संसाधनों और मज़दूरों के अभाव में देश की अर्थ-व्यवस्था दिन-ब-दिन चरमराती जा रही है। इस समय देश में छोटे-बड़े शोरूमों और फैक्ट्रियों में मज़दूरों का अभाव इस कदर है कि उनका काम तक चालू नहीं हो पा रहा है। वजह साफ है- कोरोना वायरस का डर और सरकार की लचर व्यवस्था। पहले लॉकडाउन और अब अनलॉक के बीच जो भी हालात हैं, वो किसी से छिपे नहीं हैं। देश के व्यापारियों और फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि देश की अर्थ-व्यवस्था को पटरी में लाने के लिए मज़दूरों का सहयोग बहुत ज़रूरी है।
लॉकडाउन के दौरान कोरोना के कहर से जो शहरों से मज़दूरों के पलायन की गति रही है, उससे व्यापारिक गतिविधियिों काफी क्षति हुई है। क्योंकि मज़दूर बड़े ही कष्ट में अपने घर पहुँचे हैं; अब मज़दूरों को शहरों में कोरोना के बढ़ते प्रकोप से डर लग रहा है। यही वजह है कि मज़दूर शहरों में आने से कतरा रहे हैं। कुछ मज़दूर शहरों में रोज़ी-रोटी कमाने को आना चाहते हैं, तो अब आने के लिए उन्हें पविहन संसाधन नहीं मिल पा रहे हैं। उनको यह आशंका भी सता रही है कि अगर कोरोना वायरस के चपेट में आ गये, तो तमाम परेशानियों के अलावा जान का जोखिम भी है। इस मामले में व्यापारियों और फैक्ट्री मालिकों का कहना है कि सरकारी सूझबूझ की कमी के कारण आज व्यापारिक गतिविधियाँ चरमरा रही हैं और अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतर रही है। क्योंकि शहरों में कोरोना वायरस कहर थमने का नाम ही नहीं ले रहा है, जिसके कारण लोगों में का खौफ है।
व्यापारियों का कहना है कि सरकार ने तो आदेश जारी करके हमसे कह दिया कि दुकानें खोलें; लेकिन सरकार ने हमारी समस्याओं पर गौर ही नहीं किया। सही मायने में इस समय व्यापारी वर्ग खुद ही अर्थ-व्यवस्था से जूझ रहा है; क्योंकि लॉकडाउन के दौरान व्यापार पूरी तरह से ठप रहा है। अब जो हल्का-फुल्का अनलॉक हुआ है, तब दुकानों पर ठीक से ग्राहक नहीं आ रहे हैं। वहीं मज़दूरों के अभाव में दिल्ली की 40 से 50 फीसदी बड़ी दुकानें, शोरूम और मॉल तक नहीं खुल पा रहे हैं। इसके चलते व्यापारियों पास पैसे का लेन-देन न के बराबर है। सदर बाज़ार दिल्ली के व्यापारी नेता राकेश यादव ने बताया कि केंद्र सरकार ने जो 20 लाख करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, अगर उसमें व्यापारियों को राहत देती, तो व्यापारी अपने व्यापार को खड़ा कर लेता। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार कुछ भी मदद देने का तैयार नहीं है। उनका कहना है कि व्यापारियों में आपसी तालमेल है, सो वे अपने बलबूते पर काम कर रहे हैं। लेकिन व्यापारियों का कहना कि लॉकडाउन के दौरान जो लेन-देन था, वह व्यापारियों ने फिलहाल आपसी सहमति से रोक दिया है। अब व्यापारी भी नये सिरे से आपस में भी नकद व्यापार करना चाहते हैं। इससे छोटे और बड़े, दोनों तरह के व्यापारियों को व्यापार में समस्या आ रही है; जिसके कारण दिल्ली के कनॉट प्लेस का पालिका बाज़ार और कई बड़े शोरूम बन्द हैं। सरोजनी नगर बाज़ार का भी यही हाल है। क्योंकि छोटे और बड़े व्यापारियों के बीच पैसे का लेन-देन सुचारू नहीं हो पा रहा है।
दिल्ली की झिलमिल में टेप और डोरी का काम करने वाले फैक्ट्री मालिक राकेश जैन का कहना है कि उनकी फैक्ट्री में 16 मज़दूर काम करते थे; लेकिन आज एक भी नहीं है। क्योंकि जो मज़दूर लॉकडाउन के दौरान गाँव गये, वे अब यहाँ आने को राज़ी नहीं हैं। ऐसे में फैक्ट्री बन्द है, जबिक फैक्ट्री के बुनियादी खर्चे बिना आमदनी के हो रहे हैं। इससे हमारा दोहरा नुकसान हो रहा है। अब जैन को आशंका यह सता रही है कि कहीं कोरोना-काल यूँ ही चलता रहा, तो कारोबार जगत लडख़ड़ाने लगेगा।
