मन में एक तरह का भय बराबर बना रहता है। सोचता हूं, जीवन बीमा करा ही डालूं। पहले भी कई लोग कई बार समझा चुके हैं। मजुमदार के साथ इसी बात को लेकर मेरी दोस्ती भी खत्म हो गई। अब सामने से आते हुए दिखायी पडऩे पर फुटपाथ बदल लेता है। ‘मेरे सामने कोई खतरा नहीं, पशुपति! किसी तरह दो जून खा लेता हूं, यही बहुत है। बचने-बचाने का सवाल ही नहीं उठता।’ मैनें उस दिन इतना ही कहा था।
और पशुपति मजुमदार मेरी बात का बुरा मान गया। शायद मेरी सफाई से उसे कुछ लेना देना नहीं था। उसके दिमाग में उसका अपना बिजनेस था जिसको वह मेरे भविष्य में ढूंढ़ रहा था। इसीलिए प्रत्युत्तर में उसने बहुत क्रूर होकर कहा था – ‘समझ गया दोस्त। तुम…. तुम मेरे बिजनेस को तोडऩा चाहते हो। चाहते हो, मेरी इन्स्योरेंस वाली यह एजेंसी भी चली जाय। फिर बीबी-बच्चों के साथ मैं भूखा मरूं और बाद में आत्म-हत्या कर लूं।’
मर्माहत होकर जब मैंने कहा ‘नहीं, नहीं, ऐसा तो हरगिज नहीं’ वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं था। वह जैसे किसी फैसले पर पहुंच चुका था और हमारे 12 वर्ष के अंतरंग संबंध अचानक चकनाचूर होकर कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गये थे।
एक अर्से से यह महसूस हो रहा है कि पशु अब संभल-संभल कर चलता हुआ मेरी तरफ दुश्मन अंदाज में देखता है। मुझे हंसी आती है और सोचता हूं कि उसको पकडंू। क्योंकि मालूम है, वह चाहकर भी ऐसा कुछ नहीं कर सकता।
मैं अपने आपको नहीं रोक पा रहा। कहते हैं, दोस्ती में बड़ा से बड़ा खतरा भी बहुत छोटा होता है। मुझे एक रिस्क लेना ही चाहिए। एक बार बोलकर देखूं तो, क्यों दोस्त, हो गया भविष्य का हिसाब-किताब? लेकिन अब बोलना बेकार है। वह पीछे लौट रहा है और मैं उसकी पीठ देख रहा हूं। धत्त तेरे की… उज्जवल भविष्य…।
मैं बाईं ओर मुड़ जाता हूं। बाईं तरफ निकलने वाला यह रास्ता बहुत दूर तक जाता है। शहर के लोगों का कहना है कि यह रास्ता जितना पुराना है उससे कहीं ज्य़ादा खतरनाक है। इसको कई बार जगह-जगह से काटा गया। नतीजा यह हुआ कि चौराहे के मानिंद तीन-चार मोर्चे और उतने ही गलीनुमा सुरंग बन गए, जैसे मरने-जीने की स्थितियां कई अनजान लकीरों में बंटकर ज़मीन पर रह गई हों।
सहसा मेरी आंखों के सामने से पशु की पत्नी और बच्चे ओझल होने लगते हैं… असहाय और बेपनाह…. लेकिन वह रहा आत्महंता पशुपति मजुमदार, अपने कमरे की छत से झूलता हुआ। एकदम कायर और कू्रर। गले में कसी हुई पतली सी रस्सी और निर्जीव आंखे नीचे फर्श पर झुकी हैं। मेरा पूरा शरीर झनझना उठता है। कुछ लोग बस स्टॉप और मिनर्वा के सामने चुपचाप खड़े हैं, रेडियो से खबर इन्हें भी मिल चुकी है। सेन बाबू अब आफिस में पाकेट रेडियो लाते हैं। टिफिन में खाना होता है खाते हुए वे रेडियो से ‘विशेष-विशेष खबर’ सुनते हैं। आज कहने लगे- ‘ए सिन्हा, तुमि कोन पाड़ाय थाको? बेनेपुकुर मा। सर्वनाश। सेई खाने तीनटि खून होये छे। एकांट छेले आर दुई जन पुलिस मारा गेछे। ठो बुझो ना। ताड़ातड़ी बाड़ी फिरे जाओ। एई सब रेडियो खबर।’
