यह नितिन गडकरी कौन है? 2009 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था. इसके बाद राजनाथ सिंह की जगह पार्टी अध्यक्ष के रूप में जब महाराष्ट्र के इस नेता का नाम चला तो हर तरफ यही सवाल पूछा जा रहा था. उस वक्त महाराष्ट्र के बाहर न तो भाजपा के कार्यकर्ता गडकरी को जानते थे और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक. ऐसे में देश के मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष के तौर पर गडकरी का नाम हर किसी को चौंका रहा था.
दिल्ली में बैठे पार्टी के वरिष्ठ और दूसरी पांत के नेता गडकरी को जानते तो थे लेकिन वे इस सवाल को घुमा-फिराकर जरा दूसरे ही लहजे में कह रहे थे. इस लहजे में जानने से ज्यादा यह बताने का भाव था कि उनके सामने एक सीमित क्षेत्रीय पहचान और अनुभव वाले नेता की कोई हैसियत ही नहीं है. महाराष्ट्र में गडकरी की पहचान एक ऐसे लोक निर्माण विभाग मंत्री की रही है जिसने कई फ्लाईओवर बनवाए और जो एक बार भी सीधे तौर पर जनता द्वारा नहीं चुना गया. वे विधान परिषद के सदस्य रहे थे. ऐसे में दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय नेता पार्टी के अंदर और बाहर इस बात को जमकर उठा रहे थे कि इस तरह के व्यक्ति को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का मतलब है पार्टी को और पीछे ले जाना. इनके मुताबिक गडकरी जैसे ‘बाहरी’ व्यक्ति को तो तीन साल पार्टी को समझने में ही लग जाएंगे.
गडकरी को लेकर उठ रहे इन तमाम सवालों के बावजूद भाजपा की कमान उन्हीं के हाथों में सौंप दी गई. इस तरह नागपुर और आस-पास के इलाकों में कारोबार के साथ-साथ महाराष्ट्र में भाजपा की राजनीति करने वाले गडकरी दिल्ली आ गए. इस बात पर किसी को जरा भी संदेह नहीं था कि गडकरी को यह कुर्सी संघ की कृपा से ही मिली है और संघ ने इस मामले में दिल्ली केंद्रित पार्टी नेताओं की राय को बहुत तवज्जो नहीं दी थी. गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद भी उनकी पहचान और हैसियत को लेकर सवाल उठाने वाले नेता संतुष्ट नहीं हुए. अब वे यह कहने लगे कि संघ के आशीर्वाद से गडकरी अध्यक्ष तो बन गए हैं लेकिन देखते हैं कि वे कैसे सफल होते हैं.
इसके बाद से लगातार गडकरी और दिल्ली की राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले भाजपा के तथाकथित राष्ट्रीय नेताओं के बीच शह और मात का खेल चलता रहा है. इसमें कभी गडकरी को मात मिली तो कभी उनके खाते में सफलता भी आई. हाल-फिलहाल की घटनाओं पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी के व्यापक अभियान के बावजूद उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम घोटाले में आरोपित बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने, कर्नाटक में येदियुरप्पा की चुनौती से पार न पा सकने और कथित तौर पर पैसे लेकर राज्यसभा का टिकट अंशुमान मिश्रा को देने के मामले में गडकरी की काफी किरकिरी हुई है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन का ठीकरा भी उनके सर ही फोड़ा जा रहा है.
गडकरी अपने पहले कार्यकाल का अधिकांश हिस्सा गुजारने के बावजूद पार्टी की आंतरिक कलह और गुटबाजी दूर नहीं कर पाए हैं
तो ऐसे में अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या गडकरी को बतौर भाजपा अध्यक्ष दूसरा कार्यकाल मिलेगा. हर कोई इस तथ्य से वाकिफ है कि गडकरी को कार्यकाल विस्तार तब ही मिल सकता है जब एक बार फिर संघ उन पर भरोसा करे. लेकिन क्या इन गंभीर आरोपों के बावजूद संघ का भरोसा अब भी गडकरी पर कायम है? या यों कहें कि क्या संघ एक बार फिर गडकरी पर भरोसा करने का जोखिम उठाने को तैयार है?
