क्या झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा का मिशन 65 प्लस का टारगेट सचमुच फलीभूत हो जाएगा या फिर हरियाणा की ही तरह वो अधर में लटकी रह जाएगी, यह एक बड़ा सवाल है। चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और खिलाड़ी मैदान में डट चुके हैं। भाजपा के लिए यह चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र के कुछ कड़वे अनुभवों के बाद आ रहा है लिहाज़ा वह फूँक-फूँककर कदम रखना चाहती है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष भी एकजुट होने की कोशिश कर रहा है, ताकि भाजपा को एक सक्षम चुनौती दी जा सके।
मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है और उसने इस बार हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए मिशन-65 प्लस का स्लोगन उछाला है। ज़मीनी हकीकत क्या रही है? यह तो नतीजे ही बताएँगे। िफलहाल तमाम बड़े राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुटे हैं।
पाँच चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अलग-अलग अधिसूचनाएँ जारी होंगी, लिहाज़ा सभी दलों के पास प्रचारक का काफी समय रहेगा। भाजपा ने ए.जे.एस.यू. के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है। हालांकि, माना जा रहा है कि पार्टी टिकटों का वितरण कितनी चतुराई से करती है, इस पर उसकी जीत अधिक निर्भर करेगी। हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे बता चुके हैं कि भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों पर कतई निर्भर नहीं रह सकती। वैसे भी झारखंड के अपने संवेदनशील मसले हैं और चुनाव का दारोमदार इनके आसपास ही रहेगा।
झारखंड के विधासभा चुनाव कितने संवेदनशील हैं, यह इस तथ्य से जाहिर हो जाता है कि झारखंड के 19 िज़ले नक्सल प्रभावित हैं और 81 में से 67 सीटें ऐसी हैं, जहाँ नक्सल आंदोलन का असर है। भाजपा सत्ताधारी है और उसने बहुत पहले से ही चुनाव की तैयारी शुरू भी कर दी थी। दूसरे राज्यों की तरह उसने झारखंड में भी विपक्षी कांग्रेस और अन्य दलों के 6 विधायकों को चुनाव से ऐन पहले तोडक़र अपने पाले में मिला लिया है। इसके आलावा अपनी ज़मीन मज़बूत करने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री रघुवर दास की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के ज़रिये लोगों तक पहुँचने की कोशिश में जुट चुकी है।
उधर, भाजपा को दोबारा सत्ता में न आने देने के लिए तमाम विपक्षी दल एकजुट होने की कवायद कर ही रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष हेमंत सोरेन सत्ता में एक बार फिर वापसी के लिए ‘बदलाव यात्रा’ निकाल रहे हैं। उनकी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मुलाकात की भी चर्चा है। सोरेन चाहते हैं कि इससे भाजपा के िखलाफ माहौल बनाने में मदद मिलेगी।
उधर, कांग्रेस ने रामेश्वर उरांव को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ‘आदिवासी कार्ड’ चुनाव के लिए खेलने की कोशिश की है। देखना दिलचस्प होगा कि उसे इसमें कितनी सफलता मिलती है। बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम अकेले चुनावी ताल ठोकने की तैयारी में है, जिसे भाजपा अपने लिए अच्छा मान रही है। जेवीएम को लगता है कि इससे विपक्ष का वोट बँटेगा और उसे इसका लाभ मिलेगा।
भाजपा के सामने तब विकट स्थिति बन जाती है जब वह चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों के नेताओं को साथ मिला लेती है और टिकट दे देती है। इस बार भी उसके सामने यह चुनौती है। चुनाव में वह किसे टिकट देगी, इस पर सभी की निगाहें टिकी हैं। सबसे अधिक उसके अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं में ही इसकी उत्सुकता है।
वर्तमान विधायक और वरिष्ठ नेता टिकटों के लिए मज़बूत लॉबिंग कर रहे हैं। उन्हें हाल में दूसरे दलों से आए नेताओं से चुनौती है। दूसरे दलों से शामिल किये विधायक हर हालत में टिकट चाहते हैं। वे इसके लिए गंभीर कोशिश में लगे हैं। ऐसे में भाजपा के सामने टिकट बाँटने का संकट तो है ही।
