जब प्रधानमंत्री मोदी ने एक जनसभा में विपक्ष पर निशाना साधते हुए युवाओं को रेवड़ी संस्कृति यानी मुफ़्त योजनाओं के लाभ के ख़िलाफ़ आगाह किया, तो एक नयी बहस छिड़ गयी। मुफ़्त की घोषणाओं पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस के बाद चुनाव आयोग ने प्रस्ताव दिया है कि आदर्श आचार संहिता में संशोधन किया जाए, ताकि सभी दलों के लिए मतदाताओं को यह बताना अनिवार्य हो जाए कि वे चुनाव में अपनी तरफ़ से की गयी मुफ़्त सुविधाएँ देने की घोषणाओं को सरकार में आकर लागू करने के लिए आवश्यक धन का इंतज़ाम कैसे और कहाँ से करेंगे?
इस बार विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की ‘तहलका’ की आवरण कथा (कवर स्टोरी) ‘राजनीतिक रेवडिय़ाँ’ इसी विषय पर है। आवरण कथा में तर्क दिया गया है कि एक राज्य में, जहाँ ग़रीबी और असमानता है; मुफ़्त योजनाओं की वास्तव में आवश्यकता क्यों है? साथ ही देश और राज्यों पर इनसे पडऩे वाले आर्थिक बोझ के साथ-साथ नेताओं और मंत्रियों को मिलने वाली लाखों की मुफ़्त सुविधाओं का भी ज़िक्र किया गया है। यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने भी सर्वोच्च न्यायालय में अपने हलफ़नामे में स्वीकार किया कि मुफ़्त घोषणाएँ व्यक्तिपरक हैं और व्याख्या के लिए खुली हैं। इन घोषणाओं को परिभाषित करना कठिन है। अगर बिजली के बिलों में छूट एक मुफ़्त योजना है, तो ग़रीबों को मुफ़्त अनाज और भी बड़ी मुफ़्त की सौग़ात है।
उसी मानदण्ड से प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना (पीएम-जीकेएवाई) भी मुफ़्त के दायरे में आ जाएगी। इस योजना के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दिये जाने वाले राशन के अलावा लगभग 81.35 करोड़ लाभार्थियों को प्रति व्यक्ति पाँच किलो राशन दिया जाता है। क्या बुज़ुर्गों की आबादी को बिना किसी वित्तीय सहायता के वृद्धावस्था पेंशन एक मुफ़्त या कल्याणकारी उपाय है? जब सरकार कमज़ोर वर्गों को लाभ पहुँचाने के लिए आबादी के सम्पन्न वर्गों पर कर लगाती है, तो क्या ग़लत है? मुफ़्त उपहार देना राज्य को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सब्सिडी वाली सेवाएँ प्रदान करने और सब्सिडी वाले भोजन या बिजली आदि प्रदान करके परिवारों को ग़रीबी से निपटने में मदद करने का अधिकार देता है। राजनीतिक दलों को चुनावों के दौरान मतदाताओं को बिना वित्तीय प्रावधानों के सभी प्रकार के मुफ़्त उपहार देने का वादा करने में कोई गुरेज़ नहीं है। पंजाब में चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी ने घरेलू उपभोक्ताओं को हर महीने 300 यूनिट मुफ़्त बिजली देने का वादा किया था और अब वह गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी यही वादा दोहरा रही है। जहाँ विपक्षी दल सत्ता में आने पर मतदाताओं से लुभावने वादे करते हैं, वहीं सत्तारूढ़ दल आदर्श आचार संहिता लागू होने के महीनों पहले से ही छूट देना शुरू कर देते हैं।
मुफ़्त योजनाओं, जिन्हें कुछ लोग मुफ़्तखोरी भी कहते हैं; पर यह बहस अन्तहीन है। बड़ा सवाल यह है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी हम मुफ़्त चीज़ों के लिए क्यों तरसते हैं? सच तो यह है कि कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता। क्योंकि मुफ़्त की सुविधाओं की भी क़ीमत किसी-न-किसी रूप में चुकानी होती है। समाधान एक स्वतंत्र वित्तीय परिषद् की स्थापना में निहित है। जैसा कि राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन समीक्षा समिति द्वारा अनुशंसित है, ताकि केंद्र और राज्यों को प्रमुख विकास उद्देश्यों में शामिल होने के दौरान सूचित आर्थिक निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र, नीति आयोग, वित्त आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को चुनावों के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ़्त उपहार देने की प्रथा से निपटने के लिए रचनात्मक सुझाव देने के लिए एक विशेषज्ञ निकाय का गठन करने के लिए कहा है। यह आशा की जाती है कि निकट भविष्य में इस तरह की घोषणाओं को दरवाज़ा दिखा दिया जाएगा।