”आज तो मानव ही मानव से डरते हैं। अरे, अपने पड़ोसी से डरते हैं। तब राष्ट्र की बात तो क्या बताऊँ? कोई किसी का बुरा नहीं कर सकता। मैं तो मानता हूं कि मनुष्य के दुख का कारण मनुष्य है। यह राजधानी का शहर होते हुए भी मरा हुआ सा लगता है। कोई किसी का एतबार नहीं करता। जो शान्ति है,
वह तो पुलिस के डर की शान्ति है। क्या बात कि अहिंसा का स्वराज्य हिंसा से रक्षित माना जाता है।महात्मा गांधी -(2-1-1948)
महात्मा गांधी के इन वचनों को और हमें उनसे बिछुड़े पूरे 70 साल बीत गए, परंतु न तो दिल्ली ही जीवंत हुई, न हमारा एक दूसरे पर विश्वास बढ़ा और सबसे खतरनाक बदलाव यह आया कि हमारा अहिंसा का साम्राज्य और भी अधिक शासकीय हिंसा और प्रलयंकारी व दमनकारी कानूनों पर निर्भर होता चला गया। इस कड़ी का नवीनतम उदाहरण 24 व 25 जून 2018 को गांधी समाधि, राजघाट की तालाबंदी है। वह क्यों हुई, किसके लिए थी, क्यों वह सरकारी नज़रिए से आवश्यक थी, यह सारे प्रश्न अनावश्यक हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इस तालाबंदी पर जिस तरह की प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी, खासकर गांधी संस्थाओं, उनके पदाधिकारियों से, वह नहीं आई। इसमें बहुत आश्चर्य करने जैसा भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों जो कुछ देश में चल रहा है, जिसमें सांप्रदायिकता, गायों के नाम पर हत्याएं, सार्वजनिक स्थलों पर पीट-पीट कर मार डालना, अपने से असहमत बुद्धिजीवियों पत्रकारों की हत्या पर कमोवेश अधिकांश गांधी विचार से जुड़ी संस्थाओं (अपवाद छोड़कर) का मौन साफ दिख रहा है कि वैचारिक स्तर पर ठहराव आता जा रहा है। अति बौद्धिकता भी बेहद खतरनाक होती है और हमें चालाक भी बना देती है। इसीलिए गांधी सिर्फ समझाइश नहीं देते वे चरखा चलाते हैं, वे कुष्ठ रोगियों की सेवा करते हैं, वे हरिजनों के लिए संघर्ष करते हैं, वे अखबार निकालते हैं, वे जेल जाते हैं,वे अनशन करते हैं, वे खादी को प्रोत्साहित करते हैं, वे किसानों के बीच जाते हैं, वे ग्रामोद्योगों की शुरूआत करते हैं और इस सबके अलावा वे आम जनता से मिलते हैं, बच्चों से खेलते हैं, खूब मुस्कराते हैं, तीखे व्यंग्य करते हैं और भविष्य का आधार भी रखते हैं। वे बेहद जीवंत हैं। वे दिल्ली नहीं है वे भारत के गांव हैं, जो इतने संकटों के बावजूद मुस्करा सकता है।
जिस समय राजघाट पर ताला लगा, उसी समय दिल्ली में गांधी जी की 150 वीं जयंती मनाने के लिए तैयारी समिति की एक महत्वपूर्ण बैठक भी चल रही थी। वह बदस्तूर इन दोनों दिनों में अपनी भविष्य की योजना बनाती रही। समाधि पर ताला लगा रहा और विरोध बैठक 29 जून को हुई और इसे राष्ट्रव्यापी बनाने की अपील भी की गई। बात यहां समाप्त नहीं होती बल्कि यहां से शुरू होती है। उसी दिन राजघाट पर अरविंद मोहन ने ठीक बात कही कि इस घटना से यह फायदा तो अवश्य हुआ कि गांधी जन अपने-अपने मठों से बाहर निकले। भारत के कुछ भागों पर यह कथन एकदम सटीक बैठता भी है। वैसे यह भी सच्चाई है कि कई स्थानों पर अभी भी बौद्धिक विमर्श और रचनात्मक कार्य एक साथ चल रहे हैं और तमाम संकटों के बावजूद तमाम गांधीजन ऐसा कर रहे हैं। परंतु यह स्थिति इतनी व्यापक कैसे हो गई और भारत के अधिकांश लोग क्यों यह मानने लग गए कि गांधी विचार से जुड़े लोगों ने मौन धारण कर लिया है और वे अब सामाजिक विषमताओं को लेकर बहुत सक्रिय नहीं है। जब एक तबके ने नफरत या द्वेष का वातावरण तैयार करना शुरू कर रखा है। ऐसे में चुप बैठना क्या न्यायोचित कहलाएगा? जब राजनीतिक नेतृत्व दिशाहीनता की ओर अग्रसर हो तो व्यापक समाज सही दिशा पाने के लिए किसकी ओर देखे (जब सब ओर हिंसा का बोलबाला हो तो अहिंसा की पैरोकारी करने वाले भी क्या चुप बैठेगें)
63 साल की उम्र में गांधी ने स्वनिर्मित व बसा-बसाया साबरमती आश्रम छोड़ दिया और हरिजन यात्रा प्रारंभ कर दी थी। उसके बाद वे भारत के समृद्ध इलाके को छोड़कर संभवत: भारत के सबसे गरीब व वंचित इलाके विदर्भ के सेगांव, जो कि बाद में सेवाग्राम कहलाया में आकर बस गए और वहां से एक नई शुरूआत की। जिसे वे अपना सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार मानते थे, ऐसी ”वह तालीमÓÓ इसी सेवाग्राम की देन है। साथ ही ग्रामोद्योगों को लेकर एक नयी दिशा और विचार भी यहीं से नए परवान चढ़ा था। पर आज क्या हो गया है कि गांधीजनों की बहुत मंद सी आवाज़ हमारे कानों में पड़ रही हैं
