दिल्ली विधानसभा चुनावों में ‘आप’ पार्टी की जीत को लेकर राजनीतिक विश्लेषक बेशक यह कहते नहीं अघाते कि यह चुनाव देश के भावी चुनावों की नज़ीर बनेंगे। लेकिन इसके साथ ही सांकेतिक भाषा में नसीहत भी चस्पा करते हैं कि लोकतंत्र में सरकार को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकार से नहीं। इसकी वजह साफ है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल की सजगता से उनके दफ्तरी बाबू अपने स्वार्थी और आत्मकेंद्रित खोल में छिपे नहीं रह सके। बहरहाल ‘सेवा की मेवा’ के नाम पर फतह का झंडा बुलंद करने वाली इस जीत ने जनता की उम्मीदों को रौंदने वाले नेताओं को उनकी सरहदों का अहसास करा दिया है कि उन्हें इतिहास से कुछ गुफ्तगू कर लेनी चाहिए कि जनता को उनकी गर्वीली ज़ुबान की ज़रूरत नहीं है। बल्कि नयी सोच विकसित करने की ज़रूरत है कि किसी भी समस्या से तभी निजात पायी जा सकती है, जब समाधान सिर्फ एक बार लागू होने वाली योजना में निहित हो। वरिष्ठ पत्रकार अधिरंजन कोठारी मौज़ूदा संदर्भ में राजस्थान की सरकार के ‘कलह चक्र’ को लक्ष्यित करने से नहीं चूकते कि हर रोज़ कोई-न-कोई घटनाक्रम लोगों के दिलों में कड़वाहट घोल जाता है। फिर यह धुआँ लोगों के बीच से घटाटोप में उमडऩे लगता है। अभिरंजन कहते हैं कि जब असहमतियों के बीच भी सार्थक संवादों की भाषा गढ़ी जा सकती है, तो फिर अप्रिय तथ्यों की नुमाइश क्यों?
मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि सरकार का काम विभागीय भूल भुलैया में न फँसा रहकर सभी की निगहबानी का मरकज़ बना रहे, तो विकास के नये मानक गढ़े जा सकते हैं।’ प्रसंगवश यहाँ एसएमएस अस्पताल के हार्ट ट्रांसप्लांट यूनिट के लोकार्पण की घटना का मुज़ाहिरा करना तर्कसंगत होगा। इस मौके पर नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने उँगली वहीं रखी, जहाँ दर्द था। सुझाव देते हुए धारीवाल ने कहा था कि हर विभाग का अलग ब्लॉक होना चाहिए, जहाँ एक छत के नीचे सभी सुविधाएँ मिलें। ज़ाहिर है धारीवाल ने तालियाँ बटोरीं, तो मुख्यमंत्री की तारीफ के हकदार भी बने कि अच्छा मंत्री वही होता है, जो हर विभाग पर नज़र रखे। लेकिन सवाल यह है कि ऐसी दूरंदेशी सरकार के सभी मंत्रियों में क्यों नहीं है? क्यों सत्ता के आवरण के पीछे छिपी गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने की बजाय ब्यूरोक्रेसी पर नज़ला उतारा जा रहा है? ब्यूरोक्रेसी को कोसने की कसमसाहट के बीच क्या इस बात पर भरोसा करना आसान होगा कि 52 लाख टन भारी पहाड़ का आधा हिस्सा खनन माफिया चुरा ले गये और मंत्री बेखबर बने रहे। चोरी की यह अजब-गज़ब घटना राजस्थान सचिवालय से महज़ 50 किलोमीटर दूर जोबनेर स्थित आसलपुर की खदानों में हुई। हालाँकि चोरी का तथ्यगत इतिहास उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह एक कहना सच है कि वर्ष 2003 में शिखर सरीखा दिखने वाला पहाड़ 2019 में सिर्फ ठूँठ रह गया है । पहाड़ों की चौकीदारी करने वाले खनन महकमे के सामने ही रॉयल्टी की चोरी का खेल निर्विघ्न चलता रहा। लेकिन 200 करोड़ की पैनाल्टी वसूल करना तो दूर महकमा 20 करोड़ की रॉयल्टी भी नहीं ले पाया? जब प्रदेश की भूगर्भ सम्पदा की ताकत छीज रही थी और खनन का वैभव लुप्त हो रहा था, तो महकमे के सीनियर इंजीनियर महेश माथुर पूरी तरह निॢलप्त थे। उनका कहना था कि मेरे पास तो ऐसी कोई शिकायत ही नहीं आयी? उधर चंबल नदी और वन महकमे के तहत आने वाले इलाकों से हर साल करोड़ों का अवैध खनन और कारोबार हो रहा है। क्या इस खेल से महकमे के मंत्री बेखबर रह सकते