दवा के नाम पर ज़हर देने वालों को इससे क्या सरोकार कि किसी का इकलौता बच्चा छिन जाए और ज़िन्दगी भर उसे अकेलेपन का दंश भोगना पड़े। घर का चिराग बुझ जाए और परिजनों को उसकी याद मौत के मुहाने तक ले जाए, इससे किसी लालची कारोबारी को क्या फर्क पड़ता है? उसका टर्नओवर हर साल बढ़ता जाए, यही उसकी सफलता है। तो फिर असफलता किसके हिस्से में आयी? उन 11 बच्चों के माता-पिता के हिस्से में, जिन्होंने अपने नौनिहाल खो दिये। अपने सामने तिल-तिलकर मरता देखने को विवश हो गये। मौत बच्चों को निगलती रही और प्रशासन उसे अज्ञात बीमारी मानता रहा।
लगभग एक माह के अंतराल में 11 बच्चों की मौत। यानी तीन दिन के अन्दर एक बच्चे की मौत। डेढ़ साल से चार साल के बच्चों की मौत की वजह किडनी फेल होना रहा। एक ही तरीके से हुई इन मौतों के बाद प्रशासन को लगा अज्ञात बीमारी नहीं, बल्कि उनकी सोच है। लगा, कहीं कुछ गड़बड़ है। जाँच हुई, तो सामने आया कि खाँसी-जुकाम की शिकायत होने पर शुरुआत में बच्चों को कोल्ड बेस्ट पीसी सीरप दी गयी थी।
यह दवा हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर के कालाअंब की डिजिटल विजन नामक कम्पनी की बनी हुई थी। जिन बच्चों को यह दवा दी गयी, उनकी हालत ठीक होने की वजाय बिगड़ती चली गयी। नतीजतन बच्चों को लेकर चंडीगढ़, लुधियाना और अन्य स्थानों के अस्पतालों में जाना पड़ा; लेकिन वहाँ भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। ज़हरनुमा इस दवा के असर से कोई नहीं बच सका।
सीमा सुरक्षा बल के मदनलाल बताते हैं कि डेढ़ साल का बेटा श्रेयांस को खाँसी-जुकाम हुआ था। वह सीमा पर तैनात थे। लिहाज़ा उनकी पत्नी ही बच्चे की देखभाल कर रही थीं। स्थानीय डॉक्टर ने बच्चे को दिखाने पर दवा लिख दी। घर आने पर बच्चे को दवा दे दी और उम्मीद लगायी कि जल्द ठीक हो जाएगा। कुछ समय बाद बच्चे की तबीयत और बिगडऩे लगी। उसका मूत्र बन्द होने के साथ अन्य विकार होने लगे। पहले ऊधमपुर के अस्पताल में और फिर वहाँ से जम्मू भेज दिया गया। वहाँ भी हालत में सुधार न होने पर श्रेयांस को पीजीआई चंडीगढ़ रैफर कर दिया गया।
बड़ी मुश्किल से उन्हें (मदनलाल) बच्चे की खातिर छुट्टी मिली। पीजीआई पहुँचे, तो बेटे की हालत देखकर उनका दिल बैठ गया। आठ दिन उपचार के बाद श्रेयांस को बचाया नहीं जा सका। डॉक्टरों ने मौत की वजह किडनी फेल बताया। मदनलाल और उनके परिजनों ने इसे भाग्य की विडम्बना ही माना।
25 दिसंबर, 2019 को श्रेयांस ने दम तोड़ा था। मदनलाल अपने घर पहुँचे तो रामनगर क्षेत्र में दो दिन बाद 27 दिसंबर को तीन साल के बच्चे कनिष्क की मौत की खबर मिली। उसकी मौत की वजह भी श्रेयांस की ही तरह हुई थी। उसे भी खाँसी-जुकाम की शिकायत थी। दो दिन बाद 29 दिसंबर को लगभग एक साल की बच्ची जानवी और अगले दिन डेढ़ साल की बच्ची लक्ष्मी को मौत ने निगल लिया। छ: दिन में तीन बच्चों की मौतों, एक बीमारी, एक ही दवा के खाने के बाद और मौत की वजह भी एक! लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। स्वास्थ्य विभाग इसे अज्ञात बीमारी से होने वाली मौत मानता रहा। दु:ख की बात यह कि बच्चों की मौत का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। तीन दिन बाद नये साल में 2 जनवरी को चार साल के अमित को भी नहीं बचाया जा सका। अगले दिन तीन साल की सुरभि, दो साल के अनिरुद्ध, एक साल का पंकू, डेढ़ साल का अक्षु, एक वर्षीय नीजू और दो वर्षीय जानू खाँसी-जुकाम जैसी सामान्य बीमारी के आगे हार गये।