अगर गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद से अब तक की घटनाओं और मौजूदा परिस्थिति में भाजपा व संघ के अंदर से आ रही सूचनाओं को जोड़कर देखा जाए तो एक तस्वीर उभरती दिखती है. यह तस्वीर बताती है कि संघ फिर से वैसी स्थिति नहीं पैदा होने देना चाहता है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी के समय में हो गई थी. जब वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पार्टी को कई मामलों में संघ के प्रभाव से मुक्त कराने का काम किया था. लेकिन उनके बाद चुनावी राजनीति में लगातार पिटती भाजपा ने एक बार फिर से संघ को खुद पर पकड़ मजबूत करने का अवसर दे दिया. संघ ने इसकी शुरुआत 2009 में गडकरी को अध्यक्ष बनाकर कर दी थी. उस समय से लेकर अब तक संघ ने पार्टी पर लगातार अपनी पकड़ मजबूत की है. उमा भारती से लेकर संजय जोशी को पार्टी में वापस लाने से लेकर स्वदेशी की बात करने वाले मुरलीधर राव को पार्टी में अधिक सक्रिय करवाकर संघ ने अपनी उसी रणनीति को आगे बढ़ाने का काम किया है.
संघ की यही रणनीति गडकरी के राजनीतिक भविष्य से अनिश्चय की मात्रा को कम कर देती है. यही वजह है कि पार्टी के एक मजबूत धड़े द्वारा नापसंद किए जाने के बावजूद पार्टी में गडकरी लगातार मजबूत होते गए. पार्टी में एक ऐसा माहौल बना कि गडकरी के खिलाफ बोलने को संघ के खिलाफ बोलना समझा जाने लगा. इसलिए खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानने वाले भाजपा नेताओं ने गडकरी के खिलाफ बोलने वालों का समर्थन जरूर किया लेकिन खुद कभी उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला.
मगर हाल ही में अंशुमान मिश्रा को झारखंड से राज्यसभा भेजने के गडकरी के निर्णय पर वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने खुलेआम हल्ला बोल दिया. गडकरी पर आरोप लगा कि उन्होंने पैसे लेकर राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता एसएस अहलूवालिया का टिकट काटा और पार्टी के लिए पैसे जुटाने का काम करने वाले एनआरआई व्यवसायी अंशुमान मिश्रा की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया. पिछले कुछ सालों में सिन्हा ने अपनी पहचान आर-पार की राजनीति करने वाले एक ऐसे नेता की बनाई है जिसने अपने करीबी पत्रकारों के जरिए खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शामिल करवाने का खेल नहीं खेला.
संघ का साथ और कार्यकर्ताओं के बीच गडकरी का कद बढ़ने से भाजपा की तीसरी पंक्ति के नेता उनके साथ आ गए हैं
जब सिन्हा ने गडकरी के खिलाफ बोलना शुरू किया तो उन्हें तुरंत पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उन सभी दावेदारों का समर्थन मिल गया जो दिल्ली की राजनीति करते हैं. प्रधानमंत्री बनने को लेकर लालकृष्ण आडवाणी की व्यग्रता से तो हर कोई वाकिफ है लेकिन प्रधानमंत्री पद को लेकर लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने भी अपनी इच्छाओं को उभार देने का काम अपने करीबी नेताओं और पत्रकारों के जरिए खूब कराया है. पार्टी के लोग ही बताते हैं कि इन तीन वरिष्ठ नेताओं के समर्थन के साथ जब अंशुमान मिश्रा के मामले को यशवंत सिन्हा ने उठाया तो उनकी बात सुनना और उस पर अमल करना गडकरी की मजबूरी बन गया. इनके मुताबिक पहली वजह यह है कि गडकरी पर हल्ला बोलने वालों ने मुद्दा ही ऐसा चुना था जिस पर संघ किसी भी हालत में गडकरी का बचाव नहीं करता. और दूसरी वजह यह है कि सब कुछ जानने के बावजूद अब भी संघ में आर-पार की लड़ाई को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. संघ को पता है कि गडकरी अपने पहले कार्यकाल का अधिकांश हिस्सा गुजारने के बावजूद पार्टी के आंतरिक कलह और गुटबाजी दूर नहीं कर पाए हैं. जानकार चुनावों में भाजपा की हार के लिए आंतरिक कलह को ही सबसे बड़ी वजह बताते हैं.
तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाना चाहिए कि गडकरी कमजोर हो चले हैं? इस सवाल का जवाब समझने के लिए गडकरी के अब तक के कार्यकाल में उनके प्रदर्शन को देखना होगा. भाजपा के ही एक नेता कहते हैं, ‘कम समय में ही गडकरी ने अपनी पहचान स्थापित की. उन्होंने जमकर राज्यों का दौरा किया और कार्यकर्ताओं से काफी मिले-जुले. गडकरी ने कार्यकर्ताओं के बीच एक ऐसे अध्यक्ष की छवि बनाई जो उनकी बातों को सुनता हो. संघ का साथ और कार्यकर्ताओं के बीच गडकरी के बढ़ते कद की वजह से भाजपा की तीसरी पंक्ति के रविशंकर प्रसाद, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूडी, मुख्तार अब्बास नकवी, प्रकाश जावड़ेकर और अनंत कुमार जैसे नेता आडवाणी-जेटली-सुषमा से ठीक-ठाक संबंध रखते हुए गडकरी के साथ आ गए हैं. राजनाथ सिंह और वैंकैया नायडू भी गडकरी के करीबियों में शामिल हैं.’
अगर चुनावी नतीजों को पैमाना माना जाए तो गडकरी का अब तक का कार्यकाल औसत रहा है. उनके अध्यक्ष बनने से लेकर अब तक जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं उनमें से बिहार ही इकलौता ऐसा बड़ा राज्य है जहां भाजपा की सीटें बढ़ी हैं. बाकी सभी राज्यों में भाजपा की सीटें घटी हैं और उसके सहयोगियों या विरोधियों की सीटें बढ़ी हैं. बिहार में भी भाजपा की सीटों में बढ़ोतरी का श्रेय न तो नितिन गडकरी को मिला और न ही पार्टी के अन्य नेताओं को बल्कि इसका श्रेय तो बिहार के मुख्यमंत्री और भाजपा की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार को दिया गया. हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पार्टी के मत प्रतिशत में तीन फीसदी कमी आई और सीटें चार कम हो गईं. पंजाब में पार्टी को सात सीटों का नुकसान हुआ. गोवा में भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया तो उत्तराखंड में कांग्रेस ने भाजपा को. मणिपुर में इस बार भी पार्टी अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाई. कर्नाटक और गुजरात के उपचुनावों में भाजपा ने अपनी वे सीटें गंवाईं जो लंबे समय से पार्टी के पास थीं. कर्नाटक की लोकसभा सीट उडुपी चिकमंगलूर पर भाजपा 1998 के बाद से हारी नहीं थी और गुजरात की मानसा विधानसभा सीट 1995 से भाजपा के पास थी.
जिस दिन विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे उसी दिन शाम को गडकरी ने प्रेस वार्ता बुलाकर भाजपा के अच्छे प्रदर्शन के कसीदे पढ़े. लेकिन सच्चाई यह है कि इन चुनावों में कांग्रेस की तुलना में भाजपा का प्रदर्शन कतई अच्छा नहीं था. गडकरी के आसपास जो टीम है उसमें कई वैसे लोग भी हैं जो उसी तरह काम करते हैं जैसे राहुल गांधी की टीम काम करती है. इनका जोर जमीनी काम करने की बजाय ब्रांडिंग पर ज्यादा होता है. पूरा नतीजा आए बगैर नतीजों को अपनी जीत कहकर प्रचारित करना उसी रणनीति का एक हिस्सा था. एक तरफ 40 विधानसभा सीटों वाले गोवा में जीत हासिल करने पर गडकरी इतरा रहे थे तो दूसरी तरफ 60 विधानसभा सीटों वाले मणिपुर को उन्होंने यह कहकर खारिज किया कि मणिपुर का राष्ट्रीय राजनीति में कोई खास महत्व नहीं है. पार्टी के ही कुछ नेताओं को इस बात पर आश्चर्य हुआ कि किसी राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा गैरजिम्मेदाराना बयान कैसे दे सकता है. लेकिन गडकरी के लिए अच्छा यह हुआ कि मीडिया ने इसे मुद्दा नहीं बनाया. नहीं तो उनके लिए जवाब देना मुश्किल हो सकता था.
