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ताराबाई मारुति कभी दिहाड़ी मजदूर थीं. आज उनके पास 17 गायें हैं और वे ढाई सौ से तीन सौ लीटर दूध रोज बेचती हैं. वे बताती हैं, ‘पहले मजदूरी करते थे. पांच-दस रुपये रोज मिलते थे तो खाना मिलता था. आज आमदनी बढ़ गई है.’
हिवड़े बाजार नाम के जिस गांव में ताराबाई रहती हैं वहां के ज्यादातर लोगों का अतीत कभी उनके जैसा ही था. वर्तमान भी उनके जैसा ही है. आज राजनीति से लेकर तमाम क्षेत्रों में जिस युवा शक्ति को अवसर देने की बात हो रही है वह युवा शक्ति कैसे समाज की तस्वीर बदल सकती है, इसका उदाहरण है हिवड़े बाजार.
दो दशक पहले तक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में बसे इस गांव की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मजदूरी करने आस-पास के शहरों में चला जाता था. यानी उन साढ़े छह करोड़ लोगों में शामिल हो जाता था जो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश के 4000 शहरों और कस्बों में नारकीय हालात में जी रहे हैं. बहुत-से परिवार ऐसे भी थे जो पुणे या मुंबई जैसे शहरों में ही बस गए थे. जो गांव में बचे थे उनके लिए भी हालात विकट थे. जमीन पथरीली थी. बारिश काफी कम होती थी. सूखा सिर पर सवार रहता था. 90 फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे. शराब का बोलबाला था. झगड़ा, मार-पिटाई आम बात थी. मोहन छत्तर बताते हैं, ‘कॉलेज में पढ़ते थे तो बताने में शर्म आती थी कि हम हिवड़े बाजार के हैं.’
लेकिन आज शर्म की जगह गर्व ने ले ली है. हिवड़े बाजार आज अपनी खुशहाली के लिए देश और दुनिया में सुर्खियां बटोर रहा है. पलायन तो रुक ही गया है, जो लोग हमेशा के लिए शहर चले गए थे वे भी वापस आकर गांव में बसने लगे हैं. आज गांव की प्रति व्यक्ति आय औसतन 30 हजार रु सालाना है. 1995 में यह महज 830 रु थी. गांव के उपसरपंच पोपट राव पवार कहते हैं, ‘तब ज्वार-बाजरा भी मुश्किल से होता था. आज हम हर साल एक करोड़ रुपये की नगदी फसल उगाते हैं. डेयरी का काम भी फैला है. गांव में रोज 4000 लीटर दूध का कलेक्शन हो रहा है.’
हिवड़े बाजार जाने पर आपको तरतीब से बने गुलाबी मकान दिखेंगे. साफ और चौड़ी सड़कें भी. नालियां बंद हैं और जगह-जगह कूड़ेदान लगे हैं. हर जगह एक अनुशासित व्यवस्था के दर्शन होते हैं. शराब और तंबाकू के लिए अब गांव में कोई जगह नहीं रही. हर घर में पक्का शौचालय है. खेतों में मकई, ज्वार, बाजरा, प्याज और आलू की फसलें लहलहा रही हैं. सूखे से जूझते किसी इलाके में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं. 235 परिवारों और 1,250 लोगों की आबादी वाले इस गांव में 60 करोड़पति हैं.
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए 20 लोग नहीं चला सकते. वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए.’ हिवड़े बाजार ने यही कर दिखाया है. युवा शक्ति कैसे ग्राम स्वराज ला सकती है यह सिखाता है हिवड़े बाजार.
85 साल के रावसाहेब राऊजी पवार याद करते हैं, ‘हमारे गांव में गरीबी थी. हालांकि हम अपनी सीधी-सादी जिंदगी से खुश थे. लेकिन 1972 के अकाल ने हमारे गांव की शांति छीन ली. जमीन पथरीली थी. पानी न होने से हालात और खराब हो गए. वह सामाजिक ताना-बाना बिखर गया जो गरीबी के बावजूद लोगों को एक रखता था. लोग शराब के चक्कर में पड़ गए. जरा-सी बात पर झगड़ा हो जाता. जिंदगी चलाना मुश्किल हो गया सो गांव के कई लोग मजदूरी करने पास के शहरों में जाने लगे.’
