2014 के आम चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा के मुद्दे भले ही अलग-अलग हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनावी नैया के लिए खेवनहार चुनने में दोनों पार्टियों ने एक विशेष तरह का एका दिखाया है. दोनों दलों ने यह जिम्मा गुजरात से ताल्लुक रखने वाले नेताओं को सौंपा है. कांग्रेस ने जहां मधुसूदन मिस्त्री को प्रदेश चुनाव प्रभारी बनाया है वहीं भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के खास सिपहसालार अमित शाह को चुनावी कमान सौंपी है. गुजरात के पूर्व गृहराज्य मंत्री शाह जहां अपने आक्रामक तेवरों के लिए जाने जाते हैं वहीं साबरकांठा से पूर्व सांसद मिस्त्री शांत रह कर संगठन को धार देने में माहिर माने जाते हैं. चुनावी प्रेक्षक चुटकी ले रहे हैं कि सियासी लड़ाई भले ही दो राजनीतिक पार्टियों के बीच हो, लेकिन साख गुजरातियों की दांव पर लगी है. वैसे यह भी संयोग ही है कि दोनों ही दलों ने पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के नेताओं के हाथ से प्रदेश का प्रभार लेकर गुजरात के नेताओं को सौंपा है.
कांग्रेस हो चाहे भाजपा, दोनों ही पार्टियों के पास प्रदेश से कई बड़े राष्ट्रीय नेता मौजूद हैं, इसके बावजूद चुनाव की कमान गुजरात के लोगों के हाथ क्यों सौंपी गई? जानकार इसके पीछे एक ही मजबूत कारण बताते हैं और वह है दोनों पार्टियों में पैर पसार चुका आंतरिक कलह. सबसे पहले बात कांग्रेस की. 2009 के लोकसभा चुनाव के समय पार्टी हाई कमान की ओर से गांधी परिवार के खास दिग्विजय सिंह को प्रदेश का प्रभारी बना कर भेजा गया. उस चुनाव में पार्टी के खाते में 80 में से 22 सीटें आईं. इस अप्रत्याशित जीत से कांग्रेस को तीन साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में आशा की एक किरण दिखाई दी. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी दिग्विजय सिंह को ही हाईकमान ने प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया. लेकिन इस बार स्थितियां 2009 वाली नहीं थीं. विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे को लेकर पार्टी कई खेमों में बंट चुकी थी.
पार्टी का संगठनात्मक ढ़ांचा तहस-नहस हो चुका था. स्थितियां यहां तक पहुंच गई थीं कि तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी व दिग्विजय सिंह के बीच भी रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रह गए थे. सिंह पर सर्वमान्य होने के बजाय जाति विशेष का नेता होने के आरोप लग रहे थे लिहाजा गुटबाजी अपने चरम पर आ गई थी. इसका खामियाजा पार्टी को प्रदेश में उठाना पड़ा. लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जहां 80 सीटों में से 22 सीटों पर जीत हासिल की थी वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में 403 में से उसके खाते में महज 21 सीटें ही आईं. आलम यह था कि गांधी परिवार की सीटें अमेठी व रायबरेली भी गुटबाजी की भेंट चढ़ गईं. इस हार से कांग्रेस हाईकमान के सामने साफ हो गया था कि लचर संगठन और गुटबाजी के कारण ही लाख प्रयासों के बावजूद पार्टी को उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा.
जानकार बताते हैं कि पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत न कर पाने और गुटबाजी को रोकने में नाकाम रहने के कारण ही गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले दिग्विजय सिंह को हाईकमान ने उत्तर प्रदेश से बाहर का रास्ता दिखा दिया. पार्टी की गुटबाजी पर एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, ‘समस्या यह है कि जिनके पास पद है उनका कोई कद नहीं है और जिनका कद है उनके पास कोई पद नहीं है.’ प्रदेश में पार्टी को इस समस्या से उबारने और 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली 22 सीटों को कम से कम सहेज कर रखने के लिए एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो संगठन को मजबूत करके गुटबाजी को कम करवाने का प्रयास कर सके.
पार्टी के ही एक दूसरे नेता बताते हैं, ‘मिस्त्री को संगठनात्मक ढांचे की तैयारी का जादूगर माना जाता है. इसका उदाहरण कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हाल ही में देखने को मिला है. कर्नाटक कांग्रेस की स्थिति भी उत्तर प्रदेश जैसी ही थी. वहां के संगठन को मजबूत करने के साथ ही प्रत्याशियों के चयन में मिस्त्री ने जमीनी स्तर पर काम किया, जिसका परिणाम रहा कि कांग्रेस को वहां सफलता मिली.’ प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता वीरेन्द्र मदान कहते हैं, ’28 जून को प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री के लखनऊ आने के बाद सबसे पहले काम संगठनात्मक ढांचे पर होगा ताकि पार्टी लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणाम दे सके.’
