते हैं। पुलिस की ओर से सक्षम अधिकारी से अनुमति होने के बाद ही टेलीफोन अंत: अवरोध किये गये। राज्य सरकार के गृह विभाग का यह जवाब भाजपा विधायक कालीचरण सर्राफ के प्रश्न पर था कि क्या यह सही है कि विगत दिवसों में फोन टेपिंग के विवाद सामने आये हैं?

प्रतिपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया का कहना था कि सरकार के मुख्य सचेतक महेश जोशी ने एक एफआईआर दर्ज करवायी थी, उसका आधार फोन टेपिंग ही था। नतीजतन तय हो गया कि सरकार ने किसी एजेंसी से फोन टेपिंग करवायी। सरकार को बताना चाहिए कि किस आधार से किन-किन लोगों के फोन टेप करवाये? जिस प्रसंग में मुक़दमा दर्ज हुआ, उसमें सक्षम स्तर पर अनुमति लेकर फोन टेप हुआ या नहीं? हम जानना चाहते हैं कि मुख्य सचेतक ने जो एफआईआर दर्ज करवायी थी, क्या उसका आधार फोन टेपिंग ही था? मुख्यमंत्री गहलोत का कहना है कि राजस्थान में अवैध तरीक़े से विधायकों के फोन टेप कराने की कोई परम्परा ही नहीं रही और न ही यहाँ ऐसा हुआ। उधर सरकार के संसदीय मंत्री शान्ति धारीवाल ने दो-टूक शब्दों में कह दिया कि एक सुबूत ला मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री ही नहीं, हम सब इस्तीफ़ा दे देंगे।