इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की रैलियों के बाद राज्य में कलह से ग्रस्त भाजपा कुछ हद तक संभली हुई दिखने लगी है. पार्टी का लक्ष्य अगले लोकसभा चुनाव में 272 से ज्यादा सीटें जीतना है और प्रदेश के पार्टी नेता मानते हैं कि मोदी का प्रभाव इसमें अहम भूमिका निभाएगा.
पर क्या मोदी फैक्टर पार्टी को 90 के दशक में चली राम मंदिर लहर से भी ज्यादा वोट दिला सकता है ? पार्टी वरिष्ठ नेता और विधानपरिषद के सदस्य महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘ यदि हमारे पक्ष में 1990 की तरह की लहर न भी हो फिर भी पार्टी पूरी कोशिश करेगी कि एक वैसी ही लहर बन सके और इसका श्रेय मोदी के चुनाव अभियान को जाता है. ‘ एक और वरिष्ठ नेता बात को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कहते हैं, ‘ हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि पार्टी के भीतर आपसी कलह खत्म हो जाए. वैसे भी इस पर मोदी की लहर भारी पड़ेगी.’
दरअसल 1990 का दशक राज्य में भाजपा के लिए स्वर्ण काल रहा है. अक्टूबर,1990 में कार सेवा के चलते राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर पहुंचने लगा था. नतीजतन 1991 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई. सफलता की कुछ यही कहानी लोकसभा चुनाव में भी दोहराई गई. 1989 में पार्टी को प्रदेश में लोकसभा की नौ सीटें मिली थीं तो दो साल में यह आंकड़ा 52 पर पहुंच गया और 1998 के लोकसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 57 हो गई. फिर एक साल बाद मध्यावधि चुनाव हुए. इनमें भाजपा 26 सीटें ही जीत सकी. उत्तर प्रदेश में उस समय से भाजपा की गिरावट का जो दौर शुरू हुआ तो पार्टी आगे नहीं बढ़ पाई. 2004 के लोकसभा चुनावों में जहां उसे 11 सीटें मिलीं वहीं तो 2009 में यह संख्या घटकर 10 हो गई.
इस बार मोदी प्रदेश में पांच रैलियां कर चुके हैं, राष्ट्रीय स्तर पर इनकी खूब चर्चा भी हुई. हालांकि इसके बाद भी उत्तर प्रदेश भाजपा में एक ऐसा वर्ग है जो मानकर चल रहा है कि मोदी का जादू सवर्णों और शहरी वर्ग तक ही सीमित है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों का वोट बैंक सीधे-सीधे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से जुड़ा हुआ है, ऐसे में मोदी के लिए इस वर्ग को भाजपा से जोड़ पाना एक बड़ी चुनौती है. हां, लेकिन भाजपा के पाले में कुछ वोट जरूर बढ़ेंगे, लेकिन इस पर यह कहना कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा करने से पार्टी को राम मंदिर आंदोलन जैसा समर्थन मिल जाएगा तो यह अतिशयोक्ति के अलावा कुछ नहीं है.’ पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबी एक नेता कहते हैं, ‘ मोदी को पार्टी अतिपिछड़े वर्ग के नेता के तौर पर पेश कर रही है. राजनाथ सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (2000-2002) थे तब उन्होंने पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी कोटे के भीतर इस वर्ग को अलग से आरक्षण का फायदा देने की कोशिश की थी लेकिन बाद में पार्टी इस कोशिश को किसी नतीजे तक नहीं ले गई. इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि मोदी इस वर्ग के मतदाताओं को अपनी ओर खींच पाएं.’
हालांकि सब ऐसा नहीं मानते. पार्टी के वरिष्ठ नेता लोटन राम निषाद जो खुद अतिपिछड़े वर्ग से आते हैं, कहते हैं, ‘ पिछड़े वर्ग के तहत जो 17 जातियां आती हैं वे आज तक सपा और बसपा के राजनीतिक खेल का मोहरा बनती रही हैं. इन्होंने दोनों पार्टियों को परख लिया है और इसलिए इन वर्गों के लोग अब भाजपा को भारी समर्थन देंगे.’