कुल मिलाकर करीब एक माह में 11 मौतों ने रामनगर के लोगों में दहशत जैसा माहौल पैदा हो गया। स्वास्थ्य विभाग के अलावा शासन-प्रशासन में भी हडक़म्प-सा मच गया। मौत की एक ही वजह सामने आने पर दवा का पता लगाया गया। सभी बच्चों को उसी डिजिटल विजन नामक कम्पनी की दवा दी गयी थी। उसे देने के बाद ही बच्चों की तबीयत बिगड़ी। फिर दवा को जाँच के लिए चंडीगढ़ की रीजनल ड्रग टेस्टिंग लेबोरेटरी भेजा गया। जाँच में खुलासा हुआ कि कोल्ड बेस्ट पीसी सीरप मानक पर खरी नहीं उतरी और सेंपल फेल हो गया। दवा में डाई एथिलीन ग्लायकोल की मात्रा 34.5 फीसदी पायी गयी, जो तय मात्रा से ज़्यादा थी। इससे यह दवा ज़हर का काम कर रही थी।
दवा कम्पनी ने इस बैच की न केवल जम्मू, बल्कि हरियाणा में भी आपूर्ति की थी। शिकायत के बाद हरियाणा, जम्मू और हिमाचल के ड्रग कंट्रोलरों ने इसका संज्ञान लिया। अंबाला में दो दवा विक्रेताओं के यहाँ छापे मारे और सारा स्टाक ज़ब्त कर लिया। यह कार्रवाई दवा के जानलेवा असर के बाद हुई, उससे पहले यह दवा न जाने कितने मेडिकल स्टोरों के ज़रिये वहाँ से खाँसी-जुकाम पीडि़तों के पास पहुँच गयी होगी।
जम्मू की ड्रग कंट्रोलर लोतिका खजूरिया कहती हैं कि मामला 11 बच्चों की मौत से जुड़ा था। जाँच रिपोर्ट आ चुकी थी। लिहाज़ा प्राथमिकी दर्ज करा दी गयी। बच्चों की मौत का मामला गम्भीर है, आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
चँूकि डिजिटल विजन कम्पनी कालाअंब (हिमाचल) में है। ड्रग कंट्रोलर नवनीत मरवाह की शिकायत पर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कर कार्रवाई शुरू कर दी है। कम्पनी का लाइलेंस निलंबित और अगले आदेश तक वहाँ किसी तरह के प्रोडक्शन पर रोक लगा दी गयी है। यह मामला दो राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश जम्मू से जुड़ा है। हैरानी की बात यह कि अभी तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। दवा के नाम पर ज़हर बनाने वाले और उन्हें बेचने वाले कानून के सहारे बच निकलने के लिए प्रयासरत हैं। अपने नौनिहालों को खो चुके परिजन शासन-प्रशासन से व्यथित हैं। कोई उन्हें सांत्वना देने तक नहीं आया।
इन 11 बच्चों में ज़्यादातर परिजन आॢथक रूप से कमज़ोर हैं। बच्चों की जान बचाने के लिए जितना अपने बूते में था, खर्च किया। किसी ने इधर-उधर से पैसा जुटाया, तो किसी ने काफी कुछ बेच-बाचकर बच्चे को बचाने के लिए खर्च कर दिया। बावजूद इसके किसी भी मासूम की जान नहीं बचायी जा सकी। किसी राजनीतिक दल के नुमाइंदे या शासन-प्रशासन के किसी अधिकारी ने उनकी सुध नहीं ली। मामला भी साफ हो गया कि किसी भी बच्चों की मौत बीमारी से नहीं, बल्कि ज़हरनुमा दवाई से हुई।
रामनगर इलाके में बेस्ट कोल्ड सीरप नामक दवा बहुतायत में मिलती है। स्थानीय डॉक्टर ज़्यादातर मामलों में बच्चों में खाँसी-जुकाम होने पर यही दवा लिखते हैं। इसकी वजह कम्पनी का नेटवर्क हो सकता है। खाँसी और जुकाम जैसी बीमारी में अक्सर लोग बिना डॉक्टर के दवा विक्रेताओं से ही दवा की माँग करते हैं। रामनगर क्षेत्र में जमवाल मेडिकल हाल और जम्मू में जंडियाल फार्मा पर दवा का स्टाक बरामद हुआ है। शुरुआती जाँच में यहीं से कडिय़ाँ आगे तक जुड़ती गयीं और आिखरी कड़ी निर्माता डिजिटल विजन के तौर पर जुड़ी। इन दोनों पर भी प्राथमिकी दर्ज हुई है। जिन धाराओं के तहत इन पर मामला दर्ज हुआ है, उसमें 10 साल की सज़ा तक का प्रावधान है।