फिर एक दिन गांव के कुछ नौजवानों ने सोचा कि क्यों न हालात बदलने की एक कोशिश की जाए. किसी ऐसे युवा को सरपंच बनाकर देखा जाए जो एक जोश और नई सोच लेकर आए. पोपटराव पवार तब हिवड़े बाजार के अकेले युवा थे जो पोस्टग्रैजुएट थे. नौजवानों ने उनसे आग्रह किया कि वे सरपंच पद के लिए चुनाव लड़ें. यह 1989 की बात है. लेकिन पवार का परिवार यह मानने को तैयार नहीं था. उनके घरवाले चाहते थे कि वे शहर जाएं और कोई अच्छी नौकरी करें. पवार क्रिकेट के खिलाड़ी थे और वे इस खेल में करियर बनाना चाहते थे. लेकिन नौजवानों के बहुत आग्रह पर वे चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए. पहले तो बुजुर्गों का रवैया कुछ ऐसा रहा कि कल के लड़के हैं, ये क्या करेंगे. लेकिन फिर सहमति बनी कि चलो एक साल इन्हें भी देख लेते हैं. सरपंच पद पर पवार का चयन निर्विरोध हुआ. फिर शुरू हुआ बदलाव. पवार ने गांववालों से कहा कि अपना विकास उन्हें खुद करना होगा. गांव में शराब की 22 भट्टियां थीं. फसाद की यह जड़ खत्म की गई. पवार की कोशिशों से ग्राम सभा का बैंक ऑफ महाराष्ट्र के साथ तालमेल हुआ जिसने गरीब परिवारों को कर्ज देना शुरू किया. इनमें वे परिवार भी शामिल थे जो पहले शराब बना रहे थे. 71 साल के लक्ष्मण पवार कहते हैं, ‘पानी की कमी ने खेत बंजर कर दिए थे. हताश होकर लोगों ने शराब पीना, जुआ खेलना, लड़ना-झगड़ना शुरू कर दिया. शराब ने हमें बर्बाद कर दिया था, इसलिए जब भट्टियां बंद हुईं तो हमें लगा कि कुछ उम्मीद है.’
फिर पानी सहेजने और बरतने की व्यवस्था बनाने का काम शुरू हुआ. पवार का मंत्र था कि यह सबका काम है इसलिए सबको इसमें जुटना होगा. जल्द ही गांव में चेक डैमों और तालाबों का जाल बिछ गया. पवार कहते हैं, ‘हमने सरकारी योजनाओं के पैसे का सही इस्तेमाल किया. लोगों ने खुद मेहनत की तो इसके दो फायदे हुए–मजदूरी बची और काम की क्वालिटी भी बढ़िया हुई. और हम भी तो यह सब अपने और अपने बच्चों के लिए ही कर रहे थे.’ मकसद यह था कि बरसने वाले पानी की एक-एक बूंद सहेजी जाए. हिवड़े बाजार जिस भौगोलिक क्षेत्र में है उसे वृष्टि छाया क्षेत्र यानी रेन शैडो जोन कहा जाता है. यहां साल भर में 15 इंच से ज्यादा बरसात नहीं होती. तालाब बने तो बारिश का पानी ठहरा. धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी. 1995 से पहले गांव में 90 खुले कुएं थे और पानी का स्तर 80-125 फुट नीचे था. आज गांव में 294 खुले कुएं हैं और पानी का स्तर 15-40 फुट तक आ गया है. इसी अहमदनगर जिले में दूसरे गांवों को पानी के लिए 200 फुट तक बोरिंग करनी पड़ती है. गांव के ही हबीब सैयद बताते हैं, ‘2010 में 190 मिमी ही बारिश हुई लेकिन पानी की व्यवस्था होने से हमें कोई दिक्कत नहीं हुई.’
पानी आया तो खुशहाली आने में ज्यादा देर नहीं लगी. पहले मानसून के बाद ही गांव में सिंचित क्षेत्र 20 हेक्टेयर से 70 हेक्टेयर हो गया. जहां ज्वार-बाजरा उगना भी मुश्किल था वहां कई फसलें होने लगीं. किसानी बढ़ी तो काम भी बढ़ा. मजदूरी महंगी थी तो पवार ने एक तरीका निकाला. उन्होंने सामूहिकता पर जोर देना शुरू किया. एक किसान की बुआई में पूरे गांव के लोग शामिल हो जाते. फिर मजदूरों की क्या जरूरत. मजदूरी तो बची ही, आपसदारी की भावना भी मजबूत हुई. पवार कहते हैं, ‘बदलाव पैसे से नहीं आया. यह आया क्योंकि लोग जाति और राजनीति की तमाम दीवारें तोड़कर एक साझा मकसद के लिए साथ आए.’
