बिहार की आईएएस बिरादरी में एक किस्सा सुनने को मिलता है. साठ के दशक की बात है. यशवंत सिन्हा प्रशासनिक सेवा में नए-नए भर्ती हुए थे. राजधानी पटना में उनकी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा के साथ बैठक में किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई. यशवंत सिन्हा ने मुख्यमंत्री महोदय को टका सा जवाब दिया, ‘आप चाहकर भी कभी आईएएस नहीं बन सकते, मैं मुख्यमंत्री जरूर बन सकता हूं.’ सिन्हा का प्रतिरोधी व्यक्तित्व आज भी कायम है. झारखंड में राज्यसभा के टिकटों के बंटवारे का विरोध हो या हाल ही में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला, जिसके चलते राजनाथ सिंह की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई. जब नेता पार्टीलाइन के दाएं-बाएं जाने से भी कतराते हैं तब इस तरह का गुण उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता है. एनडीए के शासनकाल में वित्तमंत्री के तौर पर उन्होंने अपनी छाप छोड़ी थी. अगर जीडीपी का प्रतिशत किसी नेता की सफलता का पैमाना है तो सिन्हा सफलतम हैं. एनडीए के पूरे शासनकाल में विकास की रफ्तार आठ प्रतिशत के आस-पास बनी रही. विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कई मौकों पर जिस तरह से मौजूदा केंद्र सरकार को संसद भवन में कटघरे में खड़ा किया है वह उन्हें उन राजनेताओं की कतार में शामिल करने के लिए पर्याप्त है जिनसे यह देश उम्मीदें बांध सकता है. भारतीय जनता पार्टी के 76 वर्षीय वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रिय मंत्री यशवंत सिन्हा से अतुल चौरसिया की बातचीत
राजनेताओं की विश्वसनीयता इतनी नीचे क्यों गिर गई है?
इसकी कई वजहें हैं. अगर आप देश के राजनीतिक इतिहास को देखें तो आजादी के बाद जिन लोगों ने राजनीति की कमान संभाली थी वे सिर्फ देश की सेवा के लिए राजनीति में आए थे. उन्हें सत्ता का लोभ नहीं था, वे तपे-तपाए, विद्वान लोग थे. हम सब उनके सामने बहुत तुच्छ हैं. इसके बाद जो पीढ़ी आई उसमें सत्ता से फायदा लेते हुए देश का भला करने की मानसिकता थी. नेताओं के बेटे बेटियां भी राजनीति में आने लगे. इन्हें सत्ता के फायदे का अंदाजा हो गया था. उन्हें सत्ता में बने रहना जरूरी लगने लगा. इसके लिए वे तमाम गलत तरीके भी अपनाने लगे. पैसे और बाहुबल का असर तेजी से इस दौरान चुनावों में बढ़ा. अब हम तीसरे चरण में हैं जहां राजनीति सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति और सत्ता के लालच में करने वालों के लिए रह गई है. पहले राजनीति पथभ्रष्ट हुई, उसके बाद वह भ्रष्ट हुई और अब इसका अपराधीकरण हो गया है.
हम देख रहे हैं कि आज हर महीने-दो महीने में जनता इंडिया गेट, राजपथ, जंतर-मंतर पर पहुंच जा रही है. वह अब आश्वासनों पर यकीन करने को तैयार नहीं है. तो क्या यह राजनेताओं के लिए अपने अंदर झांकने का और आत्ममंथन करने का समय है?