हैं? भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के एएसपी चंद्रशील ठाकुर कहते हैं कि इतना खुल्लम-खुल्ला सब कुछ चल रहा है; क्या बिना मिलीभगत के सब कुछ सम्भव है? महकमे के अफसर एसएन सारस्वत कितनी मासूमियत से कहते हैं कि मुझे तो कभी कोई शिकायत मिली ही नहीं? खनन की इतनी बड़ी डकैती के बावजूद कैसे भरोसा किया जाए कि खान मंत्री प्रमोद भाया की नज़र से सब कुछ छिपा रहा? क्या इसके लिए भी ब्यूरोक्रेसी ज़िम्मेदार है? फिर भी खनन मंत्री की बेचारगी का ट्वीट गौर फरमाएँ, जो कहते हैं कि मैंने महसूस किया कि राज्य में सरकार बदल जाने के बावजूद ब्यूरोक्रेसी की कार्यशैली में कोई तब्दीली नहीं आयी। विश्लेषकों का कहना है कि राजस्थान में फैसला करने वालों और उससे प्रभावित होने वालों के बीच फासला हद से ज़्यादा बढ़ चुका है। नतीजतन अपनी ज़िम्मेदारी भूलकर ब्यूरोक्रेसी पर दोष मढऩे लगे हैं। इस मुकाम पर रसद महकमे के मंत्री रमेश मीणा की तथाकथित तड़प भी गौरतलब है कि ब्यूरोक्रेट्स कार्यकर्ताओं की नहीं सुन रहे, प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी हावी है। मीणा के तथाकथित दर्द को लेकर मीडिया विश्लेषक कहते हैं कि क्या अब मंत्रियों की हैसियत कैबिनेट में 12वें खिलाड़ी सरीखी रह गयी है? विश्लेषकों का कहना है कि बुराई का ठीकरा ब्यूरोक्रेसी के सिर पर फोडऩे वाले मंत्री मीणा रसद घोटाले से कैसे बेखबर रहे, जिसमें 6.50 करोड़ का गेहँू अफसर हज़म कर गये। इस गेहूँ का उठाव कागज़ों में ही राशन डीलरों तक पहुँचा। लेकिन न तो यह गेहूँ डीलरों को मिला और न ही उपभोक्ताओं को। उधर एक तरफ ब्यूरोक्रेसी को कोसने वाले राजस्थान सरकार के मंत्री हैं, तो दूसरी तरफ दिल्ली सरकार का नया चेहरा है, जो अपने नये कार्यकाल में राशन उपभोक्ताओं की दहलीज़ तक पहुँचाने का बंदोबस्त कर रही है। राजस्थान के सहकारी मंत्री आंजना भी कहते हैं कि अफसर मेरी सुनते ही नहीं? क्या इसीलिए सहकारिता सोसायटियों में 16 हज़ार करोड़ की कालिख उनकी निगाह में नहीं आयी। अभी भी पड़ताल की प्रकिया में दब्बू तो आंजना ही है। दिलचस्प बात है कि ब्यूरोक्रेसी के िखलाफ शिकायती लहज़ा लिये क्रमश: पर्यटन मंत्री, विश्वेन्द्र सिंह, रमेश मीणा, प्रमोद भाया, सहकारिता मंत्री आंजना, राज्य मंत्री भजन लाल और परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास सभी मंत्री सरकार के दूसरे ‘पॉवर सेंटर’ पायलट की छतरी की नीचे खड़े हैं। लिहाज़ा उनकी शिकवा-शिकायत के हकीकत को कैसे कुबूल किया जाए? विश्लेषक कहते हैं कि सियासत के इस मौज़ूदा परिदृश्य में केजरीवाल लोगों की पहली पसन्द बनकर उभरे हैं और उन्होंने भाजपा की पारम्परिक सियासत को बैचेन कर दिया है। क्या केजरीवाल की शासन शैली राजस्थान की कांग्रेस सरकार को गवर्नेंस की नयी लकीर खींचने को प्रेरित नहीं कर सकती? क्या राजस्थान के नायब मुख्यमंत्री पायलट अपने बेचैन मंसूबों से पीछे नहीं हट सकते? आिखर सबक तो उनको ही लेना है।
कहते हैं कि बदलावों की साख तब बनती है, जब बदलाव करने वाले उस परिवर्तन का हिस्सा बन जाएँ। अरविंद केजरीवाल ने शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए बजट का बड़ा हिस्सा महफूज़ किया। दिल्ली सरकार हर परिवार पर सेहत की नेमत पर हर रोज़ 50 रुपये खर्च कर रही थी। मुफ्त और सस्ती बिजली-पानी उनका ‘मास्टर स्ट्रोक’ था। सबसे बड़ी बात थी कि दिल्ली सरकार मुफ्त सुविधाएँ देने के बावजूद अपना राजस्व बढ़ा रही थी। जबकि दिलचस्प बात है कि दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य और शिक्षा योजनाएँ गहलोत सरकार के पिछले