रिलीज के पहले ही नक्सलवाद जैसे विषय पर बनी फिल्म चक्रव्यूह अच्छी-खासी चर्चा और बहस पैदा कर रही है. इससे पहले की अपनी दो फिल्मों राजनीति और आरक्षण से भी प्रकाश झा ने आम दर्शकों के बीच ऐसी ही उत्सुकता पैदा की थी. शोनाली घोष से अपनी ताजा फिल्म के बारे में बात करते हुए झा बता रहे हैं कि क्यों एक फिल्म के जरिए माओवादी विचाराधारा पर बात करना जरूरी है
चक्रव्यूह के लिए नक्सलवाद जैसा विषय कैसे चुना गया?
पिछले कुछ सालों से लगातार खबरें आ रही हैं कि दंतेवाड़ा, जहां दो पक्षों के बीच लड़ाई चल रही है, में आम किसान मारे गए. पहले बयान आता है कि मारे गए लोग नक्सलवादी थे. फिर दावा किया जाता है कि वे नक्सलवादियों को पनाह दे रहे थे. आखिर में कहा जाता है कि इनमें से सिर्फ आधे लोग ही नक्सलवादी थे. असली बात यह है कि नक्सलवादी वे लोग हैं जिन्हें आप अलग-अलग करके नहीं देख सकते. उनके भाई-भतीजे मिलिशिया का हिस्सा होते हैं या उसके मुखबिर. वे आजादी, लोकतंत्र और स्वराज का मतलब नहीं समझते क्योंकि उन्होंने कभी उसका अनुभव ही नहीं किया. गढ़चिरौली के एक प्रसिद्ध लोकगायक थे. वे कहा करते थे, ‘सुना है कि आजादी मिल गई, स्वराज मिल गया, कुछ 50-60 साल पहले वह लाल किले से चला आया. पता नहीं कहां खो गया. उसको दफ्तर-दफ्तर में देखा, पुलिस थाने में देखा. उसको ढूंढ़ा पर कहीं नहीं मिला. देखा नहीं आज तक कैसा है- गोरा है कि लंबा है, बड़ा है या छोटा है. भाई, आपको मिले तो हमारे गांव ले आना. एक बार दर्शन तो कर लें.’ तो यह वह नजर है जिससे ये लोग एक संप्रभु राष्ट्र को देखते हैं. लेकिन वे जहां हैं वहां संप्रभुता नहीं है.
फिल्म के लिए आपने किस तरह की रिसर्च की है?
मैं बीते सालों में कुछ ऐसे लोगों से लगातार मिलता रहा हूं जो इस विचारधारा के समर्थक थे लेकिन बाद में इससे अलग हो गए. इस फिल्म के सहलेखक अंजुम राजाबली जो इस मसले से जुड़े रहे हैं, ने मुझे 2003 में एक कहानी सुनाई थी. पहले संघर्ष और हिंसा सिर्फ दंडकारण्य के जंगलों व आदिवासियों तक सीमित थी लेकिन अब यह दूसरे इलाकों और लोगों तक फैल गई है इसलिए मैंने अंजुम से कहा अब फिल्म बनाई जा सकती है. इसके बाद हमने पुलिसवालों, आम जनता, विस्थापितों और नक्सलवाद के आरोप में जेल गए लोगों से मुलाकात की और इस मसले पर उनकी सोच जानने की कोशिश की.
चक्रव्यूह बनाते हुए नक्सलवाद के बारे में आपकी सोच में क्या बदलाव आया?