राजनीति को लेकर जो अविश्वास है उसकी वजह से युवा राजनीति की तरफ नहीं आ रहे हैं. परिवार और खानदान के दम पर ज्यादा लोग राजनीति में आ रहे हैं, इसलिए जनता से एक कटाव हो सकता है. लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है. मेरा मानना है कि 35 से 50 वर्ष के बीच दूसरे क्षेत्रों के लोग अगर राजनीति में आए तो उनका अनुभव देश के भी काम आएगा और उनके भी काम आएगा राजनीति में. कहने का मतलब कि सिर्फ परिवार के आधार पर राजनीति में एंट्री नहीं होनी चाहिए. जो भी नए चेहरे आ रहे हैं वे सब परिवार के हैं. यह गलत है. वे संघर्ष करके नहीं आ रहे हैं. मैं अपना उदाहरण दूं कि जब मैं कलेक्टर था तो सारे नीचे के अधिकारी सम्मान करते थे और जब मैंने आईएएस छोड़कर राजनीति करना शुरू किया तो उन्हीं अधिकारियों के सामने जाकर गिड़गिड़ाना पड़ता था. तो इन चीजों से एक सीख मिलती है, अपनी मानसिकता में उस तरह का बदलाव करना पड़ता है. देश-समाज और भाषा को समझने में आसानी होती है.
अगर मैं बिंदुवार पूछूं तो नेताओं और जनता को बदलाव के लिए क्या-क्या करना चाहिए ताकि दोनों का विश्वास बहाल हो?
नेताओं की तरफ से पहला कदम चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए उठाना होगा. इसकी पहली कड़ी है पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता. हमारे यहां राजनीतिक पार्टियों को जो चंदा मिलता है उसमें पारदर्शिता नहीं है. अगर यह पारदर्शी हो गया तो भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगेगा. हमें एक लाइन खींचनी पड़ेगी. चुनाव जीतने के लिए सिर्फ पैसा ही आज पैमाना बन गया है. इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. चुनाव आयोग इसकी भी सीमा तय करे और उसका कड़ाई से पालन करवाए. टीएन शेषन जब चुनाव आयुक्त थे तब उन्होंने इस दिशा में बहुत अच्छी पहल की थी. यहां से शुरुआत करके हम धनबल पर भी अंकुश लगा सकते हैं. साथ ही हमें चुनाव जीतने के लिए असामाजिक तत्वों का सहारा नहीं लेना है, शराब और मुर्गा वोट पाने के लिए नहीं बंटवाना है. इन सुधारों से राजनेताओं को बहुत सहूलियत होगी और उनकी छवि भी सुधरेगी. आज जो हम सुनते हैं कि लोग 25 से 50 करोड़ रुपया लगाते हैं चुनाव जीतने के लिए. हमारे जैसे लोगों को यह बड़ी अजीब बात लगती है. 2009 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान मेरे सामने अजीब हालात पैदा हो गए. एक महिला ने वोट के बदले में पैसा मांग लिया. मैंने कहा पैसा तो नहीं दूंगा तो उसका जवाब था कि तब वोट भी नहीं मिलेगा.
हाल के समय में जनता का इतना व्यापक प्रतिरोध क्यों देखने को मिल रहा है.
जनता का विश्वास उठ गया है. उन्हें लगता है कि डायरेक्ट एक्शन ही एकमात्र तरीका है अपना काम करवाने का. पिछले हफ्ते मैं रांची जा रहा था. धुंध की वजह से हमारा जहाज रांची नहीं उतर सका. हमें कोलकाता ले जाया गया. अब सारे यात्री प्लेन के क्रू पर टूट पड़े कि हम अपने घर कैसे जाएंगे. जबकि उन्हें पता था कि एयर होस्टेस इस मामले में कुछ नहीं कर सकती है. पर जनता के मन में ये बात घर कर गई है कि हर चीज लड़कर ही मिल सकती है. बाद में लोग हमारे पास आ गए कि आप रास्ता निकालिए. हमने प्लेन के अधिकारियों से बात करके यात्रियों को बस से उनके गंतव्य तक पहुंचाने का रास्ता निकाला. इससे मैंने भी यह सीख ली कि अगर आप उस स्थिति में है तो जनता भले ही निराश है लेकिन फिर भी वह उम्मीद करती हंै कि नेता हमारी समस्या का समाधान करेगा. हमें इस उम्मीद को मजबूत करना है. यह अलग समय है. लोगों के पास सूचना का भंडार है. वे देख रहे हैं कि उसकी जरूरतें पूरी हो नहीं रही हैं. इसलिए जनता और नेता के बीच ये टकराव देखने को मिल रहा है. लेकिन यह बात सभी नेताओं पर लागू नहीं होती.