उत्तर प्रदेश के नेताओं ने अपने लोगों को टिकट तो दिलाया पर हार का ठीकरा गडकरी, उमा और संजय जोशी पर फोड़ा
दरअसल, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच सबसे ज्यादा सवाल उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रदर्शन को लेकर उठ रहे हैं. हालांकि, जो नेता सवाल उठा रहे हैं वे भी इस बात को जानते हैं कि उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य बन गया है जहां भाजपा के लिए अपनी खोयी जमीन को वापस हासिल करना किसी भी नेतृत्व के लिए आसान नहीं है. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘उमा भारती से लेकर संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में लगाने के बावजूद भाजपा का प्रदर्शन नहीं सुधरने को भले ही मीडिया इन नेताओं की नाकामी मान रहा हो लेकिन भाजपा के अंदर इस बात को लेकर मोटे तौर पर सहमति है कि अगर भाजपा की इतनी सीटें भी बच पाईं तो उसका श्रेय गडकरी, उमा भारती और संजय जोशी को ही जाता है.’
उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रदर्शन सुधारने में नाकाम रहे गडकरी को इस प्रदेश में और भी कई मोर्चों पर मात मिली. उन्होंने प्रदेश में कई सार्वजनिक मंचों पर यह कहा कि कोई भी नेता किसी कार्यकर्ता को यह आश्वासन नहीं दे कि वह उन्हें टिकट दिला देगा क्योंकि इस बार टिकट सर्वेक्षण के आधार पर मिलेगा. इससे कार्यकर्ताओं को लगा कि यह अध्यक्ष ईमानदार है. लेकिन गडकरी अपनी इस बात पर कायम नहीं रह सके. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि सर्वे के आधार पर तो सिर्फ 88 टिकट बांटे गए और बाकी अलग-अलग नेताओं के दबाव में दिए गए. यानी गडकरी ने जो बात सार्वजनिक मंच पर कही, उसके उलट फैसला उन्होंने बंद कमरे में टिकटों पर अंतिम निर्णय लेते हुए किया. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘पार्टी के प्रदेश नेताओं ने अपनी पसंद के लोगों को टिकट तो दिलवाया लेकिन हार का पूरा ठीकरा पहले गडकरी और बाद में उमा भारती और संजय जोशी के सर पर फोड़ा गया. यानी बड़ी चतुराई से हार की बिसात बिछाने का काम पार्टी के प्रदेश स्तर के नेताओं ने किया और गडकरी उनके जाल में फंस गए. यही खेल अंशुमान मिश्रा प्रकरण में भी दोहराया गया. अंशुमान की सबसे अधिक वकालत राजनाथ सिंह ने की थी लेकिन सारा ठीकरा फूटा गडकरी के सर. गडकरी को मात देने की कोशिश पार्टी कार्यकारिणी के गठन से लेकर पार्टी के लिए पैसे जुटाने तक के मामले में की गई.’ उत्तर प्रदेश में तो गडकरी के सर्वेक्षण पर भी सवाल उठ रहे हैं. पार्टी के लोग ही कह रहे हैं कि सर्वेक्षण में आगे-पीछे करने का काम भी पैसे लेकर किया गया.
उत्तर प्रदेश में गडकरी जात-जमात का संतुलन साधने में भी नाकामयाब रहे. भले ही ऊपरी तौर पर यह दिख रहा हो कि उमा भारती और बाबू सिंह कुशवाहा को लाकर वे अन्य पिछड़ा वर्ग को भाजपा के पक्ष में लाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अगर पश्चिम उत्तर प्रदेश में टिकटों के बंटवारे को देखें तो यह पता चलता है कि जात-जमात के मोर्चे पर गडकरी का प्रबंधन कितना कमजोर था. बागपत जिले में जाटों की संख्या 40 फीसदी है लेकिन भाजपा ने जिले के किसी भी सीट पर जाट उम्मीदवार नहीं उतारा. यह कहानी सिर्फ बागपत जिले की नहीं है बल्कि इस क्षेत्र की अधिकांश सीटों पर भाजपा ने यही कहानी दोहराई. भले ही आज अजित सिंह की पहचान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के नेता के तौर पर है लेकिन 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने इलाके की सभी 15 सीटों पर जीत दर्ज की थी. उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य रहे जयप्रकाश तोमर कहते हैं, ‘उस चुनाव में इलाके के जाटों और गुर्जरों ने पूरी तरह से भाजपा का समर्थन किया था. इसलिए भाजपा इधर की सभी सीटें जीत गई थी. लोग अजित सिंह के ढुलमुल रवैये से तंग आ चुके हैं लेकिन उन्हें कोई मजबूत विकल्प नहीं मिल रहा.’ वे कहते हैं, ‘अगर भाजपा जाति का संतुलन साध ले तो उत्तर प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में पार्टी अच्छा कर सकती है और उत्तर प्रदेश के जरिए दिल्ली पहुंच सकती है.’