70 के दशक में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था और तब से ही नक्सलवाद के बारे में सुन रहा हूं. हम नक्सलबाड़ी, इस आंदोलन के संस्थापक चारू मजूमदार, वामपंथी विचाराधारा और वर्गहीन समाज के बारे में बात करते थे. बिहार की पृष्ठभूमि भी इससे जुड़ी थी इसलिए मेरा इनकी तरफ स्वाभाविक झुकाव था. लेकिन जब आप फिल्म बनाते हैं तो आपको अपनी व्यक्तिगत सोच अलग रखकर काम करना पड़ता है. मैं पिछले कई साल से फिल्म बना रहा हूं और यह बात मेरे भीतर दिलचस्पी पैदा करती थी कि एक आंदोलन का विस्तार कैसे होता है. नक्सलवाद वाले मसले पर मेरी सहानुभूति सीआरपीएफ के लोगों के साथ भी है. नक्सलवादियों से लड़ाई के लिए तैनात और बेहद खतरनाक स्थितियों में रह रहे इन लोगों को नहीं पता कि वे वहां क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं. ऐसे ही एक सीआरपीएफ कर्मी से जब मेरी मुलाकात हुई तो उसका कहना था, ‘क्या साब, हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आता. ये पॉलीटीशियन लोग तो मुर्गे लड़ा रहे हैं. हम नक्सल की गोली से नहीं मरेंगे तो मलेरिया से मर जाएंगे. ‘यहां नक्सलवादियों से लेकर सीआरपीएफ वालों तक सब जानते हैं कि बंदूक से समस्या हल नहीं होने वाली.
भारत में आप नक्सलवाद की समस्या को किस तरह से देखते हैं?
जो भी तकलीफ और शोषण इन लोगों ने भोगा है वह इस आंदोलन का आधार है. उनके पास इस सब का जवाब देने के लिए बंदूक है. लोग कह सकते हैं कि जिस वजह से वे संघर्ष कर रहे हैं वह ठीक है लेकिन इसके लिए बंदूक को जरिया बनाना गलत है. मैं नक्सलवादियों से पूछता हूं कि जब सरकार उन लोगों तक विकास पहुंचाना चाहती है, योजना आयोग निवेश के तौर-तरीके खोजना चाहता है तो आप मोलभाव करके यह क्यों नहीं परखना चाहते कि आपके इलाकों में विकास हो रहा है कि नहीं. असल में आप इसका रास्ता रोक रहे हैं. सरकार सड़क बनाती है तो आप उसे उड़ा देते हैं, स्कूल भी तोड़ देते हैं. तो बताएं कि चाहते क्या हैं? आप अबूझमाड़ या सारंडा जाकर देखिए, नक्सलवादी इसे लिबरेटेड जोन (मुक्त क्षेत्र) कहते हैं. यहां उनके ही नियम-कानून चलते हैं. तो अब यह देखना होगा कि क्या इससे वहां रह रहे लोगों को फायदा मिल रहा है. यही चक्रव्यूह है, युद्ध में एक ऐसी स्थिति के बीच फंस जाना जहां से निकलना मुश्किल हो. आपको समझना होगा कि जंगल, खदान और खनिज जो उनके इलाके में हैं, वहां उनका अधिकार है. यही उनकी कुल संपत्ति है. लेकिन वे खुद अब एक ऐसी परिस्थिति में फंस गए हैं जहां वास्तविक शर्तों के आधार पर मोलभाव नहीं कर सकते. अब वे बंदूक के दम पर सत्ता हासिल करने की बात कर रहे हैं.
क्या आपको कभी भी ऐसा लगा कि किसी घटना विशेष पर किसी पक्ष की हिंसा जायज है?
कभी नहीं. हिंसा को तो कभी जायज नहीं ठहराया नहीं जा सकता. इससे कभी हम समाधान तक नहीं पहुंच सकते. यही बात मैंने अपनी फिल्म में कही है. चक्रव्यूह में कबीर (अभय देओल) एसपी आदिली (अर्जुन रामपाल) का करीबी दोस्त है. कबीर अपने दोस्त की मदद करने के इरादे से विरोधी पक्ष में शामिल होता है लेकिन जब वह नक्सलवादियों के साथ जुड़ता है तब उसका वास्तविकता से सामना होता है और उसमें इस विचारधारा के प्रति सहानुभूति आ जाती है. जब देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 25 फीसदी हिस्सा सौ परिवारों तक सिमटा हो और देश के 75 फीसदी परिवारों को प्रतिदिन 30 रुपये से कम की आमदनी पर गुजारा करना पड़ रहा हो तो आपको यह नहीं लगता कि हमारा तंत्र खुद अपने आप में कितना हिंसक है? नक्सलवादी आंदोलन की रीढ़ यहीं है. क्योंकि इसी आधार पर वे वर्गहीन समाज और सबके लिए बराबरी के अवसर की बात कर रहे हैं. हमारे लोकतंत्र ने गरीबों के सामने सम्मान से जीने के मौके नहीं छोड़े हैं तो इस हिसाब से यह लोकतंत्र नहीं है.
