झारखण्ड में उठे 1932 खतियान और ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण के मुद्दे
झारखण्ड में पिछले एक-दो महीने से राजनीतिक शतरंज की बिसात बिछी हुई है। इसे खेलने वाले राजनीतिक दल हैं। जनता इसका मोहरा है, जिसे राजनीतिक दल अपने हिसाब से चल रहे हैं। एक तरफ़ ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कुर्सी हिलडुल रही है, तो दूसरी तरफ़ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की जाँच में हर दिन नये ख़ुलासे हो रहे हैं।
इस ख़ुलासे की आँच में नेता, नौकरशाह और इनके क़रीबी अन्य लोग झुलस रहे हैं। विकास की गति धीमी है। इस अनिश्चितता के बीच हर दल अपने वोट बैंक को मज़बूत करने में जुटा है। राजनीतिक लाभ के लिए गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे। हेमंत सरकार कैबिनेट ताबड़तोड़ निर्णय ले रही है। इन्हीं में से एक निर्णय सन् 1932 के खतियान पर स्थानीयता और दूसरी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण है। दोनों ही मुद्दे राज्य के लिए गम्भीर हैं। इतिहास गवाह है कि पिछले 22 साल में जब-जब इन मुद्दों को छेड़ा गया, झारखण्ड को झुलसना पड़ा है। इसके बावजूद राज्य में एक बार फिर स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण का राजनीतिक जिन्न निकल आया है। अबकी बार किस दिशा में जाएगा? यह तो आने वाला वक़्त बताएगा। फ़िलहाल राज्य की राजनीतिक सरगर्मी तेज़ है।
22 साल बाद भी नागरिकता का सवाल
कहते हैं राजनीति में मुर्दे कभी मरते नहीं हैं। उन्हें कभी भी उखाडक़र उपयोग में लाया जा सकता है। ऐसा ही राज्य के कुछ मुद्दे हैं, जिन पर राजनीति होती रहती है। बिहार से अलग होकर झारखण्ड राज्य का गठन के सन् 2000 में हुआ था। राज्य गठन के 22 साल बाद आज भी अहम सवाल है कि झारखण्डी कौन? यानी यहाँ के स्थानीय निवासी कौन हैं?
यह मसला राज्य की राजनीति का केंद्र बिन्दु है। इस मुद्दे पर मिट्टी डालने की जगह हर दल समय-समय पर गड़े मुर्दे को उखाडक़र राजनीति करता रहा है। राज्य गठन के बाद भाजपा के बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में पहली सरकार बनी। उनकी सरकार ने साल 2002 में राज्य की डोमिसाइल नीति घोषित की। इसके तहत भी सन् 1932 के सर्वे सेटलमेंट को स्थानीयता का आधार माना गया था, जिसके बाद हिंसा भडक़ गयी। उस हिंसा में छ: लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी। बाद के दिनों में बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडऩी पड़ी थी। झारखण्ड उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वी.के. गुप्ता, न्यायमूर्ति गुरुशरण शर्मा, न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय, न्यायमूर्ति एल. उरांव और न्यायमूर्ति एम.वाई. इकबाल की खंडपीठ ने इससे सम्बन्धित जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सरकार के इस निर्णय पर तत्काल रोक लगा दी थी। इसके बाद भाजपा नेता अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने। उन्होंने स्थानीय नीति तय करने के लिए तीन सदस्यीय समिति बना दी। समिति ने अपनी रिपोर्ट भी दी; लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ा। भाजपा के रघुवर दास 2014 में मुख्यमंत्री बने। रघुवर दास ने स्थानीय नीति को परिभाषित कर घोषित किया, जिसमें कई तरह के प्रावधान करते हुए सन् 1985 के समय से राज्य में रहने वालों को स्थानीय माना गया। उसका थोड़ा-बहुत विरोध हुआ; लेकिन लागू हो गया। राज्य में वर्तमान में यही नीति लागू है। झामुमो के नेतृत्व में सन् 2019 में सरकार बनी। ढाई साल बाद सरकार ने संकट के दिनों में इस मुद्दे को फिर से छेड़ दिया है।
हर दिन बढ़ रही हेमंत की मुसीबत
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में फँसे हुए हैं। राज्यपाल रमेश बैस ने चुनाव आयोग से अनुशंसा लेने के बाद भी अभी तक फ़ैसला नहीं सुनाया है। पिछले महीने 25 अगस्त से राज्यपाल के फ़ैसले का इंतज़ार किया जा रहा है। राज्यपाल क्यों फ़ैसला नहीं कर रहे, इसकी अधिकारिक जानकारी किसी के पास नहीं है। चर्चा है कि भाजपा सटीक समय का इंतज़ार कर रही है, इसलिए राज्यपाल रुके हैं। उधर खनन और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में ईडी की कार्रवाई अलग चल रही है। मुख्यमंत्री के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा ईडी की हिरासत में हैं।