– (ए सिन्हा, तुम किस मुहल्ले में रहते हो? बेनियापुकुर ना। सर्वनाश। वहां तीन आदमियों की हत्या हुई है। एक नौजवाल लड़का और पुलिस के दो आदमी मारे गये हैं। मज़ाक नहीं समझो। जल्दी से घर लौट जाओ। यह सब रेडियो की खबर है।) अभी इन लोगों को पता चल जायेगा। ट्राम और बसें तो दोपहर से ही बंद हंै। जो लोग फुटपाथ सड़क पर चल रहे हैं उनके चेहरे पर भगदड़ की तबाही है। एक नुक्कड़ को पार कर दूसरे पर क्षण भर के लिए रुकते हैं और हांफते हैं। फिर लंबी सांस खींचते हंै और बगल की किसी गली में घुस जाते हैं।
इन्हीं गलियों में से एक के अंतिम छोर से सटकर जो मुहल्ला फैलता है उसमें सिर्फ कोठे ही कोठे हैं। मेरा ख्याल है, यहां की सभी औरतें बासी और बरबाद हैं सभी मर्द भडुआ और तहस-नहस। यहां के लड़के देशी ठर्रा पी कर बूढ़ों की तरह बात करते हैं। इस हालत में वे सबसे ज़्यादा ज़ोर अपने अनुभव पर देते हैं। फिर कुछ देर बाद अपने अनुभव की पीड़ा में किसी कोठे के नीचे या गली के बीचोबीच हो जाते हैं और छटपटाते रहते हैं…।
अनुभव का महत्व मेरे दिमाग में कुछ दिन पहले बहुत बड़ा था और इसकी तलाश में मैं भी वहां गया था। सड़क को पार कर के जब मुहल्ले में घुसा तो सबसे पहले वहां अनुमानत: अमेरिका से निकले हुए ‘इंटरनेशनल टूरिस्ट’ नजऱ आए थे। आने-जाने वाले लोग कोठों की तरफ न देख कर इन्हीं को घेर कर देख रहे थे और ये अमेरिकन टूरिस्ट एक बार मुसकरा कर भीड़ का मनोरंजन करते, दूसरी बार कोठों पर नजऱ दौड़ाते और तीसरी बार अपनी एक आंख दबाते और बड़ी सावधानी से उन कोठों को अपने कैमरों में उतार लेते जैसे ये कोठे बिड़ला-प्लेनेटेरियम और विक्टोरिया मेमोरियल हों।
मेरा मन वितृष्णा से भर गया था। जब मैं उस मुहल्ले से ऊबकर बाहर निकल आने के लिए भाग-सा रहा था एक अधेड़ व्यक्ति को एक युवक से यह कहते सुना कि ‘छुरा गरम रहे उस्ताद! पानी लगे तो सिर्फ रंग उतरे, सान नहीं’। मेरा कलेजा मुंह को आने लगा था और जब मैं जल्दी से आगे बढऩे लगा तब फिर उसकी आवाज़ सुनायी पड़ी- अरे बाबू, इधर नहीं उधर से। इधर तो माल-पानी का गोदाम है। सिर्फ गड्डी वाला जाता है’। मैं चक्कर काटता रहा था। जब निकला तो यही फुटपाथ मिला था जिस पर अभी चल रहा हूं।
कोई लगातार मेरा पीछा कर रहा है। उसी जगह से जहां पशु ने पीठ दिखायी थी, मैंने यह रास्ता पकड़ लिया। जो मेरे पीछे है, जानता हुं, आगे नहीं आ सकता। शायद इसीलिए वह पीछे है और मेरा पीछा कर रहा है। उसके हाथ में छुरा है और उसकी नजऱ मेरी गर्दन पर है। गर्दन घुमाकर कभी-कभी पीछे देख लेता हूं। घर कुछ दूर है। दूरी के ख्याल से मैं घबराने लगा हूं। उठते पैरों में जैसे चुम्बक चिपक रहा हो। दुकानें सब बंद हैं। बिजली के खंभों पर एक भी बल्ब साबुत बचा नहीं दिखता। अंधेरा बढ़ता जा रहा है। ‘साले जान से मार डालूंगा। छुरा दिखाता है’- बड़बड़ाता हूं। बूढ़े ने अपना दाहिना हाथ पहले बढ़ाया और मुंह बाद में खोला… ‘बाबू खिएना पेयेछे। किच्छु दिन।’ (बाबू भूख लगी है। कुछ दो) मंै आगे बढ़ गया यह सोचता हुआ कि बाबूजी कई साल से गांव पर बीमार पड़े हैं।
डाक्टर साहब कहते हैं इलाज बहुत कायदे से चल रहा है लेकिन बुढ़ौती का क्या भरोसा। जैसे बुढ़ौती कोई लाइलाज बीमारी हो। मां तो और बीमार रहती है। कभी माथे में चक्कर तो कभी शरीर में सूजन और उनकी सांस की बीमारी तो बहुत लंबी है। दौरा पडऩे पर कई बार उनका शरीर सुन्न पड़ चुका है। कई दिन कई घंटों तक वे बेहोश पड़ी रही है। ऐसा अब तक पांच बार हो चुका है। और मां की इच्छा के विरुद्ध और बाबूजी की इस कोशिश के बाबजूद कि चिंता की कोई खबर मुझ तक नहीं पहुंचे, मुझे इस बारे में तीन-तीन बार ज़रूरी तार मिल चुके हैं। इसका मतलब मां का इलाज नहीं होगा। मात्र इसलिए कि उनकी भी बुढ़ौती है। डाक्टर की खोपड़ी तोड़ दूंगा…।