भाजपा की स्थिति भी कांग्रेस जैसी ही दिखती है. बसपा व सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियां जहां प्रत्याशियों के टिकट बांटकर लोकसभा चुनाव के प्रचार में जुट गई हैं वहीं भाजपा में अभी संगठन स्तर पर ही काम चल रहा है. राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि पार्टी में गुटबाजी पर कुछ विराम लगेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पार्टी आज भी खेमों में बंटी हुई है. हर गुट अपने-अपने लोगों को लोकसभा टिकट दिलवाने के लिए आतुर है. 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के खाते में 80 में से मात्र 10 सीटें आई थीं. इस बार मोदी फैक्टर के चलते जब सुगबुगाहट बढ़ी तो पार्टी से टिकट के दावेदारों की संख्या भी अचानक बढ़ गई है. पार्टी के एक एमएलसी बताते हैं, ‘टिकट के दावेदारों में मौजूदा सांसदों के अतिरिक्त वे विधायक भी हैं जो 2012 का विधानसभा चुनाव जीते हैं. इसके अतिरिक्त टिकट चाहने वालों की फेहरिस्त में कई पूर्व विधायकों व सांसदों के नाम भी शामिल हैं. ऐसे में सबको टिकट देकर खुश करना संभव नहीं है.’ सूत्रों की मानें तो पार्टी को डर है कि टिकट बंटवारे के बाद कहीं गुटबाजी खुल कर सामने न आ जाए जिसका खामियाजा चुनाव में पार्टी को उठाना पड़े. इसे ही ध्यान में रखते हुए प्रदेश के किसी बड़े चेहरे को चुनाव प्रभारी न बना कर गुजरात के अमित शाह को यह जिम्मा सौंपा गया है. मकसद यह है कि स्थानीय नेताओं के इर्द-गिर्द होने वाली गणेश परिक्रमा पर विराम लगाया जा सके.
जानकारों की मानें तो इस सबके अलावा पिछले कुछ समय से मोदी फैक्टर के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भी शाह को प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है. पार्टी सूत्रों के अनुसार 80 लोकसभा वाले उत्तर प्रदेश से भाजपा को काफी उम्मीद दिख रही है इसलिए आक्रामक तेवरों वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मस्थली चुनते हुए लखनऊ, वाराणसी या किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ने का एलान कर सकते हैं. ऐसे में मोदी के खास सिपहसालार शाह जहां शहरी तबके को गुजरात के विकास का एजेंडा बता कर प्रभावित करने का प्रयास करेंगे वहीं पर्दे के पीछे से हिंदुत्व की हवा को तेज करके एक खास वर्ग को पार्टी से जोड़े रखने के फॉर्मूले को बरकरार रखेंगे.
उधर, पार्टी का एक गुट मोदी व शाह के फॉर्मूले में कम यकीन रखता है. उसका तर्क है कि विधानसभा चुनाव में भी फायर ब्रांड उमा भारती को प्रदेश की कमान सौंपी गई थी, लेकिन चुनाव के बाद जो नतीजे आए वे बदतर थे. ऐसे में पार्टी जब तक गुटों में बंट कर चुनाव लड़ेगी तब तक परिणाम 2012 के विधानसभा चुनाव वाले ही निकलेंगे. इस वर्ग का मानना है कि मोदी या शाह कोई जादूगर नहीं हैं जिनसे अचानक किसी चमत्कार की उम्मीद की जा सके. शाह के प्रदेश प्रभारी बनाए जाने पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि किसी बाहरी व्यक्ति को उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया गया है. पिछले 15 सालों से ऐसा होता आ रहा है. जिस तरह यूपी के दूसरे नेताओं को बाहरी राज्यों का प्रभारी बनाया गया है उसी तरह शाह को उत्तर प्रदेश का.’
दोनों प्रभारियों का राज्य एक है लेकिन कार्यशैली अलग. अमित शाह को अपने आक्रामक तेवरों के लिए जाना जाता है तो मधुसूदन मिस्त्री को अपने शांत स्वभाव के लिए. ऐसे में देखना यह है कि लोकसभा चुनाव में प्रदेश की जनता पर किस गुजराती का जादू चलेगा.