दुनिया में हर इंसान खुद को सबसे ज़्यादा पाक-साफ मानता-समझता है। यह एक ऐसा अवास्तविक सत्य है, जो सभी को भ्रमित और अभिमानित किये हुए है। लेकिन इस पर पूरी तरह अमल करते हुए भी कोई स्वीकार नहीं करता कि वह खुद को ही सर्वोपरि मानता है। दरअसल वह इस स्वीकारोक्ति को दूसरों से घृणा करके, वैमनस्य करके, उनसे आगे निकलकर, और कभी-कभी उन्हें नीचा दिखाकर या गाहे-ब-गाहे उनका मज़ाक उड़ाकर प्रदशर््िात करता रहता है। दुनिया में कितने ही लोग हैं, जो बिना कराण ही मूर्खतावश दूसरे लोगों की परछाईं तक से नफरत करते हैं, उन्हें छूने या उनके छूने से खुद को अपवित्र मानने लगते हैं। ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि वे भी उतने ही अपवित्र हैं, जितना कि सामने वाला इंसान।
इस बात को मैं आपको एक उदाहरण के ज़रिये समझाना चाहता हूँ। अपनी पढ़ाई के दौरान मैं बहुत पूजा-पाठ करता था। ज्योतिष का थोड़ा-बहुत ज्ञान मुझे विरासत में मिला और कुछ मैंने अपने बड़े गुरु डॉ. उमाकान्त शर्मा जी से सीखा। पिताजी की इच्छा के विरुद्ध भी कविताओं के रचना-धर्म और हिन्दू कर्म-काण्ड करने में उलझ गया। पिताजी की इच्छा रहती थी कि मैं पढ़-लिखकर आईएएस बनूँ, पर मेरा मन या तो कविताओं में लगता या फिर पंडिताई में। लेकिन मैं जातिवाद, वर्णवाद धर्मवाद के सख्त खिलाफ रहता था। यह बात मेरे एक पड़ोसी को, जो कि दूर के रिश्ते या कहें कि मोहल्ले के रिश्तों के हिसाब से मेरे चाचा लगते थे; रास नहीं आती थी। वह काफी विद्वान थे और मुझसे जातिवाद, वर्णवाद, धर्मवाद को लेकर काफी बहस करते थे। उनका शस्त्रज्ञान मुझसे एक ही मायने में ज़्यादा था कि उन्हें अनेक ग्रन्थों में लिखी बातें कण्ठस्थ थीं। लेकिन तर्क के आगे वह अक्सर हार जाते, और जब वह जब हार रहे होते थे, तो मुझे शास्त्रार्थ की चुनौती देते थे। लेकिन मैं उनके शस्त्रों के उदाहरणों को तर्क से पुन:-पुन: खण्डित कर देता था और उनके पास सिवाय चिढक़र बहस से भागने के कोई चारा नहीं रहता। बहस छोडक़र भागते-भागते वह यह ज़ोर-ज़ोर से यह कहते जाते, तुम्हें भगवान भी माफ नहीं करेगा; उसकी लिखी बातों पर अविश्वास करते हो; तुम्हारा दिमाग खराब है। तुम जैसे लोगों की वजह से ही पृथ्वी पर पाप बढ़ गया है। मुझे उनकी इन बातों पर हँसी और दया आती थी।
आप सोच रहे होंगे कि वह मुझसे दोगुनी उम्र से भी ज़्यादा के थे, तो कैसे हार जाते थे? दरअसल अंधविश्वास कितना भी पक्का हो, वह अतथ्यपूर्ण और बिना आधार वाला ही होता है। वह अंधविश्वासी थे और मैं तर्क-बुद्धि तथा इंसानियत का पैरोकार। उदाहरण के लिए एक बार जब मैं 10-11 साल का था, तब होली के दिन झाड़ू लगाने वाले एक व्यक्ति (हरिजन), जो कि गाँव के रिश्ते से मेरे ताऊ लगते थे; को मैंने गले लगाकर उनके पैर छू लिए थे। बस फिर क्या था, पूरे घर में और घर से बाहर तक हंगामा-ही-हंगामा। मुझे गंगाजल से नहलवाया गया। मैं इस ढोंग के सख्त खिलाफ था। पूरे घर में मेरे पिताजी ही थे, जो मेरे इस अपराध (अपराध इसलिए कहा, क्योंकि