इस मुलाकात से पहले संजय लीला भंसाली पिछले 14 घंटों से बतौर निर्माता अपनी फिल्म माई फ्रैंड पिंटो के के प्रोमोशन में व्यस्त रहे हैं और इस वजह से उनके मिजाज में थोड़ा चिड़चिड़ापन स्वाभाविक हैै. लेकिन जो चीज स्वाभाविक नहीं वह यह है कि इस व्यस्तता के बावजूद वे बिल्कुल तरोताजा दिखते हैं. भंसाली बिना गंभीरता ओढ़े बात करते हैं और अपने डगमगाते हुए करियर ग्राफ का खुद मजाक बनाते हैं. बात करने के साथ-साथ उनके हाथ इस तरह चलते हैं जैसे बातों के धागों से कोई तस्वीर बुन रहे हों. निशा सूजन से बातचीत में यह जादुई फिल्मकार अपने बचपन, जीवन के उतार-चढ़ाव, अपनी फिल्मों में शामिल विशिष्ट मगर आलोचना की शिकार कलात्मकता के प्रेरणास्त्रोत और असफलता के बावजूद वापसी करने की अपनी हठ को साझा कर रहा है.
सुंदरता को लेकर आपकी पहली यादें क्या हैं?
शायद मैं चार साल का था. मेरे पिता मुझे लेकर अपने एक दोस्त से मिलने स्टूडियो गए थे. मुझे सेट पर चुपचाप कोने में बैठने की समझाइश देकर वह अपने दोस्त से मिलने चले गए. मगर उनका ध्यान इस बात पर नहीं गया कि वहां एक कैबरे का शूट चल रहा था. सफेद रंग की ड्रेस पहने एक लड़की, जो मुख्य डांसर थी, को बिस्तर पर लेटे एक आदमी के पास जाना था और उसकी तरफ एक सेब फेंकना था. उन्होंने उस सीन को एक बार किया, दो बार किया और कई बार किया. मैं पूरी तरह सम्मोहित था. उस लड़की ने नकली सींग पहन रखे थे. वह पूरा दृश्य पूरी तरह से विचित्र और असाधारण था. तभी मेरे पिता आए और मुझे बाहर ले गए लेकिन तब तक मैं सम्मोहित हो चुका था.
क्या आपको सपने भी टेक्नीकलर में आते थे?
ईस्टमैन कलर में कहिए. मैं नल बाजार और भूलेश्वर के कोने में रहता था. यह एक लोअर मिडिल-क्लास इलाका था जहां पर ढ़ेर सारी साड़ियां खिड़कियों से लटका करती थीं, लोग एक बालकनी से दूसरी बालकनी में खड़े होकर बातचीत करते थे, किसी की आंटी किसी और की आंटी से लड़ रही होती थी और लोग फिसलन भरी छतों पर पतंगे उड़ाया करते थे. आर डी बर्मन के गाने ऊंची आवाज में सुने जाते थे.’पन्ना की तमन्ना’ हमेशा से मेरा पतंग उड़ाते वक्त का पसंदीदा गाना रहा है. मैं रेड लाइट इलाके से होकर स्कूल जाता था. मेरी शुरू की सभी यादें उन्ही वेश्याओं, उनके ग्राहकों और भड़कदार रंगों की रही हैं. मैं ऐसी ही दुनिया से आया हूं जहां के रंग बहुत चटक होते थ और इसीलिए मेरी फिल्मों में भी वे इतनी प्रबलता से दिखते हैं. स्कूल जाते वक्त रास्ते में आठ थियेटर एक लाइन में पड़ते थे. वहां में अजीब-अजीब फिल्में और उन फिल्मों के पोस्टर देखा करता. वेश्याएं उन थियेटरों में अपने ग्राहकों को लाती थी और हम आगे की सीटों पर बैठ कर फिल्म देखते हुए सोचते थे कि वे लोग पीछे की सीटों पर क्या करते होंगे.
हमने सुना है कि संगीत आपके बचपन का एक अहम हिस्सा रहा है.
