हिंदू धर्म में सोलह संस्कार बताए गए हैं. इस संस्कारों में व्यवहार, नेग, दक्षिणा के नाम पर पैसे या उपहार लेने-देने की परंपरा है. इन पैसों के पीछे कहीं न कहीं रिश्तों की मिठास छिपी होती है. चाहे वह विवाह संस्कार में जूते चुराने की रस्म हो, बुआ द्वारा काजल लगाने की प्रथा हो या फिर विदाई के समय कलेवा खिलाने का रिवाज. हम पैसों के साथ जुड़े संवेदना के तारों की झंकार महसूस करते हैं. मैंने ऐसी ही झंकार महसूस की अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार में.
वर्तमान के आपाधापी के दौर में जनेऊ संस्कार अमूमन शादी, तिलकोत्सव या फिर सामूहिक यज्ञ में कर दिया जाता है. गायत्री परिवार हिंदू संस्कारों को अपने प्रांगण में आयोजित करता है. ऐसे ही एक सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार का आयोजन था. रायबरेली जिले के गायत्री परिवार मंदिर में चार विद्यार्थियों के साथ मुझे भी दीक्षा लेनी थी. प्राचीन काल की गुरुकुल परंपरा में यज्ञोपवीत संस्कार के तुरंत बाद ब्रह्मचारी (विद्यार्थी) को शिक्षा के लिए गुरुकुल जाना होता था, जहां वह भिक्षा द्वारा अर्जित अनाज आश्रम को देता था और आश्रम उसके भोजन और रहने का प्रबंध करता था. अब गुरुकुल तो रहे नहीं पर उस परंपरा का निर्वाह अब तक किया जा रहा है. हमको वहां उपस्थित परिजनों से ‘भिक्षाम देहि’ की अपील करनी थी और परिजनों द्वारा प्राप्त धन को गायत्री परिवार को दे देना था. यह रस्म तो पूरी हुई.
चूंकि अब गुरुकुल तो जाना नहीं होता है, इसलिए एक अन्य प्रथा निभानी होती है. जनेऊधारी विद्यार्थी काशी में पढ़ने जाने की जिद करता है. ऐसी स्थिति में उसके मामा विद्यार्थी को समझाते हैं कि बेटा, काशी मत जाओ. इसके बदले वो भांजे को उपहार, पैसा वगैरह देते हैं. फिर बाद में भांजे को मान जाना होता है.
मैं अपने ननिहाल में रहता था. मेरी माताजी के भाई के न होने की वजह से मेरा कोई सगा मामा न था. पर एक मुंहबोले मामा थे- ‘रामेश्वर मामा’ जो पास ही में रहते थे, जिनसे हम सारे भाई खूब चुहलबाजियां किया करते थे. सुबह-शाम वे घर आते थे. हमें टॉफी खिलाते और हमारी शैतानियों में बराबर शरीक होते थे. उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. पर वे कभी जाहिर नहीं होने देते थे. खुशी मन से वे मामा का फर्ज निभाते चले आ रहे थे. आज उन्हें जनेऊ की रस्म निभानी थी.
‘आज अगर मेरे पास गांव में जमीन बची होती तो वह भी तुम्हारे ही नाम कर देता. और आज ही साबित कर देता कि कोई रिश्ता सौतेला नहीं होता’
मंडप के द्वार पर सभी विद्यार्थियों के मामा खड़े हुए थे. उनमें से एक सुरेश ने जब काशी जाने की जिद की तो उसके मामा ने उसे पांच सौ रुपये दिए, इतने में नहीं माना तो एक सोने की अंगूठी पहना दी. भांजा मान गया. दूसरे विद्यार्थी अंकुर ने जिद की तो उसके मामा ने उसे रुपयों की माला पहना दी, फिर भी नहीं माना तो सोने की चेन उपहार में दी. मंडप परिजनों की तालियों से गूंज उठा. इसी तरह तीसरे विद्यार्थी ने दोबारा जिद की तो उसके मामा ने उसे शेरवानी गिफ्ट कर दी. चौथे आदित्य को तो उसके तीन-तीन मामाओं ने उपहारों से लाद दिया. सारे मंडप ने जोरदार तालियां बजाईं. उल्लास और मस्ती का माहौल था. मेरे मुंहबोले रामेश्वर मामा यह दृश्य देख रहे थे. पर मैं उनके मस्तिष्क पर खिंच रही चिंता की लकीरों को नहीं देख पाया था.
मैंने भी बाकियों की तरह काशी जाने की जिद की. रामेश्वर मामा ने कांपते हाथों से जेब से 21 रुपये निकाल के दिए. मंडप में सुगबुगाहट होने लगी. कोई कह रहा था-‘काश कि इसका कोई सगा मामा होता’ कोई कह रहा था- ‘बड़े रसूखदार बने फिरते हैं, और 21 रुपये दे रहे हैं भांजे को.’ मुझे मामा जी के अंतःकरण में उमड़ रहे वेदना के अथाह सागर का भान न था. लम्हों में सदियों का दर्द पी गए होंगे वे. मैंने भी मामा से दोबारा जिद की, ‘इतने से बात नहीं बनेगी, मैं तो चला काशी.’ रामेश्वर मामा के पास शायद और पैसे नहीं थे. उन्होंने अपनी कलाई घड़ी जिससे वे बहुत प्यार करते थे, उतारी और मुझे पहना दी. और रुंधे स्वर में बोले, ‘बेटा, आज अगर मेरे पास गांव में जमीन बची होती तो वह भी तुम्हारे ही नाम कर देता. और आज ही साबित कर देता कि कोई रिश्ता सौतेला नहीं होता.’
मैंने अपनी कलाई पर उनके आंसू की गर्म बूंदें महसूस कीं. मंडप में सन्नाटा पसर गया था. मैं शायद उस समय उम्र की परिपक्वता तक नहीं पहुंच पाया था. यह करुणा का अतिरेक था या ममता का चरम कि मेरा बालमन बोल उठा, ‘अरे मामा जी, आपने कैसी घड़ी दे दी. मेरी कलाई तो छोटी है. फिट ही नहीं हो रही है, इसे आप ले लीजिए. आप जैसे मामा को छोड़कर मैं कहीं नहीं जाने वाला.’ मामा जी ने मुझे गले लगाया तो लगा जैसे उन्होंने सारी जन्नत पा ली हो. हां, इस बार छलकती आंखों से पूरे पंडाल ने तालियां बजाई थीं.
इस घटना को घटे दस साल हो चुके हैं. हालांकि मैंने जनेऊ पहनना तो छोड़ दिया है लेकिन रामेश्वर मामा के हाथों में आज भी वही घड़ी बंधी हुई है. मैं आज भी मामा जी से चुहलबाजी करता हूं, ‘मामा, मेरा दिल इस घड़ी पर आ गया है, जी में आता है कि फिर से जनेऊ कर डालूं अपना.’ और मामा जी कलाई से घड़ी उतारने लगते हैं. फिर मैं यह कहते हुए मना कर देता हूं, ‘अब क्या फायदा, मेरी कलाई आपकी कलाई से ज्यादा बड़ी हो गई है.’ लेकिन सोचता हूं, क्या मेरा दिल भी कभी रामेश्वर मामा जितना बड़ा हो पाएगा! (लेखक: पंकज प्रसून,लखनऊ निवासी पंकज हास्य कवि हैं)