समस्या यह है कि अब आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिमी बंगाल और उत्तरपूर्वी राज्यों ने भी हिंदी के विरोध में कमर कस ली है। जबकि दशकों से देश में त्रिभाषा फार्मूला चल रहा है। यह तो तय है कि पूर्व शिक्षामंत्री एमसीचागला की अध्यक्षता में बनी समिति ने जिस त्रिभाषा फार्मूले को हरी झंडी दी थी और बाद की सरकारों ने उस पर अमल भी किया। लेकिन अब भाजपा नेतृत्व की केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार उसमें निश्चय ही इस तरह से फेरबदल करेगी जिससे बहुत ज़्यादा विरोध भी न हो और उनका मकसद भी पूरा हो जाए।
देश के संविधान में हिंदी को आधिकारिक भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी के साथ ही 15 साल के लिए मान्य किया गया है। लेकिन हमेशा ही खासा भ्रम रहा है उनमें जो अनिश्चित काल तक के लिए अधिकारिक भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग देश में नहीं चलने देना चाहते । वे इसे विभिन्न चरणों में हटाना चाहते हैं और इसकी जगह हिंदी को देना चाहते हैं। हिंदी के जानकारों के अनुसार हिंदी यदि आधिकारिक भाषा बन गई तो हिंदी में लिखा होने के बावजूद उसे समझने के लिए शब्दकोष पलटने की ज़रूरत पड़ेगी। हिंदी भाषियों का भी एक बड़ा तबका यह चाहता है कि अंग्रेज़ी के साथ -साथ सरल हिंदी की भी व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे दूसरे भाषा-भाषी भी सरकारी हिंदी को ठीक तरह से समझ सकें।
भाषाई विवाद पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में यह भरोसा दिया था कि जब तक विभिन्न भाषाओं के राज्य हैं तब तक पूरे देश में बतौर राजभाषा हिंदी नहीं बनेगी। अंग्रेज़ी को सहयोगी भाषा के तौर पर कायम रखा जाएगा। यह स्थिति तब तक रह सकती है जब तक वे अहिंदी भाषी राज्य खुद राजी नहीं हो जाते।
त्रिभाषा फार्मूले पर इसलिए तब अमली जामा पहनाया गया था कि बच्चा मातृभाषा पढ़े फिर मातृभाषा के साथ-साथ हिंदी भी विकसित करे और फिर अंग्रेज़ी को और कायदे से सीखे। इसके पीछे सोच यही थी कि फिर वह दुनिया की दूसरी भाषाएं भी सीख सकता है। इस फार्मूले पर अमल करते हुए कई शैक्षणिक संस्थानों ने जर्मन, फ्रेंच और दूसरी भाषाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की शुरूआत की। इससे मातृभाषा तो बोलचाल के स्तर पर आ गई , लेकिन हिंदी का पठन-पाठन एकदम ठप्प हो गया। वह भी बाज़ार की भाषा के तौर पर समाज में पहले की ही तरह विकसित हुई। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समितियों ने ज़रूर खुद को महाविद्यालय स्तर तक विकसित किया। उनका भी मकसद छात्रों को प्रशिक्षित कर डिग्री दिलाने भर का रह गया।
समाजशास्त्री, भाषाविद और शिक्षाशास्त्री इस बात पर एकमत हैं बच्चों पर सीखने का बहुत दबाब नहीं देना चाहिए। उन्हें एक तो मातृभाषा और अंग्रेज़ी ज़रूर सिखनी चाहिए फिर यदि बातचीत करते हुए उन्हें पूरी दुनिया के बारे में विश्व ज्ञान दें और अपना देश वे अच्छी तरह जान समझ सकें उसके लिए वे वह उपयुक्त भाषा सीखें जो उन्हें पसंद हो।
भाषा चाहे जो हो उसके जानकारों से संवाद और उसका उचित ज्ञान बेहद ज़रूरी है। इसी साल के शुरू में लाल किले के बाहरी परिसर में आर्टिस्ट एम्सेंबल का एक भव्य विचित्रानुष्ठान समारोह हुआ। इसमें असम-अरूणाचल सीमा के ही एक जनप्रतिनिधि ने कुछ गीत पेश किए। हिंदी-अंग्रेज़ी के ये गीत काफी रिझाऊ थे। हालांकि इनमें हिंदी-भोजपुरी की भदेस गालियां भी थी। इसका विरोध कई महिलाओं ने किया। क्योंकि महिलाओं के शरीर से जोड़ कर दी जाने वाली गालियां आम तौर पर पूरी देश में अब सुनाई देती हैं। लेकिन उन महिलाओं को उसका एक दो गानों में इस्तेमाल बेहद नागवार लगा। लेकिन जनप्रतिनिधि विरोध के बावजूद कई गुना ज़्यादा प्रशंसा पा चुके थे। उन्होंने यदि हिंदी या संस्कृत पढ़ी होती तो शायद वे गालियों को भी शिष्ट भाषा में प्रयोग करते हुए और ज़्यादा प्रशंसा के हकदार होते। हिंदी में कविताओं में धूमिल, कहानियों में राजकमल चौधरी और संस्कृत में तो विभिन्न रचनाकारों ने महिला सौंदर्य को शिष्ट प्रयोग से उभारा और प्रंशसा ही पाई।