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद भले ही भाजपा को जातीय समीकरण दुरुस्त करने की बात समझ में नहीं आई हो लेकिन संघ में इस पर चर्चा चल रही है. यही वजह है कि बीते दिनों आयोजित संघ की प्रतिनिधि सभा में कल्याण सिंह को वापस भाजपा में लाने की कोशिशों को गति देने पर भी बात हुई.
अंशुमान मिश्रा प्रकरण से पहले बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने को लेकर भी गडकरी विवादों के केंद्र में आ गए थे. भाजपा के पुराने नेता रहे रामाशीष राय ने आरोप लगाया कि कुशवाहा को पार्टी में शामिल कराने के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पैसे खाए. भाजपा ने भले ही रामाशीष राय को बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन आडवाणी, सुषमा और जेटली समेत गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ के विरोध ने गडकरी को इस बात पर मजबूर कर दिया कि वे कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने का फैसला कुछ समय के लिए टाल दें. आडवाणी की नाराजगी इस बात को लेकर थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी देशव्यापी जनचेतना यात्रा के बावजूद 5700 करोड़ रुपये के घोटाले के केंद्र में रहे कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया गया. उनका मानना था कि इससे यह संकेत जाएगा कि आडवाणी के अभियान को पार्टी ने महत्व नहीं दिया और वे कमजोर हो रहे हैं. यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि बादशाह सिंह जैसे आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को पार्टी में शामिल करने को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. क्योंकि इनकी चर्चा मीडिया में बार-बार नहीं हो रही थी.
गडकरी की फजीहत कराने का काम कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने भी कम नहीं किया. जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे तो उनके खिलाफ लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों पर पहले तो भाजपा ने उनका बचाव किया. फिर जब कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को लेकर आक्रामक भाजपा का अभियान कमजोर पड़ने लगा तो येदियुरप्पा को इस्तीफा देने के लिए मनाने का काम शुरू हुआ. येदियुरप्पा की वजह से पहली बार किसी दक्षिण भारतीय राज्य में कमल खिला था इसलिए उनके जनाधार को देखते हुए पार्टी उन्हें नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती है. येदियुरप्पा इस्तीफा देने को तैयार नहीं हुए तो गडकरी को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी. पार्टी के नेता ही बताते हैं कि दो मौके तो ऐसे भी आए जब दिल्ली में येदियुरप्पा ने कहा कि बेंगलुरु जाकर वे इस्तीफा दे देंगे. लेकिन वहां पहुंचते ही उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. बड़ी मुश्किल से उनकी पसंद के सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनाने और आरोपों से बरी होने पर वापस उन्हें मुख्यमंत्री पद लौटाने की शर्त पर येदियुरप्पा ने इस्तीफा दिया. उच्च न्यायालय द्वारा येदियुरप्पा के खिलाफ जमीन घोटाले की याचिका खारिज किए जाने के बाद येदियुरप्पा ने गडकरी पर इस बात के लिए दबाव बढ़ा दिया है कि वे उन्हें वापस कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाएं. लेकिन पार्टी सूत्रों के मुताबिक अब सदानंद गौड़ा कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं हैं. कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने हैं और ऐसे में गडकरी के लिए राज्य के सत्ता संघर्ष को सुलझाना टेढ़ी खीर बन गया है.