क्या आपको इस बात का डर है कि चक्रव्यूह को लेकर सेंसर बोर्ड कुछ सवाल उठाएगा?
ऐसा कुछ नहीं होगा. एक तरफ हमारे यहां नक्सलवादी हैं, दूसरी तरफ सरकार है. मैंने फिल्म में दोनों तरफ से तटस्थ रवैया अपनाया है. सेंसर बोर्ड ने एक गाना पास करने से मना कर दिया था लेकिन अब वह भी फिल्म में शामिल है. हाल ही में मैंने सुना था कि एक गांव की जन मंडली इस फिल्म का गाना गा रही थी, ‘बिरला हो या टाटा, अंबानी हो या बाटा, सबने अपने चक्कर में देश को है काटा. ‘ बोर्ड का कहना था कि मैं इस गाने से उद्योगपतियों की मानहानि कर रहा हूं, हालांकि मैंने इन्हें सिर्फ प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया था. और वे चाहते हैं तो इसका डिस्क्लेमर फिल्म में दिखाया जाएगा.
लेकिन फिल्म में असली संदर्भों के प्रयोग की जरूरत क्यों है?
देखिए, यह तो हर कोई अपनी फिल्म में करता है. फिल्म की शुरूआत में ही लिखकर यह दावा कर दिया जाता है कि फिल्म में दिखाई गई घटनाओं या व्यक्तियों का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है और यदि ऐसा होता है तो यह महज संयोग होगा. लेकिन इस बार मैं ऐसा नहीं करने वाला. संयोग वाली बात कहना मेरी तरफ से बेईमानी वाली बात होगी. मेरी फिल्म मृत्युदंड से लेकर अब तक की सभी फिल्मों के किरदार, घटनाएं और कथानक असल जिंदगी से लिए गए हैं.
चक्रव्यूह के जरिए क्या हासिल करना चाहते हैं?
यही कोशिश है कि एक ऐसा मुद्दा जिसमें दोनों पक्षों में भारी अविश्वास और अस्पष्टता है, को आम लोगों के सामने लाया जाए ताकि हम इसे समझना शुरू करें और समाधान की दिशा में आगे बढ़ पाएं. मैंने इस समस्या को हर कोण से देखने की कोशिश की है, समीकरणों पर से धुंध हटाने की कोशिश की है ताकि इसके समाधान की तरफ बढ़ा जा सके. हालांकि यह बहुत मुश्किल है क्योंकि खुद मुझे नहीं पता कि उचित समाधान क्या है. लेकिन मैं समस्या देख सकता हूं और मुझे यह सोचकर डर लगता है कि समय बीतने के साथ अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही है.
आपकी फिल्म में महत्वपूर्ण क्या है, संदेश या कहानी?
जब तक मैं एक अच्छी कहानी नहीं कहूंगा तब तक आप फिल्म में दिलचस्पी नहीं दिखाएंगे और न इसे देखने आएंगे. यह एक लड़की के लिए लड़ रहे दो लड़कों की कहानी नहीं है. यह विचारधारा की लड़ाई है. साथ ही यह उनके अस्तित्व से जुड़ा हुआ सबसे बड़ा मसला है. यह एक चुनौती है और इसे दिखाना ही मेरा काम है जो मैं लगातार करता हूं.