जम्मू की जंडियाला फार्मा का काम होलसेल का है, जहाँ से विभिन्न इलाकों में इस दवा की सप्लाई होती है। हरियाणा में दवा के बड़े विक्रेताओं में अंबाला छावनी की मैसर्स ओरिजन फार्मा औरशिवा मेडिकल एजेंसी है। दवा के नमूने फेल होने के बाद हरियाणा ड्रग कंट्रोलर के आदेश पर दोनों स्थानों पर छापे मारकर मौज़ूदा स्टाक ज़ब्त किया गया। कितना स्टाक मिला था और कितना आगे सप्लाई कर दिया, इसका खुलासा पूछताछ में होगा। गम्भीर बात यह कि इस दवा के प्रयोग खूब हुआ होगा। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। जो दवा रामनगर में ज़हर का काम कर रही थी, उसने इस्तेमाल करने पर वही किया होगा। ऐसा कोई मामला अब तक प्रकाश में नहीं आया है। विस्तृत जाँच में इसका खुलासा हो सकता है, इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता।
अपने बच्चे को खो चुके सीमा सुरक्षा बल के हवलदार मदनलाल इस मुद्दे पर बातचीत में गमगीन हो जाते हैं। उन्हें श्रेयांस की याद आने लगती है। ज़हरनुमा दवा ने सबसे पहले इनके बच्चे को ही अपना शिकार बनाया था। वह भरे गले से कहते हैं कि हम सीमा की सुरक्षा करते हैं कि ताकि देश के लोग सुरक्षित रह सकें। लेकिन हमारे बच्चों की सुरक्षा कौन करेगा? मानकों पर खरी न उतरने वाली दवा धड़ल्ले से बिक रही है। ज़्यादा कमीशन के लालच में स्थानीय छोटे-मोटे डॉक्टर इसे लिखकर दे रहे हैं। हम लोग डॉक्टर के पास इस उम्मीद से जाते हैं कि दवा से जल्द ठीक हो जाएँगे। लेकिन क्या पता होता है कि जो दवा हम ला रहे हैं, वही मौत की दवा है। बच्चों की मौत के ज़िम्मेदार लोगों को कड़ा दण्ड मिलना चाहिए, ताकि फिर कोई श्रेयांस, लक्ष्मी या सुरभि असमय मौत के शिकार हो जाएँ।
ऊमधपुर ज़िले के रामनगर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खस्ता है। दूरदराज के गाँवों में तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ न के बराबर हैं। यहाँ के कई गाँव तो सडक़ों से भी नहीं जुड़े हैं, जबकि कई गाँव आज के दौर में बिजली से भी वंचित है। रामनगर के अस्पताल में उनकी पहुँच इतनी आसान नहीं दिखती। हालत यह कि कई बार बीमार को परिजन चारपाई पर ही लाने पर विवश हैं। रामनगर के अस्पताल में कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है। ऐसे में मरीज़ों को ज़िला अस्पताल ऊधमपुर रैफर करना पड़ता है। यहाँ से आवागमन के भरपूर साधन भी नहीं हैं। बावजूद इसके अगर लोग किसी तरह वहाँ पहुँचते भी हैं, तो देर हो चुकी होती है। कहा जा सकता है कि जम्मू सम्भाग का यह इलाका स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज़ से बेहद पिछड़ा हुआ है।
स्वास्थ्य सुविधाओं की जो हालत जम्मू-कश्मीर के राज्य रहते थी, कमोबेश वैसी ही आज भी है। धारा-370 और अनुच्छेद 35-ए के हटने के बाद भी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की तरह केंद्र शासित प्रदेश हो गये। केंद्र ने तीनों क्षेत्र को हर लिहाज़ से पहले से ज़्यादा सुविधाएँ देने का भरोसा दिलाया। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हालात जस-के-तस हैं। रामनगर के अस्पताल में भी आबादी को देखते हुए समुचित व्यवस्था नहीं है। इसे देखते हुए लोग अपने गाँवों में स्थानीय स्तर पर डॉक्टरों के पास जाने के लिए मजबूर हैं।
