‘चक दे इंडिया’, दंगल, मेरी कॉम, सुल्तान सरीखी िफल्में मुल्क में महिला खिलाडिय़ों के संघर्ष व उनके जज़्बे को सिल्वर स्क्रीन के ज़रिये अवाम के सामने रखती हैं। इसी 24 जनवरी को कंगना रनोत की िफल्म पंगा रिलीज हुई है, जिसमें कंगना जया निगम नामक राष्ट्रीय स्तर की महिला कबड्डी खिलाड़ी के संघर्ष को दुनिया को बताया गया है। परिणीति चोपड़ा बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल की ज़िन्दगी पर बनने वाली िफल्म में काम कर रही हैं। अनुष्का शर्मा महिला क्रिकेट खिलाड़ी झूलन की बायोपिक में झूलन का िकरदार निभा रही हैं। अभी हाल ही में अनुष्का शर्मा ने इस िफल्म की शूटिंग शुरू की है और उनका खास ध्यान झूलन की चाल पर भी रहता है, झूलन के चलने का अंदाज़ कुछ अलग ही है। इन िफल्मों के जिक्र के पीछे एक मंशा यह है कि िफल्मों के ज़रिये भारत में महिला खिलाडिय़ों की उपलब्धियों की सराहना करना, उन्हें सम्मानित करना, लड़कियों/युवतियों को खेल सीखने व आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करना। इसके साथ ही आधी दुनिया को यह संदेश देना कि खेल, खेल के मैदान, खेल की सामग्री, खेल प्रतियोगिताओं, खेल संघों, खेल मंत्रालय तक आप की पहुँच लडक़ों/पुरुषों के बराबर ही है। लेकिन क्या वास्तव में महिला सशक्तिकरण वाला माहौल भारत में खेल के क्षेत्र में नज़र आता है। ‘ खेलो इंडिया’ यानी खेल में महिला खिलाड़ी कितनी सुरक्षित हैं, यह सवाल खेल मंत्रालय के सामने इन दिनों है। 2020 भारतीय खेलों के लिए अहम साल है और 2020 के ही पहले महीने के दूसरे पखवाड़े यह खबर अंग्रेज़ी के एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी कि बीते एक दशक (2010-2019) में सरकार द्वारा संचालित विभिन्न खेल संस्थानों में यौन उत्पीडऩ की 45 शिकायतें दर्ज की गयी हैं, इनमें 29 कोच के िखलाफ हैं। कई मामलों में आरोपी पर अधिक सख्ती नहीं बरती गयी। स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के 24 केंद्रों में यौन उत्पीडऩ की शिकायत दर्ज की गयी हैं। इनमें 29 कोच के िखलाफ हैं, 5 कोच को उनके वेतन में कटौती के रूप में दंड मिला, 2 कोच का अनुबंध खत्म कर दिया गया। एक कोच को सस्पेंड कर दिया गया। यहाँ पर यौन शोषण के मामले लम्बे साल तक खिंचते रहते हैं। दरअसल खेल प्रेमी अपने जुनून को दिखाने के लिए खेल के मैदान में जाते हैं, अपने-अपने घरों में टीवी स्क्रीन, सफर, दफ्तर में मोबाइल के ज़रिये यानी संख्या के आधार पर मैदान में उतरे खिलाडिय़ों की हौसला अफजाई तो करते हैं, लेकिन महिला खिलाडिय़ों के प्रति खेल संस्थानों के कोच, अधिकारियों के द्वारा किये जाने वाले यौन अपराधों को रोकने का दबाव बनाने वाली भूमिका में नज़र नहीं आते। बहरहाल महिला खिलाडिय़ों के यौन उत्पीडऩ की खबर छपने के बाद खेल मंत्री किरण रिजिजू ने ऐसे लंबित मामलों को चार सप्ताह के भीतर निपटाने का आदेश दे दिया है। सवाल यह है कि अगर यह मामला अखबार ने नहीं उठाया होता, तो क्या खेल मंत्री ऐसा बयान जारी करते। गौरतलब है कि खेल के ढाँचे के भीतर ही कई महिला खिलाड़ी यौन उत्पीडऩ, शोषण की शिकार होती हैं, लेकिन सारे मामले सामने नहीं आते। 2018 में जब मुल्क में मी टू अभियान सुॢखयाँ बटोर रहा था, तब खेल की दुनिया से मी टू वाले मामले सामने नहीं आये। जब खेल संघों से पूछा गया कि क्या उनके यहाँ यौन उत्पीडऩ की कोई आधिकारिक शिकायत दर्ज की गयी है, तो अधिकतर संघों का जवाब नहीं था। लेकिन अगर कोई शिकायत नहीं दर्ज की गयी है, तो इसका अर्थ क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय खेल सिस्टम इससे मुक्त है। इसका जवाब तो सूचना के अधिकार के ज़रिये हासिल किये गये आँकड़े हैं, जो बताते हैं कि सिस्टम किस तरह, कितनी चालाकी से काम करता है। स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की पूर्व निदेशक नीलम कपूर ने खबर छापने वाले अखबार को बताया कि हकीकत में ऐसे मामले अधिक हो सकते हैं; क्योंकि हरेक के अंदर शिकायत दर्ज कराने के लिए हिम्मत नहीं होती है। एक सच्चाई यह भी है कि अधिकतर खिलाड़ी गरीब हैं और पिछड़े इलाकों से आती हैं। उनके सामने खेल के ज़रिये पैसा व सम्मान पाने की तमन्ना होती है, वह खाली हाथ अपने-अपने घरों को लौटना नहीं चाहतीं। ऐसे में ताकतवर पोजीशन वाले अधिकारी, उनके खेल करिअर के निर्माता यानी कोच ऐसे हालात का भरपूर फायदा उठाते हैं और अधिकांश मामले दबे रह जाते हैं। 