खेती के बाद पवार ने आजीविका के लिए एक और स्रोत पर ध्यान दिया. उन्होंने पशुओं की जंगल में मुक्त चराई बंद करवाई. क्योंकि इसका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा था. उन्होंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे चारे का उत्पादन बढ़ाएं. चारे का उत्पादन बढ़ा तो तो पशुओं की संख्या भी बढ़ी और धीरे-धीरे दुग्ध उत्पादन भी. 1990 में गांव में दुग्ध उत्पादन का आंकड़ा डेढ़ सौ लीटर प्रतिदिन था. आज यह चार हजार लीटर रोज पर पहुंच गया है. 1995 में गांव के 182 परिवारों में से 168 लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे. आज सरकारी रिकॉर्ड यह संख्या तीन बताते हैं. पवार कहते हैं, ‘गांव को बीपीएल फ्री बनाने के लिए हमें बस एक साल और चाहिए.’
तो आश्चर्य क्या कि देश के दूसरे गांवों में जहां लोग पलायन करके शहर जा रहे हैं वहीं हिवड़े बाजार में उल्टी बल्कि कहा जाए तो सीधी गंगा बहने लगी है. 1997 से लेकर आज तक 93 परिवार अलग-अलग शहरों से गांव वापस लौट चुके हैं. इस उल्टे पलायन ने उन्हें सुखी बनाया है. चर्चित पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘पलायन इसलिए हो कि अपने यहां कुछ नहीं बचा और इसलिए पेट पालने के लिए दिल्ली, मुंबई या जयपुर चले जाते हैं तो यह उस व्यक्ति और मिट्टी दोनों का अपमान है. हिवड़े बाजार ने इस अपमान का कलंक अपने माथे से हटा दिया है.’ यह खुशहाली आगे भी चलती रहे इसके लिए भी बीज बोए गए हैं. यहां प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थियों के लिए जल प्रबंधन का अनिवार्य कोर्स रखा गया है. पानी जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल न हो इसके लिए जल बजट बनाया जाता है. कितना पानी उपलब्ध है इसके लिए हर महीने रीडिंग ली जाती है. वॉटरशेड कमेटी के साथ काम करने वाले शिवाजी थांगे कहते हैं, ‘वॉटर ऑडिट के जरिए फैसला किया जाता है कि किस मौसम में कौन-सी फसल बोनी है.’
अच्छी चीजें कई मोर्चों पर आई हैं. ग्राम पंचायत ने अब फैसला किया है कि परिवार की दूसरी लड़की की शिक्षा और शादी का खर्च पूरा गांव उठाएगा. सात सदस्यों वाली पंचायत में तीन महिलाएं हैं. सुनीता शंकर इस साल सरपंच बनी हैं और पवार ने उपसरपंच की जिम्मेदारी संभाली है. गांव में दहेज नहीं लिया जाता. किसी भी तरह का नशा बंद है. गांव का स्कूल एक वक्त सिर्फ नाम के लिए रह गया था. आज यह अच्छे से चल रहा है. यहां बच्चों की एक संसद है जो इस पर निगाह रखती है कि शिक्षक नियमित रूप से आ रहे हैं या नहीं और यह भी कि छात्रों की क्या शिकायतें हैं. ग्राम संसद भी है जहां सब लोग मिलबैठकर चर्चा करते हैं. स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे पढ़ने का सिलसिला भी मजबूत हुआ है. गांव के 32 विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं. गांव में सिर्फ एक मुस्लिम परिवार है. उसके लिए कोई मस्जिद नहीं थी तो गांववालों ने खुद एक मस्जिद बना दी. परिवार के मुखिया बनाभाई सैयद अपने परिवार के साथ हिंदू त्योहारों में भी शामिल होते हैं और भजन गाते हैं.
भविष्य की सोचने में भी हिवड़े बाजार आगे रहा है. 2008 में ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया. इसके मुताबिक गांव के भीतर कार की जगह साइकिल के इस्तेमाल को कहा गया ताकि ईंधन की बचत हो सके. 17 किलोमीटर दूर अहमदनगर जाना हो तो गांव के लोग कारपूल कर लेते हैं. पवार अब सौर ऊर्जा के इस्तेमाल की सोच रहे हैं. वे यह भी चाहते हैं कि गांव में पूरी तरह से जैविक खाद का इस्तेमाल हो. वे कहते हैं, ‘हालांकि अभी भी सिर्फ 20 फीसदी ही रासायनिक खाद का इस्तेमाल होता है. इसके बाद हम जैविक उत्पादों का अपना मार्केट बनाएंगे.’ युवा शक्ति से छह लाख गांवों या कहें तो देश की तस्वीर कैसे बदल सकती है, हिवड़े बाजार इसका सबक है.
-तहलका ब्यूरो