कांग्रेस नतीजों से सबक नहीं लेती, यह उत्तराखंड में नए मुख्यमंत्री के मनोनयन और शपथ ग्रहण समारोह ने दिखा दिया. यही वजह रही कि मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा के नाम की घोषणा से लेकर उनके शपथ ग्रहण तक परिदृश्य पल-पल बदलता रहा. दिल्ली में आलाकमान के आशीर्वाद के बाद बहुगुणा को 13 मार्च को11 बजे देहरादून के जौली-ग्राउंड हवाई अड्डे पर उतरना था. इसके बाद शाम को उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेनी थी. लेकिन तब तक दिल्ली से केंद्रीय मंत्री हरीश रावत और उनके साथी विधायकों के विरोध की खबरें उड़ने लगीं. विजय बहुगुणा के देहरादून उतरने के बाद आने वाली हर खबर पहली खबर से जुदा होती. कभी खबर आती कि शपथ ग्रहण समारोह टलने जा रहा है तो कभी यह कि पद के लिए अपनी दावेदारी ठुकराए जाने से नाराज हरीश रावत अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं. काफी उथल-पुथल के बीच आखिरकार टिहरी से सांसद बहुगुणा ने 13 मार्च की शाम पांच बजे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली. शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस के 32 विधायकों और उसे समर्थन देने वाले सात यानी कुल 39 विधायकों में से केवल 10-11 विधायक ही शामिल थे. राज्य के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले बहुगुणा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र हैं. उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी उनकी बहन हैं और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी उनके ममेरे भाई.
इससे पहले सबसे बड़ा दल होने के बाद भी उत्तराखंड के कांग्रेसियों की होली भागदौड़ और आपसी खींचतान में गुजरी. चुनावी नतीजे के छह दिन बाद 12 मार्च की शाम को कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व सांसद विजय बहुगुणा को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में मनोनीत कर पाया. लेकिन इतनी लंबी जद्दोजहद के बाद भी कांग्रेस हाईकमान संभवतया दूसरे खेमों को संतुष्ट नहीं कर पाया. नतीजा यह था कि एक तरफ मनोनीत मुख्यमंत्री शपथ लेने के लिए दिल्ली से देहरादून उड़ने वाले थे और दूसरी ओर दिल्ली में केंद्रीय राज्य मंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार हरीश रावत अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री को भेज रहे थे. उनका आरोप था कि पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का निरादर हुआ है. शपथ ग्रहण समारोह तक रावत के साथ 32 में से 18 विधायक बताए जा रहे थे. इन परिस्थितियों में शपथ ग्रहण के बाद भी बहुगुणा सदन में बहुमत साबित कर पाएंगे, कहना मुश्किल है.
राज्य बनने के बाद अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में पहली बार इतना खंडित जनादेश आया था. कांग्रेस और भाजपा के बीच महज एक सीट का फर्क था. दोनों ही राष्ट्रीय दल साधारण बहुमत के पास पहुंच कर भी बहुत दूर थे और बहुमत के लिए उन्हें निर्दलीयों और बसपा के समर्थन की दरकार थी. जानकारों के मुताबिक इस छितरे जनादेश के लिए कांग्रेस और भाजपा में मुख्यमंत्री के दावेदार स्थानीय क्षत्रप जिम्मेदार रहे जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने उत्तराखंड को अजीब-सी राजनीतिक अनिश्चितता में धकेल दिया है.
वैसे विधानसभा की 70 सीटों में से 63 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को जिता कर उत्तराखंड के मतदाताओं ने स्पष्ट किया है कि कई मुद्दों पर मोहभंग के बावजूद अब तक उनकी पहली पसंद राष्ट्रीय दल ही हैं. लेकिन दोनों ही बड़े दलों में से एक भी चुनाव तक अनिश्चित-से दिख रहे मतदाताओं के मूड को सरकार बनाने लायक सामान्य बहुमत में नहीं बदल पाए. ‘खंडूड़ी हैं जरूरी’ नारे के नायक भुवन चन्द्र खंडूड़ी भले ही अपना चुनाव हार गए, लेकिन कुछ महीने पहले पतली हालत में दिख रही भाजपा उनके नेतृत्व में कयासों से काफी अधिक 31 विधानसभा सीटें जीतने में कामयाब रही. उधर, 70 सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तो उभरी, लेकिन यह संख्या भी सामान्य बहुमत की जादुई संख्या से चार कम थी. पिछली विधानसभा में आठ सीटों वाली बसपा भी अब केवल हरिद्वार जिले में जीती तीन सीटों पर सिमट गई है. मतदान तक ताकतवर लग रहे एक दर्जन निर्दलीयों में से भी तीन ही जीतकर विधानसभा पहुंचे. एक सीट क्षेत्रीय पार्टी उक्रांद के पंवार धड़े के खाते में गई थी.