2007 में अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने एक आम सहमति बयान जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि यौन उत्पीडऩ और शोषण सभी खेलों व सभी स्तरों पर होता है। एलीट खेलों में अधिक होता है। शोध यह भी बताती है कि खेल में यौन उत्पीडऩ व शोषण का एथलीट के शारीरिक व मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर गम्भीर व नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसका असर उसके खराब प्रदर्शन के रूप में आ सकता है और यहाँ तक कि एथलीट बीच में ही खेल छोड़ सकती/सकता है। क्लीनिकल आँकड़े संकेत करते हैं कि मनोवैज्ञानिक बीमारियाँ, चिन्ता, अवसाद, मादक द्रव्यों का सेवन, खुद को नुकसान पहुँचाना और आत्महत्या गम्भीर स्वास्थ्य परिणामों की शक्ल में सामने आते हैं।
गौरतलब है कि मुल्क में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन शोषण की रोकथाम के लिए कानून 2013 लागू है और इसके तहत जहाँ भी 10 या उससे अधिक कर्मचारी हैं, तो वहाँ आंतरिक शिकायत समिति का गठन अनिवार्य है। ध्यान देने वाली बात यह है कि खेल सुविधा प्रदान करने वाले संस्थान भी इस कानून की जद में हैं। कानून में कार्यस्थल की परिभाषा को साफ करने वाला एक उप-सेक्शन है, जो कहता है कि कोई भी खेल संस्थान, स्टेडियम, स्पोट्र्स कॉम्पलेक्स, और प्रतियोगिता या खेल की जगह, सब इसमें कवर होते हैं। लेकिन क्या खेल संघ इस मामले को गम्भीरता से लेते हैं? जवाब निराश करने वाला ही नहीं, बल्कि यह भी बताता है कि पुरुष वर्चस्व वाले खेल जगत में खेल की दुनिया का ढाँचा पुरुषों के प्रति झुका हुआ है। आज पुरुषों के मुकाबले महिला खिलाडिय़ों को मिलने वाले संसाधनों में बहुत अन्तर है। महिला खिलाड़ी कड़े संघर्ष के साथ मुल्क का नाम तो रोशन कर रही हैं, लेकिन उनकी बेहतरी के लिए सरकारी तंत्र को कड़ा बनाने की ज़रूरत है, ताकि महिला खिलाड़ी प्रशिक्षण केंद्रों में जहाँ वे अपनी ज़िन्दगी, करिअर के महत्त्वपूर्ण साल गुज़ारती हैं; सुरक्षित महसूस करें। इसके अलावा वे स्टेडियम में हों या किसी खेल-परिसर में, सुरक्षा उनका अधिकार है। महिला सुरक्षा राज्यों और राष्ट्र का पहला कर्तव्य होना चाहिए। तंत्र को उचित समय पर मामलों की सुनवाई कर दोषियों को कड़ी सज़ा देकर संदेश देना चाहिए कि तंत्र महिलाओं के साथ खड़ा है, न कि मामलों को लटकाकर अपनी असंवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। अपराध करने वालों के िखलाफ कड़ी कार्रवाई करना समय की माँग है। सज़ा में नरमी बरतना भी एक तरह से अपराधी के लिए दंड मुक्ति का ही काम करता है।
नाबालिग लड़कियाँ, खेल के ज़रिये देश के तिरंगे को फहराने का गौरव हासिल करने, तालिका सूची में देश को सम्मानजनक जगह दिलाने के लिए अपने खेल को बेहतर बनाने, खेल का हुनर सीखने के लिए अपने अपने कोच यानी गुरु पर भरोसा करती हैं कि उन्हें वहाँ गुरु की साया में सुरक्षित माहौल मिलेगा; लेकिन आँकड़े भयावह व भद्दी तस्वीर सामने रखते हैं। चमकते खेल मैदान और उनके चारों और लगे बड़े-बड़े विज्ञापन बोर्ड, टीवी चैनल पर खेल प्रतियोगिता के प्रसारण के दौरान आने वाले विज्ञापन हमारी आँखों के सामने खेल की दुनिया के इस कुरूप पक्ष को ओझल रखने में बड़ी भूमिका निभाते नज़र आते हैं। यह चकाचौंध माहौल हमें खेल का जश्न मनाने के लिए इस कद्र अपनी आगोश में ले लेता है कि इस सच्चाई की ओर ध्यान ही नहीं जाता कि सरकारी खेल तंत्र उन युवा खिलाडिय़ों को संरक्षण मुहैया कराने में विफल रहता है, जब वे नाबालिग होती हैं। ऐसे में आवश्यकता हैं ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ अपनाने की। इसके साथ-साथ महिलाओं के प्रति सम्मानजनक नज़रिये वाले माहौल की भी दरकार है।