भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने ऑर आतंक फैलाने के आरोपित जरनैल सिंह भिंडरावाले को शहीद का दर्जा देना. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या करने वाले बलवंत सिंह राजौना को जिंदा शहीद का दर्जा देना, और अब ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान स्वर्ण मंदिर में मारे गए लोगों, जिनमें वे भी शामिल हैं जिन्हें सरकार आतंकवादी का दर्जा देती है, की याद में उसी परिसर में स्मारक का निर्माण करवाना.
पंजाब में हाल के दिनों में कुछ घटनाएं दर्ज की गईं जो ऊपर से देखने में धार्मिक रूप से बेहद संवेदनशील लगती हैं लेकिन गहरी परतों में इनके अब कई राजनीतिक कोण निकलते दिख रहे हैं. सबसे ताजा मामला स्वर्ण मंदिर परिसर में स्मारक बनवाने का है. बाकी मामलों की तरह स्मारक बनवाने के लिए सैद्धांतिक रूप से शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) ही मुहिम चला रही थी और इस मसले पर राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस, भाजपा और अकाली दल बयानबाजी से बच रही थीं.
लेकिन धीरे-धीरे यह मसला मीडिया में आने और इसपर से धार्मिक संवेदनशीलता का मुलम्मा कुछ फीका पड़ने के साथ ही पार्टियों ने अपनी राय जतानी शुरू कर दी. कांग्रेस ने जहां इस घटना कड़ी निंदा की वहीं भाजपा ने भी अपनी सहयोगी पार्टी अकाली दल के सामने नाराजगी व्यक्त कर दी. इस मसले का सबसे दिलचस्प पहलू है अकाली दल की चुप्पी. राज्य में कभी पंथिक मामलों की सबसे बड़ी झंडाबरदार रही इस पार्टी ने मीडिया में बस इतना ही कहा कि पार्टी या सरकार का स्वर्ण मंदिर परिसर में स्मारक के निर्माण से कुछ भी लेना-देना नहीं है और यह काम एसजीपीसी कर रही है.जानकार अकाली दल की इस चुप्पी में गहरी राजनीतिक समझ देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से पंजाब में जो कुछ हो रहा है वह एक बेहद सोची समझी राजनीति का हिस्सा है. ऐसा माना जा रहा है कि अकाली दल अपनी राजनीति को पुनर्स्थापित और पुनर्परिभाषित कर रहा है.
पिछले चुनावों में अकाली दल ने विकास और सुशासन को अपना चुनावी नारा बनाया था. इसी के दम पर चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत दर्ज की. इसके बीच में एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि अकाली दल जो एक पंथिक पार्टी हुआ करती थी उसने अपने पंथिक चेहरे से जाने अनजाने में दूरी बना ली. लेकिन चुनाव के बाद ऐसा कहा जा रहा था कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल राज्य में फिर से अपनी सरकार बनने से खुश तो थे लेकिन पार्टी के उन नेताओं को नहीं समझा पा रहे थे जो अकाली दल के पंथिक मामले को पीछे छोड़ दिए जाने से कुछ नाराज हैं. इन नेताओं का कहना है कि इस चुनाव के बाद सिखों में यह संदेश जा रहा है कि पार्टी पंथिक मामलों पर अब लड़ाई से किनारा कर रही है. पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह भी अकालियों की इस चिंता से इत्तेफाक रखते हैं, ‘ अकाली दल की जड़ ही पंथिक है. ऐसे में ये उसके अस्तित्व का हिस्सा है. वे कैसे इन सबसे अपने को बहुत अधिक समय तक दूर रख सकते हैं?’ सूत्र बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व के सामने ये सारी बातें रखी गईं. इनमें कहा गया कि पार्टी वोटर इस बात से खुश तो हैं कि उनकी पार्टी चुनाव जीत गई लेकिन एक बड़ा तबका पार्टी के अपने इतिहास,जड़ और छवि के साथ समझौता करने से खिन्न है. इसी फीडबैक के आधार पर पार्टी ने एक नया तरीका निकाला. एक नई रणनीति बनाई और उसी का प्रभाव सामने दिखाई दे रहा है.
जानकार बताते हैं कि पार्टी ने तीन स्तरों पर काम करना शुरू किया है. एक तरफ वह विकास और सुशासन पर फोकस कर रही है तो दूसरी तरफ उसका ध्यान खुद को पंथिक मोर्चे पर मजबूत करने की तरफ भी है. पंथ से जुड़े मामलों पर उसने एसजीपीसी को सक्रिय कर रखा है और सभी मसलों पर नर्म रुख अपनाने की रणनीति अपनाई है. अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में बन रहे स्मारक पर अकाली दल का रुख यही रणनीति है. तीसरी तरफ उसने बाकी तबकों को पार्टी से जोड़ने की मुहिम छेड़ रखी है जो परंपरागत तौर पर पार्टी के वोटर नहीं रहे हैं. इसमें हिंदू और शहरी क्षेत्र के अन्य लोग आदि शामिल हैं. इस तरह अकाली दल एक नए मॉडल पर काम कर रहा है जिससे सबको साधा जा सके. जो विकास और सुशासन चाहते हैं उनको भी और जो कट्टरपंथी हैं उन्हें भी. अकाली दल की इस रणनीति का फायदा उसे मिलता भी दिख रहा है. यह दल हाल ही हुए नगर निकायों के चुनावों में उम्मीद के विपरीत शहरी क्षेत्रों में सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है. अकाली दल को ग्रामीण क्षेत्र की पार्टी माना जाता रहा है लेकिन इन चुनावों ने इस धारणा को भी तोड़ दिया.
पिछले विधानसभा चुनावों में कई हिंदू उम्मीदवारों को टिकट देकर अकाली दल ने खुद को उदारवादी सांचे में ढालने की कोशिश की थी और वे इसमें खासे सफल भी रहे. लेकिन अब वे एक नई रणनीति और नरम रुख के साथ वापस पंथिक मसलों की ओर मुड़ते दिख रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक मानते हैं कि अकाली दल के पास पंथिक मामले छोड़ना सबसे जोखिम भरी राह है. वे कहते हैं,’ अकाली इस बात को जानते हैं कि वे चाहें जितना भी विकास और सुशासन का नारा लगा लें लेकिन अगर उन्होंने अपना पंथिक एजेंडा छोड़ा तो वे बचेंगे नहीं. यही कारण है कि वे पिछले कुछ समय में इसको लेकर फिर अति सक्रिय दिख रहे हैं.’