लेकिन कुल सात की संख्या वाले बसपाई, निर्दलीय और उक्रांद विधायकों ने कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रपों से लेकर केंद्रीय नेतृत्व तक को घुटनों के बल खड़ा कर दिया. तीनों निर्दलीय विधायक हल्की ना-नुकर के बाद कांग्रेस को समर्थन देने को तो राजी थे लेकिन कुछ शर्तों के साथ. ये तीनों विधायक पहले कभी न कभी कांग्रेसी ही थे. कांग्रेस के बागी और निर्दलीय लड़कर जीते मंत्री प्रसाद नैथानी की मुख्यमंत्री पद पर पहली पसंद सतपाल महाराज या उनकी पत्नी अमृता रावत थीं तो बुजुर्ग विधायक हरीश दुर्गापाल, पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते थे. तीसरे निर्दलीय विधायक दिनेश धनै, सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रुप में देखना चाहते थे. उक्रांद विधायक प्रीतम पंवार की पहली पसंद हरीश रावत थे. ये सभी विधायक मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पसंद बताने के अलावा किसी न किसी बड़े नेता को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देखने की शर्त भी थोप रहे थे.
इस बार भी 2002 वाला इतिहास दोहराया गया जब विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज खेमों के विरोध के बाद हरीश रावत मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे
नौ मार्च को कांग्रेसी नेताओं ने राज्यपाल के सामने अपने विधायकों, तीन निर्दलीयों और एक उक्रांद विधायक की परेड करवाते हुए सामान्य बहुमत का प्रदर्शन किया. अब झगड़ा मुख्यमंत्री पद के लिए था. 10 मार्च को कांग्रेस के महामंत्री गुलाम नबी आजाद विधायकों की राय जानने के लिए देहरादून आए. विधायक अपने बीच में से मुख्यमंत्री चुने जाने के लिए एकमत थे. विधायकों के अनुसार उन्हें भी यह समझाया गया कि पार्टी सांसदों में से मुख्यमंत्री चुनने की हालत में नहीं है. लेकिन सांसद हरीश रावत, विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी आसानी से छोड़ने को राजी नहीं थे. उसी दिन सभी खेमों के विधायक और नेता दिल्ली उड़ चले.
विधायकों के दिल्ली पहुंचने पर यह मान लिया गया था कि राज्य की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस उपचुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाएगी. इसलिए दो दिन तक चले नाटकीय घटनाक्रमों में मुख्यमंत्री पद के लिए कभी प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य का नाम उछलता तो कभी इंदिरा हृदयेश, प्रीतम सिंह चौहान, सुरेंद्र सिंह नेगी या हरक सिंह का. सूत्रों के मुताबिक हरीश रावत समर्थक युवा प्रीतम सिंह एक बार सर्वमान्य तो हो रहे थे लेकिन उन पर बात नहीं बनी. 11 मार्च को हरीश रावत हरिद्वार आए और अपने साथ बसपा के तीन विधायकों को दिल्ली ले उड़े. बसपा ने भी कांग्रेस को समर्थन देना स्वीकार लिया. अब कांग्रेस के पास सामान्य बहुमत के लिए जरूरी संख्या यानी 36 से तीन अधिक विधायक जुट गए थे. बसपा के तीन विधायकों का समर्थन पाने के साथ हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी तेज कर दी. लेकिन बाकी खेमे उनके विरोध में थे. 12 मार्च को सुबह से 10 जनपथ पर कई दौर की वार्ता चली. सूत्र बताते हैं कि आलाकमान हरीश रावत खेमे का विद्रोही रुख बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. ऐसे में उसी दिन हमेशा एक-दूसरे के विरोधी रहे सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा खेमे ने आपस में हाथ मिला लिए और कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने मुख्यमंत्री के रूप में बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी.
इस बार कांग्रेस के टिकट पर जीते विधायकों में से ज्यादातर मुख्यमंत्री पद के लिए हरीश रावत या उनकी पसंद के साथ थे. लेकिन इस बार भी वर्ष 2002 का इतिहास दोहराया गया. तब भी विजय बहुगुणा और सतपाल महाराज खेमों के विरोध के बाद रावत मुख्यमंत्री पद पाने मंे नाकामयाब रहे थे.
2009 के लोकसभा चुनावों में राज्य की पांचों सीटें कांग्रेेस को जिताने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य ने विधानसभा चुनावों में प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व किया था. जानकारों के मुताबिक दिल्ली की लॉबिंग में यह कमजोर दलित नेता आलाकमान के पैमानों पर फिट नहीं बैठा. हरक सिंह रावत पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष के रूप में सड़क से लेकर विधानसभा में संघर्ष करते रहे, लेकिन उनकी आक्रामकता भी मुख्यमंत्री बनने की उनकी कामना को पूरा नहीं कर पाई. गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज खुद या अपनी पत्नी अमृता रावत को मुख्यमंत्री देखना चाहते थे, लेकिन उन्हें भी किसी और खेमे का समर्थन नहीं मिल पाया. सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री बनने और बनाने के खेल में दो मौकों पर महाराज और हरीश रावत की तीखी नोक-झोंक हुई. इन सारी स्थितियों का फायदा बहुगुणा ने उठाया जिनके पास अपेक्षाकृत कम संख्या में विधायक थे. उन्हें कांग्रेस के पर्यवेक्षकों की सिफारिश का फायदा मिला.
अब देखना दिलचस्प होगा कि अपने जमाने में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले एचएन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा किस हुनर से बहुमत साबित करते हैं. 10-11 विधायकों के समर्थन के साथ फिलहाल तो उनकी राह मुश्किल दिखती है.