मेरे बचपन का पसंदीदा खिलौना मेरा रेडियो था. मैं स्कूल से आता, अपना बैग फेंकता और रेडियो चालू कर देता. कभी-कभी अपने पसंदीदा गाने को रेडियो पर सुनने के लिए छह महीने तक इंतजार करना पड़ता था. आखिर में घरवाले कहते कि जाओ नीचे जाकर दुकान से फोन कर लो और विविध भारती को अपनी फरमाइश दे दो. गाना सुनते वक्त मैं कल्पना करता कि मैं इसको किस तरह शूट करूंगा.अगर मैं यह गाना कर रहा होता तो हेलन कैसे डांस करती? यही मेरा होमवर्क होता था. मेरी पढ़ाई मंे दिलचस्पी नहीं थी मगर मैं एक समझदार छात्र था.मुझे गणित में कोई दिलचस्पी नहीं थी मगर मैं गाना, उसके मायने और उसके खुद पर पड़ते असर को समझ सकता था. घर के पास ही मेरे एक अंकल रहा करते थे जिन्हें रिकॉर्ड इकट्ठा करने का शौक था. मुझे याद है जब मैंने पहली बार ‘आंधी’ के गाने सुने थे. मैं स्कूल से लौट रहा था और उस वक्त उन्होंने आंधी का रिकार्ड लगाया हुआ था जिसपर ‘तेरे बिना जिंदगी से’ बज रहा था, मैंने पहली बार लता जी की आवाज सुनी. मैं शायद छठी क्लास में था. मैंने झोपड़पट्टी (chawl) की सीढ़ियों पर बैठ कर पूरा गाना सुना. वह झोपड़पट्टी प्लास्टिक की शीटों से ढ़की थी, बरसाती पानी टपक रहा था और गंदगी के बीच चूहे और काकरोच दौड़ रहे थे. मगर गाने के दौरान वह जगह भी सुंदर हो गई थी. मेरे पिताजी को शास्त्रीय संगीत काफी पसंद था इसलिए उनके पास अब्दुल करीम खान और रोशनआरा बैगम के रिकार्ड थे. ‘खामोशी’ में जो रिकार्ड तोड़ने वाला सीन है वैसा मेरे साथ तब होता था जब मेरे पिता नाराज होते थे और मेरे सारे रिकॉर्ड तोड़ देते थे.
अपने पिता के बारे में कुछ बताएं?
मेरे पिता मुंबई में पैदा हुए और यहीं पले-बढ़े भी. वे फिल्में बनाया करते थे, जो कि जाहिर तौर पर नहीं चली होंगी. मैंने उनकी एक भी फिल्म नहीं देखी है. वे मुझे फिल्म दिखाने ले जाते और कहते, ’देखो वह किस तरह कैमरे को मूव कर रहा है.’ उन्हें शायद फिल्मों के प्रति मेरी दीवानगी का अंदाजा था. मुझे याद है कि वह मुझे बबीता और संजय खान की फिल्म ‘सोने के हाथ’ की शूटिंग पर ले गए थे. मुझे नहीं लगता कि बबीता ने वह फिल्म देखी भी होगी! उस फिल्म में एक सीन था जिसमें बबीता संजय खान को पूछती हैं,’वो चाबी किधर है?’ मैं घर जाकर उस सीन की नकल करने लगा. पहले बबीता बनकर, फिर संजय खान बनकर. यह काम इतना लंबा चला कि आखिर में झुंझलाकर मेरे पिताजी ने मुझे एक चांटा जड़ा और कहा, ’जाकर अपना होमवर्क करो और भगवान के लिए बबीता और संजय की नकल करना छोड़ दो.’ मेरी मां डांसर थीं. वे और जाने-माने नृत्य-निर्देशक पीएल राज ने मिलकर काफी सारे स्टेज शो किए थे.मगर मेरी बहन और मेरे जन्म के बाद उन्होंने काम करना काफी कम कर दिया था. लेकिन जब भी भी रेडियो पर गाना आता था तो मां डांस किया करतीं. बिस्तर, कुर्सी-टेबल से घिरे 200 वर्ग फीट के छोटे से घर में मां डांस करती और चीजों से टकराती, उन्हें गिराती. शायद इसलिए मेरे सेट इतने विशालकाय होते हैं ताकि मेरी हीरोइन को डांस करने के लिए जगह की कमी न हो.
आपका सौंदर्यबोध फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे (एफटीआईआई)में उस दौर में कैसे बचा रहा जब हिंदी सिनेमा को हीन भावना से देखा जाता था?