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि गांधी का कुनबा सुविधा भोगी हो गया है। तो फिर क्या है कि हम हमारे ‘कुलदेवताÓ को प्रसन्न नहीं कर पा रहे हैं। प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्युशस का कहना था, ”सत्य को जानते हुए भी उसके अनुकूल आचरण न करना कायरता है। ”हम यह नहीं कह सकते कि मेरे हिसाब से यही सच है क्योंकि सत्य तो एक ही है और गांधी ने सत्य को ईश्वर कहा है, ईश्वर को सत्य नहीं। वे सत्य को अहिंसा से भी ऊपर रखते थे। इसलिए इस व्यापक समुदाय की ओर से आ रही चुप्पी एक प्रश्न बनकर खड़ी हो गई है। किन्ही मुद्दों पर वैचारिक असहमति जताकर स्वंय को अलग करना एक बौद्धिक चतुराई भी है। नर्मदा बचाओं आंदोलन जैसे आंदोलनो की कार्यशैली को लेकर असहमति हो सकती है, परंतु क्या वे ”सत्याग्रहीÓÓनही हैं। बापू ने 31 दिसंबर 1947 को कहा था,’हमें अग्रेज़ों से लडऩा कठिन मालूम पड़ता था लेकिन आज में देखता हूं, तो वह लड़ाई बहुत ही सरल प्रतीत हो रही थी किन्तु आज की यह लड़ाई कठिन लग रही है। अंग्रेजो से तो हम तिल का ताड़ बनाकर, कुछ भी कह सकते थे लेकिन आज तो हम खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। कत्र्तव्य सामने होने पर उससे भागने लगते हैं। बिना शुद्धि के स्वराज्य कभी स्थापित नहीं हो सकता। हममें शुद्धि नहीं थी, इसलिए ऐसा राज्य हम लोगों के हाथ लगाÓ। वे आगे और अधिक समझाकर कहते है,’ मेरे विचार से यह स्वराज्य है ही नहीं, स्वराज्य का सच्चा अर्थ यही है कि मानव अपनी शासन सत्ता के अंतर्गत सरलता से जीये और अपने आसपास के लोगों को जिला सकेÓ। आज हमारा अपना शासन है और इसके बावजूद अंग्रेजों के शासन से ज़्यादा कठोर व दमनकारी कानून, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर थोपे जा रहे हैं। ऐसे में यह अवश्यंभावी हो जाता है कि गांधी विचार और लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाला समुदाय स्वंय को एक बार फिर: वास्तविक ”स्वराज्यÓÓ के लिए प्रस्तुत करे।
सच तो यह है कि एक झिझक पूरे समाज में घर कर गई है जिसकी वजह से संघर्ष से आंख चुराई जाने लगी है। यह माना जाने लगा है कि काम किसी और का है। इस बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था को लेकर गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को महज आलेखों, संस्थानों या सेमिनारों का विषय बना देने से बात आगे नहीं बढ़ेगी। गांधी जिस तीन ऊंगलियों वाली शिक्षा के बरस्क दस ऊंगलियों वाली शिक्षा की पैरवी क्यों करते थे, उस पर
गहन विचार करना ही होगा। रोज़गार निहित अर्थव्यवस्था की आंकड़ों के आधार पर छीछालेदर भर देने भर से बात नहीं बनेगी बल्कि हमें कुछ सार्थक, सकारात्मक व रचनात्मक करके दिखाना होगा। गांधी संस्थाओं, व्यक्तियों में इसे लेकर समझ भी है और कम मात्रा में ही सही परंतु संसाधन भी मौजूद हैं। वे ऐसी परंपरा के संवाहक भी हैं, जिसने पूरी दुनिया के सामने सत्य और अहिंसा को विकास के अनिवार्य उपकरणों की तरह रखा है। हमें उसी संपूर्णता को फिर अंगीकार करना होगा। बापू एक ही समय में ब्रिटिश शासन से टकराते हुए यह भी समझाते हैं कि खाते समय मुह से आवाज़ नहीं आनी चाहिए। वे सुबह कश्मीर समस्या पर बात करते हैं तो शाम को किसानों से मानव मल से खाद बनाने की विधि पर बात करते हैं। उनसे कुछ भी छूटता नहीं हैं। वे स्वंय को किसी श्रेणी या वर्ग में नहीं बांधते। वे झाडू लगाते समय भी चर्चा करते हैं और अप्रत्यक्ष रुप से जता देते हैं कि दोनों कार्य समान महत्व रखते हैं। राजघाट की तालाबंदी ने सारे देश को चेता दिया कि भविष्य में क्या होगा। सत्ता एक-एक कदम आगे बढ़ा रही है। पूना फिल्म संस्थान से शुरू हुआ बदलाव राजघाट तक पहुंच गया है और यह थम नहीं रहा है। इतनी निराशा के बावजूद हम आशावान हैं क्योंकि गांधी आज भी हमारे साथ है। भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा है,” यह सवेरा सार्थक जिस बात से हो। काम वह अपना शुरू इस रात से हो, आज से फिर रात होना बंद हो ले, बंध-बाधा आज की कल छंद हो ले, आज से संभव न हो अपनी निशा अब, आज से ऐसे जगें दुनिया जगा दें। आमीन