ईडी ने पंकज मिश्रा पर दाख़िल चार्जशीट में कहा है कि मिश्रा के यहाँ छापेमारी में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का एक बैंक पासबुक और चेकबुक के मिलने से राजनीतिक गलियारे में हलचल मच गयी है। मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार अभिषेक प्रसाद को कई बार पूछताछ की जा चुकी है। इसके अलावा बच्चू यादव, अभिषेक झा, प्रेम प्रकाश समेत कई अन्य लोग, जिनकी नेताओं और ब्यूरोक्रेसी के साथ संदिग्ध साँठगाँठ है; ईडी उनसे पूछताछ कर रही। हर दिन नये-नये ख़ुलासे हो रहे हैं। हेमंत सोरेन के ख़िलाफ़ इन सभी मामलों को लेकर कोर्ट में अलग से पीआईएल पर सुनवाई चल रही है। हर दिन उनकी मुसीबत बढ़ रही।
मुसीबत के बीच बड़ा दाँव
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ख़ुद पर आयी मुसीबत के बीच बड़ा दाँव खेल दिया है। उन्होंने मंत्रिमंडल से सन् 1932 खतियान वालों को स्थानीयता और पिछड़ा वर्ग को 27 फ़ीसदी आरक्षण से सम्बन्धित विधेयक पारित कर दिया है। अब इसे विधानसभा से पारित कराकर केंद्र को भेजेंगे। साथ ही दोनों मामलों को नौंवी अनुसूची शामिल करने की अनुशंसा भी की जाएगी। ख़ास बात है कि हेमंत सोरेन ख़ुद मार्च में संपन्न हुए बजट सत्र के दौरान स्थानीयता में सन् 1932 के खतियान लागू करने में समस्या बतायी थी। उन्होंने कहा था कि खतियान आधारित स्थानीय नीति न्यायालय में टिक नहीं पाएगी। इसके छ: महीने बाद बग़ैर किसी होमवर्क के अचानक कैबिनेट से इसे मंज़ूरी दे दी गयी। यानी अब जिनके पास सन् 1932 का खतियान होगा, वही झारखण्ड के स्थानीय होंगे। इसी तरह ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण का मामला भी बग़ैर किसी सर्वे के पारित कर दिया गया। हालाँकि अभी विधेयक को विधानसभा से पारित होना है। राज्यपाल से मंज़ूर होना है। इसके बाद लागू होगा।
दुविधा में हाथ और लालटेन
राज्य में गठबंधन की सरकार है। झामुमो के नेतृत्व में सरकार है। कांग्रेस और राजद गठबंधन में शामिल है। झामुमो के सन् 1932 के खतियान की तीर ने हाथ (कांग्रेस) और लालटेन (राजद) को दुविधा में डाल दिया है। रांची, धनबाद समेत कोल्हान का क्षेत्र इस फ़ैसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहा।
झारखण्ड से कांग्रेस के एक मात्र सांसद गीता कोड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने सन् 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति का विरोध किया है। उनकी बग़ावत से कांग्रेस सहमी हुई है। इसी तरह पार्टी से 17 विधायकों में से आधे इसके विरोध में हैं। राजद की समस्या भी लगभग वैसी ही है। एक समय में राजद के झारखण्ड में 11 विधायक थे। अभी केवल एक विधायक हैं। राजद झारखण्ड में अपनी जगह बनाने का प्रयास कर रही है। उसके ज़्यादातर मतदाता वे हैं, जो वर्षों पहले नौकरी की तलाश में आकर झारखण्ड में बसे। लिहाज़ा राजद भी समर्थन और विरोध को लेकर दुविधा में है। इन सब के बीच भाजपा वेट एंड वॉच की स्थिति में है। चूँकि प्रदेश भाजपा की चाभी केंद्र के पास है। इसलिए प्रदेश नेता सँभलकर बयानबाज़ी कर रहे। वह सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे।
मास्टर स्ट्रोक या घाटे का सौदा
राजनीतिक गलियारे में स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का निर्णय मास्टर स्ट्रोक कहा जा रहा है। हालाँकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की धारणा इससे इतर है। इसका मुख्यमंत्री और झामुमो को कितना $फायदा पहुँचा यह आने वाला वक़्त ही बता पाएगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि हेमंत सोरेन राजनीतिक दाँव लगाते हुए जनता को सन्देश देने का प्रयास किया है कि झामुमो अपने चुनावी वादे से पीछे नहीं हटी। वह भी जानते हैं कि सन् 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता सम्भव नहीं है। इसलिए अभी तक मामले को टाल रखा था। ओबीसी के 27 फ़ीसदी आरक्षण का मामला है। दोनों ही मामला शायद ही लागू हो पाये। उधर इस मामले में जनता भी दो हिस्से पक्ष और विपक्ष में है। अब देखना है कि दोनों का मुद्दों का हश्र क्या होता है। राजनीतिक खेल में कहीं झारखण्ड एक बार फिर जलने की ओर तो नहीं बढ़ रहा? या फिर सही में इस बार हल निकल आएगा।