कार्यकाल की फ्लेगशिप योजनाओंं’ से प्रेरित है। गहलोत सरकार ने अपने मौज़ूदा कार्यकाल में न सिर्फ इन योजनाओं को दोहराया है, बल्कि इनमेें एक नयी उम्मीद पैदा की है। नीरोगी राजस्थान के योजना लॉन्च कर चुकी गहलोत सरकार इस बजट सत्र में ‘राइट टू हैल्थ’ बिल लाने जा रही है। बड़ी बात है कि ऐसा विधेयक लाने वाला राजस्थान पहला राज्य होगा जहाँ ‘राइट टू हैल्थ’ को कानूनी तौर पर लागू किया जाएगा। लेकिन राजस्थान में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और उप मुख्यमत्री मनीष सिसोदिया सरीखा तालमेल है कहाँ? नतीजतन राजस्थान में समावेशी सरकार गढऩे की बजाय हर कदम पर ‘रस्साकशी’ का खेल खेला जा रहा है। ऐसे में सुधारों की टाइमिंग नहीं बिगड़ेगी तो क्या होगा? मीडिया विश्लेषक नवीन जोशी कहते हैं कि अजीब नज़ारा है? मुख्यमंत्री गहलोत की उँगलियाँ विकास की नब्ज़ पर दौड़ रही है। उधर उप मुख्यमंत्री पायलट मुरादों और मंज़िलों के बीच कँटीले रिश्ते खोजकर सरकार को बदहवास करने पर तुले हैं। राजनीति के विश्लेषकों का कहना है कि आिखर क्यों योजनाओं के तर्क और नतीजों का ज़िक्र नहीं हो पाता। गहलोत सरकार को विकासवाद की उम्मीदों का वोट मिला था। लेकिन इन कारकों को सियासी संगति और संयोग मुहैया ही नहीं हो सका? नायब मुख्यमंत्री पायलट सरकार की किसी भी योजना से इत्तेफाक नहीं रखते। नतीजतन मंत्रियों और ब्यूरोकेसी के बीच कोई गर्मजोशी ही नहीं है। मंत्रियों का प्रलाप ही नहीं थमता कि अफसर हमारी सुनते ही नहीं? सुधारों के प्रयोग ज़मीन पकड़ सकें? इसके लिए राजनीतिक नियुक्तियाँ मुफीद है। लेकिन पायलट की असहमति हर जगह आड़े आ जाती है। प्रतिपक्ष को बखूबी लतियाने का मौका मिल जाता है कि सरकार दो शक्ति केंद्रों में बँटी हुई है। दिल्ली के चुनावों ने तो जनता को ज़्यादा जिज्ञासु बना दिया है। क्या इस नयी सियासी िफज़ाँ में पायलट अपने मिजाज़ में तब्दीली ला पाएँगे? लेकिन मौज़ूदा दौर में भी पायलट अहंकारी भाषा छोडऩे को तैयार नहीं कि हम सही, बाकी सब गलत! सरकार में शामिल मंत्रियों को वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी के इस सवाल पर आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या वे जनता में भरोसा जगा पाये हैं? ‘आप’ की जीत ने एक कद्दावर उक्ति को गलत साबित कर दिया कि सरकारों के समाधान अक्सर समस्याओं को बढ़ा देते हैं। लेकिन प्रश्न है कि क्या कभी राजस्थान की मरुस्थलीय राजनीति में ऐसी दीवानगी देखी जा सकेगी? शायद नहीं! पत्रकार समीर शर्मा कहते हैं कि विधायिका और कार्यपालिका के बीच अंदरूनी खींचतान बनी रहेगी, तो संवाद के मौके कहाँ बचेंगे? सस्ती बिजली अरविंद केजरीवाल का मास्टर स्ट्रोक है। लेकिन गहलोत सरकार ने राजस्थान में 20 लाख बिजली उपभोक्ताओं पर 5 पैसे प्रति यूनिट का अतिरिक्त सरचार्ज डाल दिया? हालाँकि यह पूर्व सरकार की देनदारी है। लेकिन सवाल है कि जनता क्यों भुगते?
विश्लेषकों का कहना है कि दिल्ली के चुनावी नतीजों को लेकर जिस तरह कांग्रेस के महारथियों के असमंजस की गिरह खुलने लगी है राजस्थान समेत सभी कांग्रेस शासित राज्यों के लिए इसमें पारदर्शिता अपनाने का आग्रह भी छिपा है। इस लिहाज़ से कांग्रेस के दिग्गज नेता जयराम रमेश, वीरप्पा मोईली और ज्योतिरादित्य सिंधिया की बेखुदी बेसबब नहीं कि अब विश्लेषण नहीं एक्शन नहीं चाहिए। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कह दिया कि पार्टी नेतृत्व को मूल आधार और शैली को बदलना ही होगा। मीडिया विश्लेषक देवेन्द्र गौतम कहते हैं कि अब पायलट भी समय रहते समझ जाएँ, तो बेहतर है।