नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ विज़ुअल हैंडीकेपेड (एनआईवीएच), देहरादून में नए निदेशक की नियुक्ति हुई है। केंद्र सरकार के संचालित इस संस्थान को जल्द ही नया प्रिंसिपल और वाइस प्रिंसिपल मिल जायेंगे। मौजूदा निदेशक को स्थानांतरित और दो अन्य को बर्खास्त कर दिया गया है। ये बड़े फेरबदल परिवर्तन संस्थान में छात्रों की हड़ताल के चलते हुए हैं जो 16 अगस्त से लगातार जारी थी।
छात्रों का मांगपत्र वैसे तो 31 मांगों के साथ था लेकिन इनमें सबसे गंभीर यौन उत्पीडऩ की शिकायत है कि कैसे छात्रों के प्रति जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों ने इनसे निपटा। छात्रों की तरफ से अप्रैल, 2018 में लगाए गए यौन प्रतारणा के आरोपों को भी बहुत विवादित तरीके से निपटने का ढोंग किया गया। इनमें से एक प्रभारी संगीत शिक्षक के खिलाफ तो प्रशासन ने एक्शन लिया लेकिन दूसरे को छोड़ दिया गया। इस बार, हालांकि दूसरे शिक्षक के खिलाफ छात्रों के एक समूह की तरफ से लगाए गए हैं।
इन छात्रों ने आरोप लगाया है कि उनमें से कुछ को पकड़ कर उनके प्राइवेट पार्ट्स को छुआ गया और भद्दी टिप्पणियां की गईं। छात्रों ने शिकायत की कि इस घटना की जानकारी प्रिंसिपल और निदेशक दोनों को दी लेकिन बजाये आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने के, उलटे छात्रों को ही प्रताडि़त किया गया। यहाँ तक कि छात्रों को शालीन ड्रेस पहनाने की सलाह दी गयी।
दिलचस्प बात यह है कि दूसरे संगीत शिक्षक के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज की गई है। लेकिन निदेशक और अन्य के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी है जबकि यह सब की जानकारी उनको दी गयी थी और उनकी तरफ से कोई रिपोर्ट इस मामले में दजऱ् नहीं की गयी जबकि पूरा मामला उनके संज्ञान में था। यह बच्चों के खिलाफ यौन संरक्षण क़ानून के तहत मामला बनता है।
इस तरह के विकृत, भयानक और प्रतिकूल अपराध पीडि़तों के लिए अवसाद, पोस्ट-आघात सहित शॉर्ट टर्म और दीर्घकालिक तनाव, विकार के रूप में सामने आ सकते हैं। लेकिन इसकी कोई परवाह नहीं की गयी और बच्चों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार अधिकारियों ने इसके बारे में सोचा तक नहीं। यह उनकी इस मामले से निपटने के प्रति संवेदनशीलता और भूमिका के प्रति सवाल खड़ा करता है। यह असंभव ही है कि संस्थान में बाल संरक्षण नीति होगी जो पोस्को एक्ट के तहत ज़रूरी है। अगर है भी तो ऐसा लगता है यह कागज़ों तक सीमित होगी।
इसी प्रकार विकलांगता अधिनियम के तहत बच्चों के अधिकार की भी अनदेखी की गयी है। आरपीड़ी क़ानून में बाकायदा सजा का प्रावधान है। इसमें कहा गया है कि जिस व्यक्ति के ऊपर विकलांगता वाले बच्चे की जिम्मेवारी है और वह उसका शारीरिक शोषण करने का जिम्मेवार पाया जाता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी।
छात्राओं की शिकायत है कि पुरुष कर्मचारी लड़कियों के छात्रावास में अपनी मर्जी से प्रवेश करते हैं, उनके कई शौचालयों और बाथरूम में दरवाजे तक नहीं और जिनमें हैं उनमें उन्हें दरवाजे और खिड़कियां बंद रखने से मना कर दिया जाता है। इन सब चीजों को देखते हुए छात्रावास में रहने वाले बच्चों में असुरक्षा की जबरदस्त भावना घर कर गयी है। क्या यह यौन उत्पीडऩ का सीधा और साफ़ उदाहरण नहीं है ?
