‘मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में है, नयी पीढ़ी में है। भारतीय युवा सिंहों की भाँति सभी समस्याओं का हल निकालेंगे। उन्हीं के प्रयत्न और पुरुषार्थ से भारत देश गौरवान्वित होगा।’ युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द में भारत की जिस युवा पीढ़ी को लेकर इतना आत्मविश्वास था, उसी युवा पीढ़ी के अनेक युवाओं को उनके बारे में ज़्यादा पता नहीं। 12 मार्च को राष्ट्रीय युवा दिवस स्वामी विवेकानन्द जयंती के रूप में मनाया जाता है और स्कूलों व कॉलेजों में अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। पिछले वर्ष इसी दिन के उपलक्ष्य में एक चैनल द्वारा दिल्ली में कई युवाओं से पूछा था कि स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानते हैं? तो इक्का-दुक्का को छोडक़ार युवाओं के उत्तर हैरान करने वाले थे।
देश के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैम्पस मेें जो हिंसा हुई है, वो शिक्षण संस्थानों पर कलंक लगाने वाली है। कारण जो भी रहे हों, ऐसी हिंसा एक तरफ युवा शक्ति की असहिष्णुता का संकेत है, तो दूसरी तरफ शिक्षा के मूल स्वरूप पर सवाल खड़े करती है। देश के पूर्व राष्ट्रपति स्व. डॉ. अब्दुल कलाम आज़ाद ने जिस युवा शक्ति को राष्ट्र विकास का आधार बताया है और कहा है- ‘जब हमारे पास 25 वर्ष की से कम की आयु वाले 54 करोड़ युवा हैं तो फिर भला हमें सन् 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बनने से कौन रोक पाएगा?’ उन्होंने माना कि देश की आर्थिक तरक्की में 50 फीसदी से ज़्यादा युवाओं का योगदान है। इसी युवा शक्ति का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र के विकास के लिए आह्वान करते हैं। लेकिन हिंसा की ऐसी घटनाएँ वौद्धिक और संवेदनशील लोगों के सामने कई यक्ष प्रश्न खड़े करती हैं कि क्या देश के विकास का मॉडल और नये भारत का निर्माण हिंसक घटनाओं और भय की नींव से निर्मित होगा? ऐसे में देश के महापुरुषों का स्मरण, उनके आदर्श और मूल्यों पर विचार मंथन प्रासंगिक हो उठता है। युवा शक्ति का ह्रास कैसे होता है? इसका ज्वंलत उदाहरण है निर्मया मामले में दोषियों को दी जाने वाली फाँसी, जिसमें फैसला जा चुका है। एक बार साईं प्रसन्न कुमार के छात्र ने स्व. डॉ. कलाम के दौरे पर उनसे सवाल पूछा था कि बिल गेट्स जैसे लोग जब एड्स से लडऩे के लिए भारत को दान देते हैं, तो आपको कैसा लगता है? चाहे कलाम ने इसका न्यायसंगत उत्तर दिया कि अनेक देश इस रोग से ग्रस्त हैं; लेकिन वहीं अपनी युवा शक्ति के लिए खतरे की घंटी जैसा है कि हम किस दिशा में आगे बढ़े हैं।
प्रसिद्ध विद्वान जे. कृष्णामूर्ति ने हिंसा को अर्ज का एक रूप बताया है। उनके अनुसार, जब ऊर्जा का उपयोग खास ढंग से किया जाता है, तो ऊर्जा आक्रमण का रूप ले लेती है। हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जो हिंसक है। जिस संस्कृति और परिवेश में हम जीते हैं, वह हमारे प्रयास, संघर्ष, पीड़ा और हमारी भयानक क्रूरता की ही उपज है। कृष्णामूर्ति कहते हैं कि हिंसा का मूल स्रोत ‘मैं’ है यानी अहंकार। जब तक किसी भी रूप में ‘मैं’ का अस्तित्व है, स्थूल या सूक्ष्म किसी भी रूप में, तब तक हिंसा मौज़ूद रहेगी।
हमें यहाँ बुद्ध की युवा शक्ति का ध्यान करना होगा। युवा सिद्धार्थ में आग धधक रही थी। वे समझ गये थे कि इच्छाएँ दु:ख का मूल हैं और इसी का उत्तर पाने को वे जंगलों-पहाड़ों में भटके, अपने को तपस्या और ज्ञान अर्जित करके महात्मा बुद्ध हो गये। शक्ति के धधकने का मतलब हिंसा करना नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त महापुरुष स्व. आचार्य महाप्रज्ञ ने हिंसा और अहिंसा को विराट रूप में समग्रता के साथ व्याख्यायित किया है। अपने एक लेख ‘अहिंसा की आस्था’ में कहते हैं कि आज का पूरा वातावरण ऐसा है कि कोई किसी को सहन नहीं कर पाता। असहिष्णुता ने हिंसा को आगे बढ़ाया है। उन्होंने सुविधावादी मनोवृत्ति और हिंसा का गहरा सम्बन्ध बताया है। वे कहते हैं कि अहिंसा एक शक्ति है, पराक्रम है, एक वीर्य है और आंतरिक ऊर्जा का विकास है। 12 मार्च को जिस युवा संन्यासी की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, आज की युवा ब्रिगेड को उन्हें खोजना होगा, जीवन में उतारना पड़ेगा। वर्ष 1893 में शिकागो धर्म संसद को स्वामी विवेकानन्द ने जिस तरीके से सम्बोधित किया था; लोगों से खचाखच भरा हॉल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूँज उठा था, अपने अपने स्थान पर खड़े होकर इस युवा संन्यासी की जादूमयी वाणी का अभिवादन करने लगे थे। इस पर उनके भाषण के बाद एक अमेरिकी महिला ने उनकी मंत्रमुग्ध करने वाली ओजस्वी वाणी और विराट व्यक्तित्व बनाने वाली शक्ति का रहस्य पूछा। इसका उत्तर देते हुए स्वामी ने कहा- ‘हाँ! मेरे पास एक ऐसी शक्ति है। मैंने अपने पूरे जीवन में मन में ब्रह्मचर्य के अलावा कोई विचार नहीं आने दिया। विचार सकारात्मक रखे। लोग सांसारिक आकर्षणों के बारे में सोचकर जिस शक्ति को व्यर्थ गँवाते हैं, मैंने उस शक्ति को चेतना के उच्च स्तर पर लगाया और वाणी में ऐसी ज़बरदस्त शक्ति विकसित की।’ वैद्धिक काल में जो गुरुकुल व्यवस्था थी, उसमें 25 वर्ष तक विद्यार्थी आश्रम में गुरु के पास रहकर ही शिक्षा लेता था। इसके पीछे यही भावना थी कि वह अपनी ऊर्जा शक्ति को जीवन के गहरे संस्कार और अर्थ जानने के लिए लगाये। जीवन की नींव पक्की तो जीवन यात्रा सुखद होती है। हमारे देश में बल्र्ड इकोनॉमिक फॉर्म के मुताबिक, 1.3 करोड़ जनसंख्या 25 से नीचे की है। युवाओं की यह जनसंख्या 2020 तक 34.33 फीसदी हो जाएगी। राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र के विकास में इस शक्ति का उपयोग कैसे करना है? यह सबकी चिन्ता और चिन्तन का विषय होना चाहिए।