आज के नेता जनता से इतना कटे हुए क्यों हैं. हमने यह कमी दिल्ली रेप कांड के बाद बहुत शिद्दत से महसूस की.
मास लीडर वाली इज्जत तो समाप्त हो गई है. महात्मा गांधी, नेहरू या पटेलजी गए होते तो जनता उनकी बात मान लेती पर आज वह विश्वास खत्म हो गया है. आज नेता भी डरने लगे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि हम जाएं और वे हमें बेइज्जत कर दें, जैसा शीला दीक्षित के साथ हुआ. राजनेताओं के मन में वह आत्मविश्वास बचा नहीं है. जनता का सामना करने की क्षमता कम हो गई है. एक समस्या ये है कि लोग भी ये घोषित कर देते हैं कि किसी आयोजन में कोई नेता हिस्सा नहीं लेगा. जैसा कि हमने अन्ना के आंदोलन में देखा. इससे नेता डरने लगता है कि कहीं हमारा मजाक न उड़ जाए. यह कहना सही नहीं होगा कि नेता जनता से कट गए हैं. आखिर चुनाव के समय उन्हें उनके पास जाना ही होगा.
युवा नेताओं में कौन आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करता है…
बहुत-से युवा नेता हैं जो आगे अच्छा कर सकते हैं. हालांकि उनमें से कई लोग परिवार की बदौलत ही राजनीति में आए हैं लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है, अगर वे चुनाव लड़कर राजनीति में आए हैं तो ठीक है. कई लोग कांग्रेस सरकार में मंत्री हैं. कांग्रेस में ऐसे कई लोग हैं जो आज मंत्री हैं और ठीक काम कर रहे हैं. हमारे यहां शाहनवाज है जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है, अनुराग ठाकुर हैं जो हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र हैं, उदय सिंह हैं जो पुनिया के सांसद हैं. ये लोग काफी प्रतिभावान हैं, निशिकांत दुबे हैं.
पार्टीलाइन से अलग हटना या स्वतंत्र सोच रखना किसी नेता के लिए कितना जरूरी है?
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है. जहां भी मैं रहा हूं वहां मैंने सही बात पर खड़े होने की कोशिश की है. चाहे वो मेरा सिविल सर्विस का समय रहा हो या आज राजनीति में. मुझे लगा कि राज्यसभा सीट के बंटवारे में पारदर्शिता नहीं है तो मैंने पार्टी में विरोध किया. इसी तरह मैंने अपने अध्यक्ष जी के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप पर भी एक स्टैंड लिया था. सन 1965 में बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से मैंने कहा था कि आप कभी आईएएस नहीं बन सकते लेकिन मैं मुख्यमंत्री बन सकता हूं. यह बिहार के आईएएस सर्किल में दंतकथा बन गई है. मैंने उसकी कीमत भी चुकाई. लेकिन अपनी बात बेबाकी से रखना एक नेता के लिए बहुत जरूरी है. यहां आकर भी अगर हम किसी की नौकरी ही कर रहे हैं तो क्या फायदा. स्वतंत्र रूप से, स्वतंत्र मस्तिष्क से काम करना नेताओं के लिए जरूरी है. आज ज्यादातर पार्टियों में इस तरह की सहनशीलता नहीं बची है. पर इस तरह की संस्कृति बढ़नी चाहिए राजनीतिक दलों में.
क्या राजनेता मौजूदा आईटी एजुकेटेड पीढ़ी से तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं?
यह सिर्फ इंटरनेट या फेसबुक इस्तेमाल करने वालों के साथ नहीं है. हमारा निर्वाचन क्षेत्र पिछड़ा इलाका है लेकिन वहां भी लोग उतने ही जागरूक और ताकतवर हुए हैं. पुरुषों से कहीं ज्यादा हिम्मत वहां महिलाएं दिखाती हैं. वे हमसे सीधे पूछ लेती हैं कि आपने फलां काम क्यों नहीं करवाया, हमें जवाब देना पड़ता है. वे डांट देती हैं. जागृति वहां भी आई है. यह जागृति सिर्फ आईटी एजुकेटेड वर्ग तक सीमित नहीं है.