देश की संस्कृति को समझने के लिए भी बहुभाषी होना आज मजबूत राष्ट्र की ज़रूरत है। इसके लिए अहिंदी भाषी राज्यों को भी यह समझना होगा कि हिंदी का विकास विस्तारवादी फार्मूले के तहत नहीं हुआ है। पूरे देश की आबोहवा में आज हिंदी है जो जम्मू-कश्मीर से पॉडिचेरी तक जानी समझी जाती है। इसके साथ ही कच्छ से उत्तरपूर्व तक इसे बोलने-समझने वाले मिल जाते हैं। इसलिए हिंदी को मित्र भाषा ही माना जाना चाहिए।
भाषा को कभी भी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मातृभाषा के प्रति जो लगाव होता है उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही विविध भाषाओं की जानकारी से जो आत्मविश्वास बढ़ता है और मानसिक खुलापन आता है वह बेजोड होता है।
हिंदी का विरोध तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तरपूर्व के प्रदेशों में दिख रहा है उसकी वजह नई शिक्षा नीति के मसविदे को जारी किया जाना रहा।भाजपा को ये सभी राज्य शंकालु नज़रिए ये देखते भी रहे हैं। दूसरी सच्चाई है कि इन तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का अपना वजूद स्थानीय भाषा, उपभाषा के कारण ही बढ़ता गया है। इसलिए उनका सतर्क होना ओर खुद को केंद्र के विरूद्ध खड़ा रखना स्थानीय राजनीतिक ज़रूरतों के ही आधार पर है। इनकी भाषाई विविधता ऐच्छिक तौर पर दूसरी भाषा के ज्ञान संबंधी पहल केंद्र को करना चाहिए।
केंद्र सरकार को भी यह समझना चाहिए कि भाषाई, सांस्कृतिक विविधताओं को राष्ट्रीय एका के आधार पर जोर जबरदस्ती से लागू करना उचित नहीं है और न रहेगा। हमारा देश जितना विविध है वहां यह मुमकिन नहीं है कि देश की अकेली राष्ट्रभाषा हिंदी घोषित की जाए। हिंदी को अकेली राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रचारित करने से दूसरी भाषाओं के लोगों में बेवजह तनाव होगा। जिससे उपद्रव पूरे देश में फैल सकता है। त्रिभाषा फार्मूले की आड़ में भी हिंदी को अहिंदी भाषी राज्य पसंद नहीं करेंगे। इससे बेवजह तनाव ही फैलेगा।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंकÓ खुद जाने-माने रचनाकार रहे हैं। उन्हें पूर्व वैज्ञानिक केके कस्तूरीरंगन ने अपनी अध्यक्षता में न्यू एजुकेशन पॉलिसी के लिए गठित कमेटी की रपट और सिफारिशों को सौंपा है। इस मसौदा रपट में छात्रों की संवाद क्षमता बढ़ाने के लिए त्रिभाषा फार्मूला विकसित करने पर ज़ोर है। इसमें यह भी प्रस्ताव है कि अहिंदी भाषी छात्रों को हिंदी-अंग्रेज़ी के अलावा क्षेत्रीय भाषा भी सीखनी होगी। दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों के नेताओं का कहना है कि भाजपा जबरन अहिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी लाद रही है। यह उसकी एक राजनीतिक चाल है। जबकि हिंदी कुछ ही राज्यों की भाषा है जहां ढेरों लोकभाषाएं हैं जो हिंदी से भी ज़्यादा लोकप्रिय गांव-घरों में हैं। भाषा का उद्देश्य है कि लोग आपस में बातचीत करें। अपने प्रतिनिधि और सरकार से संवाद स्थापित कर सकें।
आम तौर पर बुद्धिजीवी यह कहते हैं देश में आज जो सूचना क्रांति हुई है उसके चलते शहरी और ग्रामीण परिवारों में औसतन तीन -चार भाषाओं की जानकारी युवाओं को है। विविध भाषाओं की जानकारी से जहां आत्मविश्वास बढ़ता है और दिमागी खुलापन भी । भाषाएं सीखना बुरा नहीं, लेकिन उनको राजनीतिक रूप न दिया जाए।