एक बार फिर टीवी स्टूडियो, अखबारों और सोशल मीडिया में युद्ध के नगाड़े बजने लगे हैं. न्यूज चैनलों और अखबारों में सेना के रिटायर्ड जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों से लेकर शिवसेना नेताओं की मांग बढ़ गई है. चैनलों के प्राइम टाइम बहसों में मोर्चाबंदी हो गई है. तने चेहरों, भिंचे जबड़ों और मुंह से झाग फेंकते एंकरों से लेकर ट्विटर और फेसबुक वीरों की देशभक्ति उबाल मार रही है. वे कोई भी लाइन ऑफ कंट्रोल मानने को तैयार नहीं हैं. खुद उनके मुताबिक, उनके बर्दाश्त की सीमा पार हो चुकी है. वे देश को झकझोर रहे हैं. सरकार को ललकार रहे हैं.
वे सभी चाहते हैं कि पाकिस्तान को उसकी धोखाधड़ी के लिए सबक सिखाया जाए. हालांकि शिवसेना नेताओं और फेसबुकिया वीरों को छोड़कर कोई भी सीधे पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने की बात नहीं कर रहा है, लेकिन चैनलों से लेकर अखबारों तक में खबरों या बहसों के एंगल, भाषा और तेवर से साफ है कि वे युद्ध से कम कुछ भी नहीं चाहते हैं. सच यह है कि उनका वश चलता तो भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक युद्ध शुरू हो चुका होता. हमेशा की तरह इस युद्धोन्मादी ब्रिगेड की अगुवाई ‘टाइम्स नाऊ’ और उसके एंकर जनरल अर्नब गोस्वामी कर रहे हैं. लेकिन इस होड़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है.
खबरों में तथ्य पीछे छूट गए हैं. उन्हें चुनिंदा संदर्भों में पेश किया जा रहा है और असुविधाजनक सवालों को अनदेखा किया जा रहा है
नतीजा सबके सामने है. पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे वस्तुनिष्ठता, तथ्यपरकता, संतुलन आदि को इस युद्ध में सबसे पहले कुर्बान किया जा रहा है. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है, लेकिन एक बार फिर खबर और विचार के बीच का फर्क मिट गया है. खबर पर विचार हावी है और विचार पर उन्माद सिर चढ़कर बोल रहा है. आश्चर्य नहीं कि खबरों में तथ्य पीछे छूट गए हैं, उनकी जांच-पड़ताल और छानबीन का काम गुनाह बन गया है, उन्हें चुनिंदा संदर्भों में पेश किया जा रहा है और असुविधाजक तथ्यों, सवालों और संदर्भों को अनदेखा किया जा रहा है.
ऐसा लगता है जैसे सभी चैनलों-अखबारों और उनके एंकरों और रिपोर्टरों की देशभक्ति का टेस्ट हो रहा है जिसमें फेल होने का जोखिम उठाने को कोई तैयार नहीं है. देशभक्ति के इस टेस्ट में तथ्य-तर्क, विवेक और संयम की बात करने का मतलब फेल होना है. खबरें सिर्फ सेना या रक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों पर निर्भर हैं और उनकी स्वतंत्र सूत्रों से पुष्टि या छानबीन का जोखिम उठाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है. इस माहौल में सवाल उठाना कुफ्र के बराबर है. खासकर हाल में एलओसी पर पाकिस्तान के साथ सैन्य झड़पों के बारे में सेना के बयान, भूमिका और आम तौर पर उसके कामकाज से जुड़े मुद्दे किसी भी तरह के सवाल और जांच-पड़ताल से दूर रहने वाली ‘देशभक्त और युद्धोन्मादी पत्रकारिता’ के दायरे से बाहर हैं.
यह सही है कि ऐसी ही ‘देशभक्त और युद्धोन्मादी पत्रकारिता’ सरहद के पार भी हो रही है. लेकिन सवाल यह है कि इस पत्रकारिता से किसे फायदा हो रहा है और इसकी कीमत कौन चुका रहा है. क्या यह दोनों ओर का युद्धोन्मादी न्यूज मीडिया या जेहादी और सांप्रदायिक अंध-राष्ट्रवादी जमातें या हथियार कंपनियां और उनके एजेंट या फिर भ्रष्टाचार-महंगाई-कुशासन के गंभीर आरोपों से घिरी सरकारें नहीं हैं जो अंदर-अंदर सबसे ज्यादा खुश और गदगद हैं? पी साईंनाथ के शब्दों में थोड़ा हेरफेर करके कहें तो यही कारण है कि ‘युद्ध की संभावनाओं से सभी प्यार करते हैं.’