सबकी नज़र में वह अपराध ही था) को अपराध नहीं मान रहे थे। मैं इस सबसे हैरत में भी था और लोगों की मूर्खता और अन्धविश्वास से खिन्न भी था। खैर, बात मेरे पड़ोसी से बहस की थी। वह जब भी कहते कि जाति, वर्ण, धर्म सब ईश्वर के बनाये हुए हैं, तो मैं उनसे पूछता फिर सभी वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से ही यानी ब्रह्मण मुँह से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य पेट से और शूद्र कटि भाग से, जैसा कि ग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मा जी ने सबको पैदा किया है; पैदा क्यों नहीं होते? दूसरा कहीं-कहीं ब्राह्मण भी मूर्ख और शूद्र भी ज्ञानी क्यों पैदा होते हैं? सब ग्रन्थों में बताये हुए कर्मों के अनुसार ही अपना-अपना कर्म क्यों नहीं करते? ऐसे ही कई सवाल जब उनसे पूछता, तो उनके पास गुस्सा करने के सिवाय कुछ नहीं होता। वह कहते कि धर्म भी कोई चीज़ है, उसे तो मानो। मैं कहता कि सब पागलपन है। जो इंसान हवा, पानी, ज़मीन, आग, आकाश को नहीं बाँट सकता; जो इंसान सदियों से दूषित जल, वायु, पृथ्वी से उगी चीज़ों का सेवन कर रहा हैं। जिसे अपनी चार-पाँच पीढिय़ों से पीछे का कुछ नहीं मालूम; जो एक-दूसरे की छोड़ी हुई श्वांस ले रहा है; जिसके पेट में हर समय गन्दगी भरी रहती है; जो हर रोज़ नाक से, आँख से, कान से, कटि भाग से मैल निकलता है; वह पवित्र कैसे हो सकता है? हाँ, उसकी आत्मा पवित्र है, उसका मन पवित्र है, लेकिन कर्मों के हिसाब से। और यह आत्मा तथा मन सबके पास उतना ही पवित्र है, जितना कि तुम्हारे पास। क्योंकि सभी में ईश्वर का वास है। दूसरी बात, जिसे यह तक नहीं पता कि उसके शरीर में क्या-क्या गतिविधियाँ होती हैं, वह ईश्वर को बाँटने की कोशिश करता है। इससे बड़ी मूर्खता भला क्या हो सकती है? एक बार राजस्थान के एक पहुँचे हुए संत मेरे पड़ोसी के यहाँ आये। दरअसल वह सन्त उनके यहाँ यदा-कदा आते रहते थे। सन्त के आने पर मेरे पड़ोसी को मुझे मात देने का सबसे सुनहरा अवसर था। शाम को मेरे पड़ोसी मेरे घर आये और बोले कि आप बहुत विद्वान बनते हो, आज आपकी विद्वता धरी-की-धरी रह जाएगी; मेरे घर आना। मैं समझा इन्हें तो आये दिन मुझसे बहस करने का जूनून रहता है, सो मैंने कह दिया कि मेरे पास समय नहीं है। लेकिन वह बोले- ‘आज बुरी तरह से मुँह की खाओगे, इसलिए डर रहे हो। क्योंकि मेरे घर एक बहुत बड़े विद्वान आये हुए हैं।’ मैंने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली और करीब 8:30 बजे उनके घर पहुँच गया। सन्त को प्रणाम किया। उन्होंने सम्मानपूर्वक मेरा स्वागत किया। बातचीत शुरू हुई। सन्त मेरी बातों से बहुत प्रभावित हुए और बोले- आप तो हमारे मित्त (मित्र)हैं। कभी हमारी कुटिया (राजस्थान) में आइए।’ वह मुझसे काफी बड़े थे, सो मैं उनके पैरों में झुका, पर उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। यह सब देख मेरे पड़ोसी चुप रह गये। लेकिन अगले दिन से मेरे प्रति उनका थोड़ा रवैया बदल गया।