प्रिंसिपल, वाइस प्रिंसिपल की बर्खस्तगी और निदेशक के तबादले से ही जाहिर हो जाता है कि यह मामला कितना संगीन है। यहाँ सवाल यही है कि छात्रों के आरोपों पर आरोपियों के खिलाफ अलग-अलग मानदंड क्यों अपनाये गए। अन्य मामलों की तरह पीडि़तों के बयान पुलिस स्टेशन में दर्ज किये गए। हालांकि पोस्को अधिनियम में अनिवार्य रूप से कहा गया है कि ऐसे बयान सामान्य व्यक्ति के निवास या ऐसी जगह जहां पीडि़त सुरक्षित महसूस करता हो, में ही दर्ज किये जाने चाहियें। संस्थान में अधिकारियों ने क्यों यह अनुमति दी यह बेहद परेशान करनी वाली बात है।
अधिक परेशानी वाला तथ्य यह है कि माता-पिता को यह बयान दर्ज करने के समय सूचित ही नहीं किया गया। यह भी कार्यवाही में खामी वाली बात है। यह बातें संस्थान के अधिकारियों और पुलिस मशीनरी दोनों में पॉस्को अधिनियम के प्रति अज्ञानता की तरफ इशारा करती हैं।
ऐसे संस्थान जहां अक्षम बच्चों या लोगों को रखा गया है, में निगरानी तंत्र की आवश्यकता पर जोर देना अक्षमता अधिकार संगठनों की बड़ी मांग रही है। इसे उनकी तरफ से वर्मा समिति के सामने रखा गया है जिसका गठन 2012 के दिल्ली गैंग रेप मामले के बाद किया गया था।
समिति ने अन्य चीजों के अलावा यह भी सिफारिश की थी कि उच्च न्यायालयों को पर्यवेक्षण तंत्र के रूप में कार्य करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं हुआ है। बिहार के मुजफ्फरपुर और मध्य प्रदेश के भोपाल में भयानक घटनाओं के मामलों को देखते हुए आवश्यक है कि इन संस्थानों के सार्वजनिक और निजी डोमेन दोनों में नियमित सामाजिक ऑडिट हों। अमेरिका स्थित ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी 2013 की एक रिपोर्ट में इस तरह के संस्थानों के भीतर यौन अपराधों को दस्तावेज के रूप में दर्शाया है।
इसमें साफ़ तौर पर बताया गया है कि किसी भी तरह की विकलांगता से पीडि़त महिलाएं और बालिकाएं ऐसे अपराधों की आसान शिकार होती हैं। बहुत से मामले में ऐसी महिलाएं या बालिकाएं अपने साथ हो रही ज्यादती को दूसरों को बताने में असमर्थ होती हैं। एक रिपोर्ट में यह सामने आया है कि ऐसी महिलाएं सामान्य महिलाओं के मुकाबले तीन गुना शारीरिक और यौन दुव्र्यवहार की शिकार होती हैं।
यौन दुव्र्यवहार के अलावा, कभी-कभी कुछ संस्थानों में विकलांग लड़कियों / महिलाओं के साथ उनके वस्त्रों को लेकर अशिष्ट व्यवहार किया जाता है। पावलोव अस्पताल, कोलकाता के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सख्त रूलिंग देनी पड़ी थी।
विकलांग महिलाओं के खिलाफ हिंसा के संबंध में समेकित आंकड़ों की अनुपस्थिति वकालती और नीति पहलों को प्रभावित करती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग विकलांग महिलाओं/लड़कियों से जुड़े मामलों का ऐसा कोई समेकित रेकार्ड नहीं रखता। एनआईवीएच के मामले को जिस तरीके से देखा गया वह न केवल संस्थान के अधिकारियों वल्कि पुलिस की असंवेदनशीलता को भी दर्शाता है। मानक ऑपरेटिंग प्रक्रियाओं (एसओपी) को हर जांच पड़ाव पर यह संदर्भित करना चाहिए की विकलांग महिलाओं की क्या विशिष्ट आवश्यकताएं हैं और विभिन्न एजेंसियों की क्या भूमिका होनी चाहिए।