कश्मीर में और सिकुड़ गयी अलगाववादी राजनीति की गली
रियाज़ वानी
जब दिल्ली की एनआईए अदालत 25 मई को जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख यासीन मलिक को दी जाने वाली सजा पर विचार कर रही थी, कश्मीर में मलिक के गृह क्षेत्र मैसूमा सहित श्रीनगर के कुछ हिस्सों में नाराजगी पसर रही थी और बाजार तुरंत बंद हो गए। टेरर फंडिंग मामले में अदालत के मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाये जाने के बाद विरोध प्रदर्शन जारी रहे। अगले दिन, हालांकि, क्रोध कुछ कम हो गया क्योंकि आजीवन कारावास को आम तौर पर मौत की सजा के मुकाबले कम माना जाता है और इसे उच्च न्यायालयों में भी चुनौती दी जा सकती है। यह सम्भावना रहती है कि हो सकता है कि वहां यह सजा कम हो जाए।
मलिक कश्मीर के शीर्ष अलगाववादी नेताओं में से एक रहे हैं। उन्हें मीरवाइज उमर फारूक और सैयद अली गिलानी के साथ अलगाववादी तिकड़ी के नेताओं में गिना जाता है। गिलानी का पिछले साल सितंबर में निधन हो गया था। वह पूरी घाटी में एक व्यापक लोकप्रियता वाले अलगाववादी नेता रहे।
लेकिन अन्य दो नेताओं के विपरीत, मलिक को 1989 में उग्रवादी संघर्ष के मुख्य कर्ताधर्ताओं में एक माना जाता है और तब से वह आजादी के अभियान के केंद्र में रहे हैं। मलिक ने अपने सहयोगियों जावेद मीर, अशफाक मजीद वानी और अब्दुल हमीद शेख के साथ 1989 में कश्मीर में सशस्त्र अभियान शुरू किया था। इनमें से आखिरी दो की मौत हो चुकी है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मलिक कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। उनको आजीवन कारावास केवल कश्मीरी अलगाववादी आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में उनके कद को ही बढ़ाएगा। इस प्रकार उनकी उम्र कैद कश्मीरियों के बीच शिकायत का एक स्थायी स्रोत रहेगा और आज़ादी की उनकी भावना के लिए ईंधन का काम ही करेगा।
यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक है कि मलिक अलगाववादी आंदोलन का सबसे प्रमुख धर्मनिरपेक्ष चेहरा रहे हैं और अतीत में पश्चिम को भी स्वीकार्य रहे हैं। इसलिए, नई दिल्ली के लिए उनपर धार्मिक लेबल लगाना और उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना कठिन होगा जो एक इस्लामिक राज्य बनाना चाहता है।
जहां तक कश्मीर में आतंकी अभियान का सवाल है, उसकी परवाह (मलिक को उम्र कैद) किए बिना उसके जारी रहने की आशंका है। किसी भी मामले में, मलिक ने 1994 में हथियार छोड़ दिए थे और शांतिपूर्ण राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए गांधीवादी अहिंसक तरीकों का पालन करने का फैसला किया था।
एक उग्रवादी संगठन से, जेकेएलएफ एक राजनीतिक संगठन बन गया। यद्यपि, हुर्रियत की तरह, मलिक चुनावी राजनीति से दूर रहे। उनके इस फैसले से उन्हें अक्सर उन उग्रवादियों से आलोचना झेलनी पड़ी, जिन्होंने गांधीवादी सिद्धांतों का पालन करने के लिए उन्हें (मलिक) पर ताने कसे थे।
पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेताओं के समूह के बीच मलिक कश्मीर में एकमात्र प्रमुख स्वतंत्रता-समर्थक नेता हैं। वह क्रमश: मीरवाइज और दिवंगत गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत गठबंधन का हिस्सा भी नहीं हैं। लेकिन 2016 में लोकप्रिय हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद अचानक तीनों को एक सामान्य कारण के लिए साथ आने को मजबूर होना पड़ा।
साल 2020 में, कश्मीर में स्थानीय प्रेस को एक पत्र जारी किया गया था, जिसमें मलिक ने उन कारणों का जिक्र किया था जिसके चलते उन्हें बंदूक उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था – ‘मैंने 1987 (विधानसभा) के चुनाव में इस उम्मीद के साथ सक्रिय रूप से भाग लिया कि चुनावी प्रक्रिया से कश्मीर विवाद का समाधान हो जाएगा। लेकिन गिरफ्तारी शुरू हो गई और मुझे मतगणना हॉल से गिरफ्तार कर लिया गया।’
मलिक ने इस पत्र में इसके बाद लिखा – ‘मुझे एक पूछताछ केंद्र भेजा गया, यातना दी गई जिससे मुझे रक्त से सम्बंधित संक्रमण हो गया। मैं पुलिस अस्पताल में था जहां मुझे क्षतिग्रस्त हृदय वाल्व का पता चला था। मुझे और सैकड़ों सदस्यों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था। जेल से छूटने के बाद हमें यकीन हो गया कि यहां अहिंसक लोकतांत्रिक राजनीतिक आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है।’
साल 1994 में हथियार छोड़ने के अपने फैसले के बारे में लिखते हुए मलिक ने इस पत्र में कहा था कि ऐसा करना आसान नहीं था। उन्होंने पत्र में लिखा – ‘यह वास्तव में एक सबसे खतरनाक और अलोकप्रिय निर्णय था। कई लोगों ने मुझे देशद्रोही घोषित कर दिया। जब कुछ उग्रवादियों ने मुझे अगवा कर लिया तो मैं चमत्कारिक रूप से अपनी जान बचाने में सफल रहा। मेरे कई सहयोगियों ने अपनी जान गंवाई लेकिन मैं और जेकेएलएफ के सदस्य अपने फैसले पर अडिग रहे और सभी बाधाओं के खिलाफ अहिंसक संघर्ष का रास्ता अपनाया।’
लेकिन अब नई योजना में जहां केंद्र ने घाटी के मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व जैसे फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को छोड़ दिया है, जो दोनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री हैं, मलिक और मीरवाइज जैसे अलगाववादी नेताओं को पूरी तरह से दूर किया जा रहा है। कश्मीर से निपटने के लिए नई रणनीति के निकट और दीर्घकालिक राजनीतिक नतीजों का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। लेकिन एक बात तय है : इस नई रणनीति के बाद अलगाववादी राजनीतिक नेताओं के लिए घाटी में जगह और सिकुड़ गयी है।