पार्टी के कई बड़े नेताओं की आपत्ति के बावजूद उमा भारती की वापसी करवाकर गडकरी ने एक साथ कई निशाने साधे
ऐसे में अहम सवाल यह है कि राजनीतिक प्रबंधन के मामले में कई मोर्चों पर मात खाने के बावजूद क्या नितिन गडकरी को बतौर अध्यक्ष एक और कार्यकाल मिलेगा? दिल्ली में काम कर रहे संघ के एक प्रचारक कहते हैं, ‘सर संघचालक मोहन भागवत और नितिन गडकरी में बाॅस और कर्मचारी जैसा कोई रिश्ता नहीं है. दोनों इस तरह बात करते हैं जैसे परिवार के एक बड़े सदस्य और छोटे सदस्य के बीच बातचीत होती है. पैसे लेकर टिकट बेचने के आरोप को अगर छोड़ दें तो संघ की नजर में गडकरी ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे वे खलनायक बन जाएं.’ अगर ऐसा है तो फिर गडकरी के दोबारा अध्यक्ष बनने में कोई रुकावट नहीं पैदा होनी चाहिए? इस सवाल के जवाब में संघ के ये अधिकारी कहते हैं, ‘अंशुमान मिश्रा प्रकरण के बाद नागपुर के संघ के कुछ अधिकारियों ने मोहन भागवत से नितिन गडकरी की शिकायत की है. लेकिन संघ के ज्यादातर लोगों के पास गडकरी के विकल्प के तौर पर कोई नाम नहीं है. अगर जेतली और सुषमा को ही अध्यक्ष बनाना था तो यह काम तो 2009 में भी किया जा सकता था. फिर गडकरी को लाने की जरूरत ही क्या थी.’ वे आगे बताते हैं, ‘संघ की रणनीति में गडकरी पूरी तरह फिट बैठते हैं. संघ भाजपा में जो भी करना चाहता है वह गडकरी के जरिए कर रहा है.’
वे उमा भारती की वापसी का उदाहरण देते हैं. उमा भारती को पार्टी में वापस लाने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की आपत्ति किसी से छिपी नहीं है लेकिन असली खेल शिवराज को आगे करके दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता कर रहे थे. एक बार तो उमा भारती की वापसी के बारे में सब तय हो गया था लेकिन घोषणा के ठीक पहले दिल्ली के नेताओं ने शिवराज से इस्तीफा लिखवाकर गडकरी को दे दिया. तकरीबन साल भर के प्रयास के बाद भी जब दिल्ली के नेता नहीं माने तो फिर मोहन भागवत ने ही गडकरी को वह मंत्र दिया जिससे उमा भारती की वापसी कुछ ही दिनों के अंदर हो गई. मोहन भागवत ने गडकरी को यह कहा था कि सहमति तो आपको अध्यक्ष बनाने को लेकर भी नहीं थी लेकिन आपको बनाया गया. इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी की नाराजगी के बावजूद गडकरी ने संघ के कहने पर संजय जोशी की वापसी कराई. संघ के इस अधिकारी ने कहा, ‘अब तक संघ ने जो भी कहा है, वह गडकरी ने किया है. इसलिए संघ के नाराज होने की कोई वजह नहीं है. अगर संघ के अंदर यही भाव अगले कुछ महीनों तक बना रहा तो गडकरी को भाजपा के संविधान में संशोधन करके दूसरा कार्यकाल मिलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.’
गडकरी को जानने वाले लोग बताते हैं कि छात्र राजनीति से उन्होंने अपनी पहचान एक उदार नेता की बनाने की कोशिश की है. गडकरी को वैचारिक आधार देने में सबसे प्रमुख भूमिका भाजपा के सहयोगी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाने वाले यशवंत राव केलकर की रही हैैै. संघ गडकरी की इसी छवि के जरिए भाजपा में एक नई लीडरशीप विकसित करने की रणनीति पर काम कर रहा है. पार्टी में मुरलीधर राव से लेकर धर्मेंद्र प्रधान और जगत प्रकाश नद्दा जैसे नेताओं का बढ़ता कद इसी रणनीति का हिस्सा है. इसलिए संघ गडकरी को हटाकर किसी ऐसे व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष नहीं बनाना चाहेगा जो पार्टी में नई लीडरशीप विकसित ही नहीं होने देना चाहता हो. संघ को पता है कि दिशा भ्रम की स्थिति प्राप्त कर चुकी भाजपा की सेहत सुधारने के लिए उसे ही आगे की सियासी रणनीति तैयार करनी है.
संघ के सांगठनिक ढांचे में आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन के दौरान राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे कृष्णा गोपाल, सुरेश चंद्रा और केसी कन्नन जैसे लोगों को शामिल किए जाने को भी जानकार उसी रणनीति से जोड़कर देख रहे हैं जिसे गडकरी के जरिए संघ आगे बढ़ाना चाहता है.