जो भी मेरे दिमाग में था उसे कभी सौंदर्यबोध नहीं माना गया था. वह एक भड़कीली और घटिया कला थी. मैंने एफटीआईआई में उन महान फिल्मकारों की फिल्में देखी जिनको देखने की मैंने कभी जहमत नहीं उठाई थी. मगर मैं कभी भी गानों को शूट करने और नृत्य निर्देशन से दूर नहीं जाना चाहता था. एफटीआईआई में ही मैंने गुरूदत्त को समझा-पाया. मुझे लगा कि गुरूदत्त एक महान निर्देशक थे क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया उसमें संगीत का अहम स्थान था.
एफटीआईआई में उन दिनों हंगेरियन सिनेमा जैसी चीजों का जोर था. इस माहौल में आपने अपनी मौलिकता कैसे बचाए रखी?
मैंने ऐसी कोशिश ही नहीं की. बल्कि मैंने तो इसका स्वागत किया. खासकर हंगेरियन सिनेमा का. इसीलिए मैंने ‘हम दिल दे चुके सनम’ हंगरी में शूट की थी क्योंकि मैं वहां के कई फिल्मकारों से बहुत प्रभावित था. मैं मानता हूं कि हम दिल दे चुके सनम दो अलग-अलग दुनियाओं का मेल था. फिल्म का पहला हाफ उस चमकीली दुनिया का था जहां मैं पला-बढ़ा और दूसरा हाफ पूर्वी यूरोपियन सिनेमा की दुनिया का जहां हर चीज सोच-विचार और सावधानी लिए होती है. हम दिल…. दो फिल्में थी जिन्हें एक धागे में गूंथा गया था. आपका सवाल बहुत अनूठा है. किसी ने आज तक इस पर ध्यान ही नहीं दिया था.
अपनी मां का नाम अपने नाम में जोड़ने के पीछे क्या वजह थी?
विधु विनोद चोपड़ा की 1942: ए लव स्टोरी के बाद मैंने ऐसा किया. उसमें मैंने एक गाना निर्देशित किया था जिसका विधु मुझे क्रेडिट देना चाहते थे. मैंने कहा मेरा नाम संजय लीला भंसाली लिखना. विधु को आश्चर्य हुआ मगर वे मान गए. मैंने अपनी मां को जिंदगी में काफी संघर्ष करते देखा है. इस तरह मैं उन्हें श्रृद्धांजलि देना चाहता था.
आपकी फिल्म में सभी नायिकाएं ‘लार्जर देन लाइफ’ होती हैं. क्या यह महिलाओं के साथ आपके रिश्तों का ही आईना हैं?
इसका श्रेय मेरी मां और दादी को जाता है.मेरी दादी एक हिम्मत वाली महिला थी. 22 साल की उम्र में विधवा होने के बावजूद उन्होंने तीन बच्चों की अच्छे से परवरिश की. 60 से ज्यादा की उम्र में भी वे रात के दो बजे तक काम करतीं ताकि हम लोगों को वक्त पर खाना मिले. कभी-कभी जब घर में खाने को कुछ नहीं होता था तो वह पैसे के लिए मटका खेला करती थी. क्या आपको खामोशी में हेलेन का प्यानो बेचने वाला सीन याद है? मुझे याद है एक बार दादी भूलेश्वर के बाजार में जाकर अपनी आखिरी चांदी की प्लेट बेच दी थी और लौटते वक्त हमारे खेलने के लिए वे एक प्लास्टिक का कबूतर लेकर आई थीं. एक चांदी की प्लेट प्लास्टिक का कबूतर बन गई थी. यह किसी जादू जैसा था. घर में मां हमेशा नाचती-गाती रहतीं. वे लोगों की साड़ी में फाल लगाया करतीं जिसके उन्हें 25 पैसे मिलते थे. एक साड़ी में फाल लगाने में एक से दो घंटे लगते और मिलते सिर्फ 25 पैसे. साथ ही वे घर-घर जाकर साबुन भी बेचा करतीं. मगर मैंने देखा है कि मुस्कान कभी गायब नहीं हुई. जीवन के प्रति आस्था कभी नहीं खत्म हुई. यह उम्मीद कि बच्चे जिंदगी में कुछ बड़ा जरूर करेंगे, कभी खत्म नहीं हुई.
और फिर जब उन्होंने आपको सफल होते देखा तो क्या उनकी प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी आपको उम्मीद थी?