मैंने विनय को दुहराया। उसने अपने पिछले ख़त में साफ-साफ लिखा था कि ‘डाक्टर साहब गड़बड़ इलाज करते हैं। यदि आप चाहते हंै कि मां सचमुच ही मरने से बच जाये तो इन डाक्टर साहब को बदल डालिए। कभी गांव आकर देखिए तो पता चले। डाक्टर साहब दो कौड़ी के डाक्टर हैं। ऐसी हालत में मेरा पढऩा लिखना बेकार है। मेरे लिए कोई काम देखिए’।
पूरा खत पढऩे के बाद मन खराब-सा हो गया था। पूरे 19 का हो गया, तमीज़ अब तक नहीं आई। इसमें डाक्टर साहब का दोष क्या है। वह तो इतने मेहरबान हैं कि अपनी फीस का पूरा हिसाब तक नहीं रखते। कम पैसे मिलने पर भी चुप रहते हैं। मैं क्या कर सकता हूं। मेरे तो हाथ-पैर पहले से बंधे हैं। महीने के अंत में जो कुछ मिलता है उसके दूसरे या तीसरे दिन सब निकल जाता है। मेरे हाथ फिर बिल्कुल खाली पड़ जाते हैं। निहत्था मैं डाक्टर साहब की खोपड़ी कैसे तोड़ सकता हूं।
मुझे धीरज से काम लेना चाहिए। सब ठीक हो जाएगा। अगर, ऐसे ही ठीक होता रहता तो इतनी मार-पीट क्यों लगती।
यह है सामने रवीन्द्र-कानन। इसमें क्या हो रहा है इस वर्ष? पिछले साल तो इसमें मेला लगा था। महीने भर तक नृत्य- स्ंागीत और प्रीतिमिलन होता रहा था। कितने रंग-बिरंगे बल्ब जलाये गये थे। रात में भी इंद्रधनुषी दिन दिखायी पड़ता था। कितनी रोशनी और कितनी रौनक थी, और एक दिन आज का है।
रोशनी की जगह अंधेरा और रौनक की जगह मातम है। जनता सरकार को मार रही है और सरकार जनता को। जो इन दोनों के बीच कुछ कर करा सकते थे वे भी आपस में लड़ रहे हंै। मुझे इन सबसे क्या लेना-देना। लेकिन वह आदमी मेरा पीछा क्यों कर रहा है। साथ हो सकता है या मेरे आगे निकल सकता है। मैं अपनी गर्दन पर हाथ फेर लेता हूं। गर्दन बरकरार है। हथेली में सिर्फ गर्म पसीना लग जाता है।
बम फटने की आवाज़ लगातार आ रही है। बीके पाल और कुम्हारटोली में कश-म-कश है। रोज़ इसी टाइम पर होता है। मैं पसीने से लथपथ हो रहा हूं। पूरा शरीर ठंडा पडऩे लगा है, अब नहीं चला जाएगा। आगे बढ़ा तो मुंह के बल गिरा और पीछे वाले ने पीठ पर छुरा दे मारा। इसके बाद खून से लथपथ मेरा शरीर अस्पताल में होगा जहां मुझको बचा लेने के लिए हर संभव कोशिश की जाएगी। खून चढ़ाया जाएगा, ऑक्सीजन दिया जाएगा और घड़ी की टिक..टिक के साथ डाक्टर मेरी हृदयगति को सुनता रहेगा धड़.. धड़। चंद मिनट में मेरे हृदय की गति रुक जायगी, नाड़ी गायब और डाक्टर अपने चेहरे पर एक औपचारिक उदासी उभार कर मुझे मृत घोषित कर देगा।
वैसा कुछ मेरे साथ नहीं हो सकता। जब सामने वाला पीठ दिखाकर भाग जाता है तब पीछे वाले की क्या मज़ाल। पीछे मुड़कर देख लूं तो अभी पीठ दिखाएगा। किसी की हिम्मत नहीं, मेरी तरफ आंख उठाकर देख सके। आंख निकाल लूंगा। इस मुहल्ले में मैं कोई नया तो नहीं। पूरे 15 साल से यहां रहता रहा हूं। डर तो इसलिए रहा हूं कि घर पहुंचना ज़रूरी है। चलकर पहले ज्ञान को देखना है। वह वापस लौट गया होगा। सुबह जल्द ही निकल गया था। फिर आज तो दिन भर शहर गर्म रहा। बमबाजी… गिरफ्तारियां … हत्यायें।