रामनगर में 11 बच्चों की मौत का मामला अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय बाल सुरक्षा आयोग में पहुँच चुका है। परिजनों को न्याय और आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश चंद्र खजूरिया ने पहल की है। 3 अप्रैल को उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को विस्तृत ब्यौरा भेजकर कार्रवाई करने की माँग की थी। आयोग ने उनकी माँग को गम्भीरता से लिया है। 13 मई को उन्हें एक तरह से याचिका के मंज़ूर होने की सूचना दी है।
खजूरिया न केवल आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई चाहते हैं, बल्कि वे मृतक बच्चों के परिजनों को आॢथक राहत की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रभावित परिजनों में कई आॢथक तौर पर बेहद कमज़ोर हैं। वे कोई रहम का पात्र नहीं बनना चाहते, बल्कि न्याय चाहते हैं। बच्चे बीमारी से मरते तो बात अलग होती। लेकिन उनकी मौत की वजह मानकों पर खरी न उतरने वाली दवा थी। ऐसी दवा बाज़ार में कैसे बिक रही थी? इसे रोकने का दायित्व किस पर था? इस बात की तफतीश की जानी चाहिए और दोषियों को दण्ड मिलना चाहिए।
खजूरिया व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं। यह दुष्चक्र मिलीभगत के बगैर नहीं होता है। दवा निर्माता कम्पनी के मालिक रसूखदार हैं। उनका हर क्षेत्र में प्रभाव है। जबकि पीडि़त पक्ष की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है। किसी-न-किसी को तो आगे आना ही होगा। वह कहते हैं कि एनआरसी मुद्दे पर दिल्ली में हुए दंगे में आईबी के अंकित शर्मा नामक एक कर्मचारी की मौत पर दिल्ली सरकार ने एक करोड़ रुपये देने की घोषणा की है। यह कदम स्वागत योग्य है। लेकिन रामनगर के प्रभावित परिजनों को ऐसी मदद के लिए केंद्र सरकार ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया?
उनका कहना है कि आॢथक इमदाद से बच्चे वापस नहीं आ सकते। लेकिन जिन परिवारों की ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल से गुज़र रही है, ऐसे में उन्हें कुछ तो राहत मिलेगी। रही न्याय की बात, तो उसके लिए वह हरसम्भव प्रयास करेंगे। खजूरिया अपने स्तर पर गाँव-गाँव जाकर परिजनों से मिल रहे हैं। वह पूछते हैं कि परिजनों को हिम्मत दिलाने के लिए कोई मंत्री, कोई नेता, कोई राजनीतिक दल का प्रतिनिधि या प्रशासन का अफसर नहीं पहुँचा। क्यों? आिखर यह भेदभाव क्यों? अब जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है। यहाँ की पूरी ज़िम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। गृहमंत्री अमित शाह को इस बाबत कदम उठाने की ज़रूरत है। देखना होगा कि केंद्र सरकार कब पहल करती है।
हिमाचल प्रदेश राज्य विधानसभा में भी यह मामला उठ चुका है। दवा कम्पनी राज्य में है। लिहाज़ा सरकार की कड़ी कार्रवाई की दरकार है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विधानसभा में् कह चुके हैं कि आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने बेस्ट कोल्ड सीरप दवा का उल्लेख करते हुए कहा कि यह दवा जाँच में मानकों पर खरी नहीं उतरी है। यह कम्पनी की बहुत बड़ी खामी है। इस प्रकरण में कड़ी कार्रवाई होगी। यह राज्य की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। लिहाज़ा किसी तरह की ढील नहीं बरती जाएगी। जाँच रिपोर्ट आते ही शीर्ष अफसरों को तुरन्त प्रभाव से कार्रवाई के निर्देश दिये गये।
निर्माता कम्पनी का कारोबार
हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर के कालाअंब में स्थित दवा कम्पनी डिजिटल विजन का कारोबार देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी है। वर्ष 2009 में स्थापित कम्पनी का टर्नओवर 45 करोड़ के आसपास है। यहाँ 250 से ज़्यादा कर्मचारी काम करते हैं। कम्पनी का स्वामित्व पुरषोत्तम गोयल और कोनिक गोयल का है। कम्पनी का कारोबार अफगानिस्तान, श्रीलंका, नाइजीरिया, सूडान, घाना, कांगो, म्यांमार, नेपाल, कंबोडिया, वियतनाम, आयरलैंड और स्पेन तक फैला है।
आयरलैंड में तो कम्पनी का पंजीकृत दफ्तर भी है। कुल 165 से ज़्यादा दवाइयों का उत्पादन यहाँ होता है। टैबलेट-कैप्सूल से लेकर इंजेक्शन तक यहाँ तैयार होते हैं। सवाल यह है कि दवाइयाँ जान बचाने के लिए बनायी जाती हैं। इसलिए उनका मानकों पर खरा उतरना ज़रूरी होता है। रामनगर में बच्चों की मौत के लिए डिजिटल विजन कम्पनी ही प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार है। हिमाचल के बद्दी, बरोटीवाल और कालाअंब क्षेत्र दवा उद्योग का गढ़ हैं। यहाँ साढ़े चार सौ से ज़्यादा इकाइयाँ हैं। दवा कम्पनियों को सरकार की ओर के विशेष छूट दी जाती है।
संवेदना जताने तो आते
सांसद डॉ. जितेंद्र सिंह भी रामनगर प्रकरण में प्रभावितों के पास नहीं पहुँचे। वे केंद्र में राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हैं। वे प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े हुए हैं। डवलपमेंट, नार्थ-ईस्टर्न रीजन के अलावा एटोमिक एनर्जी और स्पेस जैसे अहम विभाग उनके पास है। वे डॉक्टर होने के अलावा कई पुस्तकें भी लिख चुके हैं। मामला उनके संज्ञान में भी निश्चित तौर पर होगा। लेकिन उन्होंने प्रभावित परिजनों से मिलना ज़्यादा ज़रूरी नहीं समझा। यह मामला देश में लॉकडाउन से पहले का है। इसलिए किसी तरह के तर्क का सहारा नहीं लिया जा सकता। ये मौतें स्वाभाविक नहीं थीं और फिर पीडि़त परिवार आॢथक रूप से ज़्यादा मज़बूत भी नहीं हैं। इनमें देश की सीमा पर रक्षा करने वाले से लेकर शिक्षक आदि तक हैं। ऐसी संकट की घड़ी में क्षेत्र के सांसद की तरफ पीडि़तों का ध्यान लगा रहा होगा, पर वह नहीं जा सके। न केवल उन्हें जाकर पीडि़त परिवारों का दु:ख साझा करना चाहिए था, बल्कि उन्हें यह भरोसा भी दिलाना था कि सरकार उनके साथ खड़ी है। जनता के प्रतिनिधियों को इतना संदेवनशील तो होना ही चाहिए कि अपनी जनता के दु:ख-दर्द में शामिल हो।
इरादे बुलन्द
रामनगर प्रकरण में सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश चंद्र खजूरिया का विशेष योगदान है। खजूरिया राज्य सरकार की अधिकृत सिटीजन एडवाइजरी समिति के सदस्य भी रह चुके हैं। देशहित से जुड़े मुद्दों और आम लोगों के इंसाफ के लिए वह आवाज़ बुलन्द करते रहे हैं। वे हर पीडि़त परिवार को जानते हैं, उनके गाँवों तक पहुँच चुके हैं। हर पीडि़त सदस्य उन्हें जानता है, उन पर भरोसा जताता है। जाँच रिपोर्ट से लेकर अन्य दस्तावेज़ उनके पास हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार और राष्ट्रीय बाल सुरक्षा आयोग तक वह पहुँच गये हैं। उनकी पहल पर जल्द ही कार्रवाई होने की उम्मीद है। मामला बड़ा है। जम्मू के अलावा यह हरियाणा और हिमाचल से जुड़ा है। इसके लिए काफी भागदौड़ भी करनी पड़ती है। वह कहते हैं कि थककर बैठने वालों में वे नहीं है। जिनके बच्चे ज़हरीली दवा की वजह से मौत के शिकार हो गये, वह उनके साथ पहले दिन से खड़े हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी ही रहेगा।