नरेला में गैस चूल्हे की फैक्ट्री चलाने वाले विनोद तिवारी ने बताया कि सरकार फैक्ट्री वालों पर कोई भी ध्यान नहीं दे रही है, जिसके चलते फैक्ट्रियाँ बन्द करने की नौबत आ गयी है। गैस चूल्हा और उसका सामान बनाने वाले नरेन्द्र शर्मा ने बताया कि जब तक देश में मज़दूरों का पलायन नहीं रोका जाएगा, तब तक फैक्ट्रियों की हालत सुधरने वाली नहीं है। उन्होंने बताया कि दिल्ली-एनसीआर से लगभग 20 से 25 लाख मज़दूरों का पलायन हुआ है; जिनमें ज़्यादातर मज़दूर प्रतिदिन एक से दो हज़ार रुपये कमाने वाले रहे हैं। ऐसे में मज़दूरों की कमायी तो बन्द हुई ही है, वहीं दूसरी ओर व्यापारियों और फैक्ट्री वालों के काम के साथ-साथ और आय भी प्रभावित हुई है। इससे पैसा का आदान-प्रदान रुका है, जो अर्थ व्यवस्था के चरमराने का प्रमुख कारण है। ऐसे में व्यापारियों की माँगों पर गौर करते हुए सरकार को मज़दूरों की शहर-वापसी के लिए कारगर कदम उठाने होंगे; अन्यथा समस्या गहराती जाएगी। आॢथक मामलों के जानकार सचिन का कहना है कि कोई भी व्यवस्था हो, अगर उसमें किसी छोटे या बड़े की उपेक्षा या अनदेखी की जाएगी, तो परिणाम किसी भी हाल में सही नहीं निकलेंगे। आज देश में सरकारी की नीतियों में यही सब साफ छलक रहा है। क्योंकि शहरों में जो लोग प्रतिदिन दिहाड़ी काम और मज़दूरी करके कमा रहे थे, उनकी कमायी आज पूरी तरह से बन्द है। जो लोग अपने गाँव चले गये, उनका तो रोज़गार भी चला गया। गाँवों में तो ठीक से कोई कमायी का ज़रिया भी नहीं है। वे लोग अब अपनी जमा-पूँजी से जीवन-यापन कर रहे हैं; लेकिन ऐसा आिखर कब तक चलेगा? ऐसे में सरकार को अब कोई कारगर कदम उठाने होंगे, जिससे वे फिर से काम कर सकें। फरीदाबाद और गुरुग्राम से जो वाहन चालक दिहाड़ी मज़दूरी के तौर पर स्कूली बसों को चलाते थे या अन्य वाहनों को चलाकर रोज़ी-रोटी कमाते थे, फिलहाल बन्द हैं। सरकार की नीतियों के कारण उनकी माली हालत लडख़ड़ाती जा रही है। फरीदाबाद में कपड़ों के काम लगे ड्राइवरों- सुशील और सुरेश तोमर ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान काम बन्द होने के बाद उन्हें ऐसे निकाला गया था, जैसे कोरोना वायरस का कहर सब कुछ तबाह कर देगा; अब काम के लिए जाते हैं, तो ऐसे देखते हैं कि हम ही कोरोना वायरस को लेकर उनके पास गये हों। रोज़ी-रोटी का साधन छिनने से मामला गम्भीर हो गया है।
सरोजनी नगर मार्केट के अध्यक्ष अशोक रंधावा का कहना है कि अजीब विडम्बना है कि एक ओर तो सरकार कह रही है कि महामारी में लोग सावधानी बरतें, सोशल डिस्टेसिंग का पालन करें और दूसरी ओर कह रही है कि व्यापारिक गतिविधियों को सुचारू किया जाए। सरकार जान-बूझकर अनजान बनी हुई है और अपनी कमी को छिपाने के लिए लोगों का ध्यान इधर-उधर बँटा रही है; जबकि सच्चाई यह है कि हर स्तर पर सरकार असफल हुई है। क्योंकि एक तो वह मज़दूरों को सुविधाएँ नहीं दे पायी है और न ही उनका पलायन रोक पायी है, जिसके कारण यह दुर्गति हो रही है। अर्थ-व्यवस्था के जो सही मायने में खैवनहार हैं, उनको कोई सहूलियत नहीं दी जा रही है; जबकि जब देश का व्यापारी कमाता है, तो सरकार को कर (टैक्स) के रूप में देता है; राष्ट्रीय कोष में इज़ाफा करता है। ऐसे में जब देश में कोई आपदा विपत्ति आती है, तो सरकार को भी व्यापिरयों व आम नागरिकों को बिना भेदभाव के सहायता मुहैया करानी चाहिए। पर वह ऐसा नहीं कर रही है, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था लडख़ड़ा रही है और से गिने-चुने लोगों के हाथों में जा रही है।