सफलता धीरे-धीरे मिलना शुरू हुई थी. पहली फिल्म ने अच्छा बिजनेस नहीं किया था. दूसरी सफल रही थी. देवदास काफी ज्यादा सफल रही. मगर सफलता की बातें नहीं होती थीं. मैंने देवदास दो कमरों के घर में रहते हुए बनाई थी जहां मां बेडरूम में सोती थीं और मैं बाहर वाले कमरे में. शायद इसलिए तब सफलता महसूस नहीं हुई. अभी मैं वर्सोवा में रह रहा हूं मगर मेरी आत्मा अभी भी भूलेश्वर में ही है. मेरा हर सपना जो सच हुआ वह वहीं देखा हुआ था. मैं अभी भी हर दो महीने में वहां जाता हूं. उसी छत पर खड़ा होता हूं. इससे मुझे नई ऊर्जा मिलती है. संघर्षों का सामना करने की हिम्मत मिलती है. जब कोई पूछता है, ’अरे, कितने दिनों बाद आए हो, कैसे हो?’ और मैं जब वापस चिल्लाता हूं,’अच्छा हूं. आप कैसे हैं?’, तो बहुत अच्छा लगता है.
बालीवुड और उससे आज के शहरकेंद्रित यथार्थवादी सिनेमा के चलन पर क्या कहेंगे? क्या आपको लगता है कि आपको खुद में कुछ बदलाव लाना चाहिए?
मेरी पहली फिल्म खामोशी के वक्त हिंदी सिनेमा साजन जैसी फिल्में बना रहा था. उस दौर में खामोशी नई तरह की फिल्म थी.किसी को समझ नहीं आ रहा था कि उसका क्या करना है. कुछ लोगों को वह बहुत ही शानदार लगी और कुछ लोगों को बहुत ही बकवास. मगर मुझे लगा कि मैंने अपना खुद का एक मानक स्थापित किया था. उसके बाद हम दिल चुके सनम बनाई. फिर ब्लैक बनाई जो बिना गानों के थी. सांवरिया उन दुर्लभ फिल्मों में से एक थी जो लोगों को समझ में नहीं आई. यह एक संवेदनशील फिल्म थी जिसमें दोस्तोवस्की की कहानी को एक ऐसी दुनिया के जरिये कहा गया था था जैसी दुनिया मैं अपने किरदारों के लिए बुनना चाहता था. इसके बाद थी गुजारिश जोकि मेरा बहुत, बहुत आत्मघातक फैसला था (हंसते हुए). मैं मानता हूं कि लोग ऐसी फिल्म बनाना चाहते हैं जिसमें जिंदगी से पलायन हो, तनाव हो और फिल्म खतरनाक दिखे. यह एक तरह का सिनेमा है. मगर आपकी फिल्मों से गाने, डांस, ड्रामा, ट्रैजिक हीरो, मीना कुमारी, अमिताभ बच्च्न, दिलीप कुमार जैसी भारतीय पहचान नहीं जानी चाहिए. यही वह सिनेमा है जो हमारा है. मुझे नहीं लगता कि मुझे अपने काम पर फिर से गौर करने की जरूरत है.आप उन चीजों को फिर से ईजाद क्यों करेंगे जो आप पूरे विश्वास के साथ करते आए हैं और जिन्हें देखते हुए पूरा देश बड़ा हुआ है.
आप प्यार-मोहब्बत पर इतनी भव्य कहानियां कहते हैं मगर अपने खुद के रिश्तों के बारे में कभी बात नहीं करते?
बाकी लोगों की तरह मैं भी प्यार की गिरफ्त में रहा हूं. रिश्ते का टूट जाना या लोगों के अलग हो जाने का मतलब यह नहीं हैं कि आप प्यार में विश्वास करना छोड़ दे. वैसे भी मेरे साथ रहना आसान बात नहीं है. काम ही मेरी प्राथमिकता है और कोई भी इस बात से नाराज हो सकता है कि वह मेरी प्राथमिकता में नंबर चार पर है, मेरे काम के काफी नीचे! मैंने जिंदगी में काफी अच्छे-बुरे दिन देखे हैं. और मैं जानता हूं कि किसी रिश्ते मे रहने का क्या मतलब होता है या करियर का क्या मतलब होता है या असफलता का सामना करना कैसा होता है. सांवरिया के बाद, मैं एक ओपेरा का निर्देशन करने पेरिस चला गया था. वहां मैं तीन महीने तक अकेले रहा. सीन नदी के किनारों पर चलते हुए मैं मदन मोहन और लता मंगेशकर के गीत सुना करता था. वहां मुझे एक बार फिर यह अहसास हुआ कि मैं फिल्मों के बगैर जिंदा नहीं रह सकता.