हालांकि प्रदेश के एक राजनीतिक विश्लेषक ऐसी उम्मीद को अतिउत्साह बताते हुए कुछ आंकड़ों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘ 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत महज 15 फीसदी था. यह अचानक 35 फीसदी नहीं बढ़ सकता. यही बात सीटों पर भी लागू होती है. इस समय भाजपा के पास दस सीटें हैं तो ये अधिकतम 20 तक पहुंच सकती हैं लेकिन इनमें तीन गुना बढ़ोतरी मुमकिन नहीं है.’
बढ़चढ़कर किए जा रहे भाजपा के तमाम दावों के साथ ही इस समय पार्टी नेताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल फिर वही है कि क्या मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है जिससे एक बार फिर पार्टी के पक्ष में राम मंदिर आंदोलन के समय जैसी लहर चल जाए. इस सवाल के सकारात्मक जवाब में सबसे बड़ी बाधा राज्य में पिछले सालों का भाजपा का प्रदर्शन है. इससे ये संकेत भी मिलते हैं कि इस साल के लोकसभा चुनावों में पार्टी कहां पहुंच सकती है. 2009 के आम चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थीं, सात सीटों पर वह दूसरे, 22 पर तीसरे और 16 लोकसभा सीटों पर चौथे स्थान पर रही. 25 सीटों पर उसने अपना कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से सात ऐसी हैं जिन पर भाजपा आज तक नहीं जीती. 10 पर वह एक बार ही जीती है जबकि 23 सीटों पर उसे दो बार जीत मिली है. इसके अलावा पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहे जो दावा करें लेकिन लोकसभा टिकट के लिए पार्टी में अब भी गुटबाजी और मारामारी दिख रही है.
प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र की ही मिसाल लें. खुद को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से भी वरिष्ठ मानने वाले मिश्र इस समय विधायक हैं. चर्चा है कि वे लोकसभा चुनाव लड़ना चाह रहे हैं ताकि एनडीए सरकार बने तो अपनी वरिष्ठता की वजह से वे केंद्रीय मंत्री बन सकें. अभी भाजपा ने औपचारिक रूप से लोकसभा उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया शुरू नहीं की है, लेकिन मिश्र पहले ही कानपुर से खुद को पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर चुके हैं. वे इस सीट को अपने लिए सबसे उपयुक्त इसलिए मानकर चल रहे हैं कि यहां एक बड़ा ब्राह्मण मतदाता वर्ग है. लेकिन उनकी दावेदारी के खिलाफ कानपुर जिले से भाजपा के विधायक- सत्यदेव पचौरी और सतीश महाना भी खुलकर आ गए हैं. वे भी कानपुर से चुनाव लड़ना चाहते हैं और कई बार मिश्र की आलोचना कर चुके हैं. दूसरी तरफ, प्रदेश में पार्टी के पदाधिकारियों और पार्टी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी की ठनी रहती है. पदाधिकारी यदि भाजपा के राष्ट्रीय सचिव विनोद पांडे और विधान परिषद के सदस्य महेंद्र सिंह को किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं तो वे तुरंत बाजपेयी के निशाने पर आ जाते हैं. बाजपेयी भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के करीबी हैं और पांडे व सिंह को राजनाथ सिंह का खास माना जाता है. यही बात भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी के मामले में भी है.
पार्टी के भीतर इन हालात पर लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘ पार्टी के सामने जो चुनौतियां हैं हमें उनका अहसास है. हो सकता है हमारा वोट प्रतिशत अभूतपूर्व तरीके से न बढ़े, लेकिन इसके बाद भी हमें कोशिश करनी होगी कि हम कम से कम 1999 के लोकसभा चुनावों में मिले वोटों (36.49) के करीब पहुंच सकें. पिछले एक दशक में मतदाताओं ने देख लिया है कि सपा और बसपा को वोट देने की वजह से ही कांग्रेस को मदद मिली और वह केंद्र में सरकार बना पाई. हम जानते हैं कि हमें इन दोनों पार्टियों की जातिवादी राजनीति से टकराना है लेकिन हम इसका मुकाबला मतदाताओं से यह अपील करके करेंगे कि वे भारत के अच्छे भविष्य के लिए वोट दें.’