दूसरे दलों से भाजपा में आये विधायकों के समर्थक दावा कर रहे हैं कि उन्हें टिकट का पक्का भरोसा मिला है। खुद भाजपा के पूर्व विधायक और वरिष्ठ नेता टिकट की दौड़ में हैं ही। ऐसे में एक टकराव इन सीटों पर दिख सकता है। भाजपा कार्यकर्ता माहौल भांपने में लगे हैं और खुलकर चुनाव प्रचार में नहीं दिख रहे। अगर अपने ही नेताओं का टिकट कटा तो वे अन्य विकल्प तो ज़रूर तलाशेंगे। ऐसे में उनके बागी होने का खतरा भी रहता ही है।
भाजपा के दफ्तर में टिकट चाहने वालों का मजमा लगने लगा है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राष्ट्रीय महामंत्री बीएल संतोष, चुनाव प्रभारी ओम प्रकाश माथुर और सह प्रभारी नंद किशोर यादव रांची में गहरी नज़र बनाए हुए हैं। वे पार्टी के टिकट दावेदारों से मुलाकात कर रहे हैं। फिलहाल विरोध के स्वर सामने तो नहीं आ रहे हैं, लेकिन इसके यह मायने नहीं कि टिकट बाँटने के बाद ऐसा नहीं होगा।
भाजपा में आये विपक्षी विधायकों को टिकट मिलने पर बागी होने का खतरा
भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती उन हलकों में है, जहाँ पिछले चुनाव में दूसरे दलों से जीते नेता भाजपा में आए थे। उन सीटों पर हारे भाजपा नेता टिकट का दावा नहीं छोडऩा चाहते। यही हाल इस बार का है। जो नेता दूसरे दलों से भाजपा में आये, वे टिकट चाहते हैं और जो पिछले चुनाव में उन सीटों पर भाजपा के टिकट पर हारे, वे अपना दावा नहीं छोडऩा चाहते। वे जानते हैं कि ऐसा करेंगे तो उनका राजनीतिक भविष्य ही दाँव पर लग सकता है।
हटिया में विधायक नवीन जायसवाल 2014 चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा से जीते, लेकिन बाद में भाजपा में चले गए। तब चुनाव में भाजपा की सीमा शर्मा हारी थीं। बरही में विधायक मनोज यादव चुनाव से पहले कांग्रेस से भाजपा में आए थे। पिछले चुनाव में भाजपा प्रत्याशी और पूर्व विधायक उमाशंकर अकेला इससे बहुत खफा हैं और हर हाल में टिकट चाहते हैं। लोहरदगा में सुखदेव भगत उपचुनाव में कांग्रेस से जीते और अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। वैसे यह सीट आजसू के कोटे में है। आजसू नेता कमल किशोर भगत ने 2014 में जीत दर्ज की थी, लेकिन एक मामले में सजा मिलने के बाद उपचुनाव कराना पड़ा था। यहाँ पर अब टिकट किसे मिलेगा, देखना दिलचस्प होगा।
बहरागोड़ा में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कुणाल षाडंगी 2014 में जीतकर भाजपा में चले गये। अब पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी का क्या होगा, जिन्हें पिछले चुनाव में कुणाल ने हराया था। सिमरिया में विधायक गणेश गंझू झाविमो के टिकट पर 2014 में जीते, लेकिन बाद में भाजपा में शामिल हो गए। पिछली दफा सुजीत कुमार यहाँ से भाजपा प्रत्याशी थे, इस बार उनका क्या होगा। इस पर विरोधियों की भी नज़र रहेगी।
उधर, सारठ में 2014 में झाविमो से जीतकर रणधीर सिंह अब भाजपा में हैं। उनसे हारे भाजपा के उदयशंकर सिंह झाविमो में जा चुके हैं। लिहाजा वहाँ अधिक समस्या नहीं दिखती, लेकिन बरकट्टा में झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर 2014 में चुनाव जीतने वाले जानकी यादव अब भाजपा में हैं। भाजपा ने सत्ता में आकर उन्हें आवास बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया। पिछले चुनाव में भाजपा के टिकट पर उनसे हारे अमित यादव का क्या होगा, इस पर सवाल है।
कुछ ऐसा ही हाल लातेहार सीट का भी है, जहाँ प्रकाश राम 2014 चुनाव में झाविमो के टिकट पर जीते और अब भाजपाई हो चुके हैं। वहाँ भाजपा के पूर्व विधायक बैद्यनाथ राम अब अपनी िकस्मत को रो रहे हैं और टिकट न मिलने पर बागी हो सकते हैं।