ज्ञान ने क्या सब नहीं सुना होगा। सुना भी हो तो उसके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके स्वभाव को जानता हूं। ऐसी खबरों के प्रति वह तटस्थ रहता है। सुनने के बाद भी उसने यही निष्कर्ष निकाला होगा कि यह सब ‘अफवाह’ है। यही कारण है कि जिन लोगों से मैं भयभीत रहता हूं उनमेें ज्ञान भी एक है। स्वयं खतरे पैदा करना और उनको ओढ़ लेना उसकी आदत है। ऐसा करने के पहले उसके चेहरे पर अतिरिक्त गंभीरता होती है।
ज्ञान जो कुछ है, ठीक है। है तो मेरा ही छोटा भाई, दुनिया का तो नहीं। बचपन में जब उसको पटक-पटक कर मारता था तो मां मुझको समझाती थी, बेटा, इस दुनिया में सब कुछ मिलता है, पीठ पर का भाई नहीं मिलता। तब से ही ज्ञान चाहे कितने चूक और जघन्य अपराध क्यों न कर डाले मैं उसके प्रति कू्रर नहीं हो पाता और निरंतर कामना करता रहता हूं कि उसके जीवन का हर एक क्षण निरापद और बुलंद हो।
वह मकान जिसमें मैं रहता हंू, बस देखा देखी भर गया है। जिसकी मजऱ्ी हो, शहर को फूंक डालो। मेरे ठेंगे से। सुनो, सिगरेट बाहर फेंक कर अंदर घुसो। दूसरे आदमियों को भी सख्ती से कह दिया है। किसी भी कमरे से धुएं के साथ चिंगारी न निकले। कोयले का एक भी टुकड़ा नीचे न पड़े।
मैं सीढ़ी चढऩे लगता हूं। यह आदमी कौन है? कौन हो सकता है? पहले तो कभी देखा नहीं। नया किरायेदार लगता है। नीचे एक कमरा खाली था। मकान में नया-नया आया है और हुक्म छांटता है। अभी उलझना ठीक नहीं। इसकी खबर सुबह लूंगा। चौथे तल्ले के चारों तरफ के कमरों को सरसरी निगाह से देखता हूं। सभी कमरे अंदर से बंद हैं सिर्फ कोने वाला मेरा कमरा बाहर से बंद है। इसका मतलब ज्ञान अब तक नहीं आया। बहुत गलत करता है। ऐसे समय में कोई देर तक बाहर रहता है। ठीक है, मरना ही चाहते हो तो मरो।
कमरे को खोलकर बत्ती जलाता हूं। मेरे बत्ती जलाने के साथ-साथ जूते मचमचाता ज्ञान कमरे में घुसता है। अभी इससे कुछ भी पूछने का मतलब शेर को पिंजरे से बाहर लाना है। कुछ पूछूंगा तो उस पर बहस खड़ी कर देगा। बेहूदे तर्क उगलेगा और खूंखार हमले करेगा। यही वजह है कि शाम होने के बाद मैं उससे बात नही करता। जो कहना होता है, सुबह ही कहता हूुं। जैसे ‘ज्ञान’, घर से चि_ी आई है। राजू अपने क्लास में फस्र्ट आया है। और समाचार भी अच्छे है। कि बाबूजी बहुत बीमार हैं। कल मैं गांव जा रहा हूं। कि अपने यहां गांव में शीत लहरी चल रही है। मुखिया जी और डोमन महतो उसी में मर गये।’ यह सब वह चुपचाप सुन लेता है, और सब कुछ सुन लेने के बाद तटस्थ हो जाता है। मुझे चिढ़ होती है। मेरे ख्याल में ऐसा व्यक्ति किसी का नहीं होता। बहुत हुआ तो वह किसी के पीछे हो जाता है और ऐसा करते हुए किसी और का पीछा करने लगता है। एक संदेह मेरे मन को दबोचने लगता है। तो क्या, पूरे रास्ते ज्ञान ही मेरा पीछा करता रहा। क्रोध में डाटने के ख्याल से मैं ज्ञान की तरफ देखता हंू। उसके चेहरे से लगता है, किसी से लड़़कर आ रहा है। अब भी लड़ सकता है।
मैं बत्ती बुझाकर बिस्तरे पर आ जाता हूं। मेरे मन का संदेह बढऩे लगता है। ज्ञान सो रहा है और मुझे नींद नहीं आ रही। माथा जलने लगा है। मैं बेचैनी में बिस्तर को छोड़ देता हूं और खड़े-खड़े अंधेरे में ज्ञान के जागने का इंतजार करता हूं बम के विस्फोट सुनता हूं।