पत्रकारिता के क्षेत्र की सबसे असरदार शिख्सयत और सियासी सिद्धांतकार के रूप में अपनी खास पहचान बना चुके पूर्व विनिवेश मंत्री अरुण शौरी क्या इतने नौसिखिया हो सकते हैं कि अपने ऊपर फरेबी राजनेता की मुहर लगवा लें। फिलहाल तो शौरी अपने कार्यकाल में हुई गम्भीर अनियमितताओं के कुहासे में घिरे हुए हैं। सूत्रों की मानें तो निजीकरण पर राजनीतिक दो-मुँहापन ही शौरी के लिए मुश्किलें पैदा करता रहा। भारत एल्युमिनियम कॉर्पोरेशन (बाल्को) के निजीकरण पर तो इतना कोहराम मचा कि वाजपेयी सरकार के हाथ-पाँव ही सुन्न पड़ गये? सन् 2002 में वाजपेयी सरकार में विनिवेश मंत्री रहते हुए शौरी ने उदयपुर स्थित लक्ष्मी विलास होटल को निजी क्षेत्र के उपक्रम भारत होटल लिमिटेड को कौडिय़ों के भाव साढ़े सात करोड़ में बेच दिया; जबकि मूल्यांकन के हिसाब से लक्ष्मी विलास होटल की कीमत 252 करोड़ से भी ज़्यादा की थी।
इस मामले में सीबीआई कोर्ट ने शौरी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करते हुए जाँच के आदेश दे दिये हैं। बताते चलें कि उदयपुर की फतेहसागर झील के मुहाने पर स्थित पूर्व राज-परिवार की सम्पत्ति लक्ष्मी विलास पाँच सितारा होटल था। अब इसे ललित लक्ष्मी विलास पैलेस के नाम से जाना जाता है। इस मामले में पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल को भी आरोपी बनाया गया है। हालाँकि सीबीआई के निशाने पर भारत होटल के मुख्य प्रबन्ध निदेशक ज्योत्सना सूरी का भी नाम है। लेकिन सीबीआई के सूत्रों का कहना है कि ज्योत्सना का नाम प्राथमिकी में तो नहीं है; लेकिन इस मामले में उनकी भूमिका को संदेहास्पद माना जा रहा है। उधर अपने बचाव में शौरी का कहना है इस मामले में नियम संगत प्रक्रिया अपनायी गयी थी।
पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल भी यही बात दोहराते हैं कि सब कुछ नियमानुसार हुआ है। बहरहाल सीबीआई कोर्ट के फैसले के बाद होटल को उदयपुर ज़िला प्रशासन ने अपने कब्ज़े में ले लिया है। इसके साथ ही बाहर लगाये गये बोर्ड में इसे राज्य सरकार की सम्पत्ति घोषित करते हुए लग्ज़री होटल प्रदर्शित किया गया है। उदयपुर ज़िला प्रशासन ने इस होटल के रखरखाव के लिए केंद्र सरकार को सूचित करते हुए रिसीवर नियुक्त कर दिया है। करीब 18 साल लम्बी चली इस कवायद की पृष्ठभूमि को लक्ष्मी विलास पैलेस के एक पूर्व कर्मचारी अंबालाल नायक ने तैयार किया। नायक की अनथक कोशिशों का ही नतीजा था कि सीबीआई को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा। प्रकरण में लम्बी चली पड़ताल में सीबीआई को मानना पड़ा कि करोड़ों की इमारत कोडिय़ों में बेच दी गयी। होटल की वास्तविक कीमत और ललित सूरी को बेचे गये दामों में भारी अन्तर था।
सवाल है कि मंत्री रहते हुए शौरी की नीतिगत व्यवस्था क्यों उन्हें कटघरे में खड़ा करती रही? एक मंत्री की मान्यताओं और मंत्रालय की अपेक्षाओं के बीच चौड़ी खाई विरले ही देखने को मिलती है। विश्लेषकों का कहना है कि विनिवेश मंत्रालय और अरुण शौरी तो एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं थे। विनिवेश के मामले में एक मंत्री की अक्षमता कितनी कीमत ले सकती है? लक्ष्मी विलास होटल की बिक्री को इसका स्पष्ट उदाहरण माना जा सकता है। नतीजतन शौरी सीबीआई के सामने फुटबॉल बने हुए हैं। लक्ष्मी विलास होटल के अतिरिक्त एक और मामला इन दिनों सुर्खियाँ बटोर रहा है। अडानी परिवार को कोयला भुगतान के मामले में राज्य के ऊर्जा विभाग ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। असल में मामला समझें तो अडानी परिवार का कोयला भुगतान के मामले में राजस्थान डिस्कॉम सुप्रीम कोर्ट में हार गया था। डिस्कॉम को अनुबन्ध के तहत निर्धारित बकाया राशि क्षतिपूर्ति शुल्क के रूप में 5200 करोड़ रुपये चुकाने थे। इस अनुबन्ध को समझें तो अडानी पॉवर ने राजस्थान के कवई में 1320 मेगावाट का संयंत्र लगाया था। लेकिन जब विदेश से कोयला मँगाये जाने पर कम्पनी ने अन्तर राशि का तकाज़ा किया, तो डिस्कॉम लम्बी प्रक्रिया का हवाला देकर पीछे हट गया। नतीजतन डिस्कॉम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
कोर्ट ने इस मामले में राज्य सरकार को 50 फीसदी भुगतान के अंतरिम आदेश दे दिये। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद डिस्कॉम भुगतान में हीला-हवाली कर रहा है। डिस्काम के अधिकारियों का कहना है कि कम्पनी कोयला कहीं से भी मँगवाये, उसे भुगतान अनुबन्ध की निर्धारित दरों से ही किया जाएगा। जबकि अडानी परिवार का कहना है कि उसे तो कोयला उपलब्ध ही नहीं कराया गया। नतीजतन उसे स्थानीय स्तर पर कोयला का इंतज़ाम करना पड़ा। इसके लिए उसे ज़्यादा भुगतान करना पड़ा। सूत्रों का कहना है कि ऊर्जा विभाग अपनी जगह सही भी हो सकता है; लेकिन सुप्रीम कोर्ट में तो अपना पक्ष सही ढंग से नहीं रख पाया। यह अक्षमता तो ऊर्जा मंत्रालय को ही भारी पड़ेगी।