कुछ यही स्थिति चंदनकियारी की है। यह सीट वैसे गठबंधन में आजसू के पास थी। आजसू के उमाकांत रजक को झाविमो के अमर बाउरी ने हराया था। बाउरी जीते और भाजपा में चले गये। िफलहाल भाजपा और आजसू दोनों इस सीट पर अपना-अपना दावा जता रहे हैं। सिसई और गुमला में भाजपा विधायक हैं। सिसई से दिनेश उरांव और गुमला से शिवशंकर उरांव विधायक हैं। इस बीच कांग्रेस के अरुण उरांव भाजपा में चले गये हैं। उन्हें कहाँ से चुनाव लड़ाया जाएगा, यह पेच फँसा है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और विपक्षी दलों के महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई होगी या एक तीसरा पक्ष भी मज़बूत होकर उभरेगा। गठबंधन सीटों पर दावेदारी को लेकर पेच फँसा है। भाजपा की सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) ने भी 10 से अधिक सीटों पर दावा कर भाजपा के सामने परेशानी पैदा की है। भाजपा पिछली विधानसभा की तर्ज पर सीट बँटवारा चाहती है, जिसे आजसू पूरी तरह खारिज कर रही है। आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो का कहना है कि 2014 में स्थिर सरकार देने के लिए उनकी पार्टी ने कुर्बानी दी थी। इस बार भाजपा को नये सिरे से सीटों पर समझौता करना होगा। ‘इस बार सीट बँटवारे को लेकर प्रदेश भाजपा के नेताओं के साथ उनका मंथन जारी है। अभी बात नहीं बनी है, अब सीटों के बँटवारे को लेकर दिल्ली में बात होनी है।’
यह चुनाव ऐसे मौके पर हो रहे हैं, जब भाजपा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और अन्य भावनात्मक मुद्दों को केंद्र में लाने का प्रयास कर चुकी है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे कुछ और कहानी कह रहे हैं। स्थानीय मुद्दों को लोग अहमियत दे रहे हैं। इसलिए झारखंड में भाजपा की राह उतनी आसान नहीं दिखती। झारखंड में विपक्ष इन दो राज्यों के नतीजों के बाद उत्साह में है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेता हेमंत सोरेन का कहना है कि जिस तरह से भाजपा छत्तीसगढ़ में बुरी तरह हारी थी, वहीं हाल झारखंड में भी होने वाला है। जो कांग्रेस मई के लोकसभा चुनाव में बहुत खराब प्रदर्शन के बाद संगठन के संकट से भी जूझ रही थी, उसे हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों से उम्मीद की एक नई किरण दिखी है। वह झारखंड में जेएमएम के साथ जाकर चुनाव में उतरने को तैयार दिखती है, भले ऐसे में उसकी स्थिति छोटे दल की हो जाती हो। कांग्रेस को वैसे उम्मीद है कि झारखंड में उसका प्रदर्शन सुधरेगा। कांग्रेस में सुबोधकांत सहाय जैसे नेता नई टीम से खुश नहीं हैं। लिहाज़ा उसे चुनाव से पहले पार्टी के अंदर के अंतॢवरोधों और लड़ाई को खत्म करना होगा।
81 सीटों पर पाँच चरण में चुनाव
झारखंड विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही वहां चुनावी बिगुल बज चुका है। राज्य की 81 सीटों पर पाँच चरणों में विधानसभा के चुनाव संपन्न कराए जाएंगे। नतीजे 23 दिसंबर को आएँगे। पहले चरण का मतदान 30 नवंबर को होगा, जबकि 7 दिसंबर को दूसरे, 12 दिसंबर को तीसरे, चौथे चरण की 16 दिसंबर जबकि 20 दिसंबर को पाँचवें चरण का मतदान होगा। पहले चरण में 13 सीटों पर मतदान होगा, दूसरे में 20 सीटों पर, तीसरे में 17 सीटों पर, चौथे 15 सीटों पर और पाँचवें चरण में 16 सीटों पर मतदान होगा। झारखंड विधानसभा का कार्यकाल 5 जनवरी को खत्म होगा।
2014 में भाजपा बनी थी सबसे बड़ी पार्टी
81 सीटों वाले झारखंड में जादुई आँकड़ा 41 का है। साल 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के हिस्से 31.3 फीसदी वोट आये थे और उसे 37 सीटें मिली थीं। उसकी सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (एजेएसयू) 3.7 फीसदी वोट के साथ 5 सीटें जीती थीं। जेएमएम ने 20.4 फीसदी वोट के साथ 19 सीटें, कांग्रेस ने 10.5 फीसदी वोट के साथ 7 और जेवीएम 10 फीसदी वोट के साथ 8 सीटें जीती थीं। अन्य को भी 6 सीटें मिली थीं। चुनाव के बाद जेवीएम के 6 विधायकों ने दलबदल कर भाजपा का दामन थाम लिया था।