‘लगान’ का निर्माण आपका अहम फैसला था. उस फिल्म से इंडस्ट्री में कई बदलाव आए. आज के आमिर खान को बनाने में ‘लगान’ का कितना बड़ा योगदान रहा?
‘लगान’ मेरे करियर का माइलस्टोन है. इसके निर्माण में मेरा जुड़ाव एक्टर, क्रिएटिव पर्सन और प्रोड्यूसर के रूप में था. उन सभी जिम्मेदारियों को मैंने निभाया. ‘लगान’ ने भी हमें बहुत कुछ दिया. मेनस्ट्रीम सिनेमा में उस मैग्नीट्यूड की फिल्में नहीं बनती थीं. उस फिल्म से हिम्मत मिली कि एक्सपेरिमेंट और बड़े पैमाने पर नए विषय की फिल्म भी दर्शक पसंद कर सकते हैं. उस फिल्म ने हमारे दिमाग की खिड़कियां खोल दीं. मेरे प्रोडक्शन को सेटअप करने में ‘लगान’ का योगदान है. दरअसल, मैं तो प्रोडक्शन करना ही नहीं चाहता था.
ऐसा क्यों?
बतौर अभिनेता जब मैं इंडस्ट्री में आया तो मेरे चाचा जान (नासिर हुसैन) और अब्बा जान (ताहिर हुसैन) फिल्में बना रहे थे. उनको देख कर मैंने तय किया था कि प्रोडक्शन से दूर ही रहना है. बहुत खतरे का काम है प्रोडक्शन. आप तब के मेरे इंटरव्यू पढ़ें तो मैं कहा करता था कि जिंदगी में कभी कोई फिल्म प्रोड्यूस नहीं करूंगा.
फिर कैसे मन बदला और आप ‘लगान’ के निर्माण के लिए तैयार हुए?
आशुतोष गोवारीकर ने मुझे एक्टर के तौर पर लेने के लिए स्क्रिप्ट सुनाई थी. तब तक मैंने कोई फिल्म प्रोड्यूस नहीं की थी. ‘लगान’ की कहानी मुझे बहुत पसंद आई थी. मेरी चिंता थी कि ऐसी फिल्म को कौन प्रोड्यूस करेगा. एक तो आशुतोष दो फ्लॉप दे चुके थे और दूसरे ‘लगान’ में चलन के हिसाब से कुछ भी नहीं था. मैंने आशुतोष को सलाह दी कि पहले तू कुछ प्रोड्यूसर से मिल. यह मत बताना कि मैं फिल्म कर रहा हूं. मेरा नाम सुनते ही वे तैयार हो जाएंगे. वे गलत वजह से… स्टार की वजह से तैयार होंगे. तू कहानी सुना और देख कि लोग क्या कहते हैं. मैं तो हूं ही तुम्हारे साथ. उसने कई प्रोड्यूसरों को कहानी सुनाई. फिल्म किसी की समझ में नहीं आई. तब मुझे गुरुदत्त, बीआर चोपड़ा, महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्ममेकर्स से प्रेरणा मिली. उनकी हिम्मत ने जोश दिया. तब तक मुझे एक्टिंग करते दस-बारह साल हो गए थे. मैंने फैसला किया कि मैं रिस्क लूंं. एक ही जिंदगी है, जो करना है कर लूं. उस वक्त मैंने फैसला किया था कि एक ही फिल्म बनाऊंगा.
कह सकते हैं कि ‘लगान’ की सफलता ने आपको निर्भीक कर दिया. उसके बाद से आपने काफी अलग किस्म की फिल्में कीं…
निर्भीक तो मैं शुरू से था. ‘कयामत से कयामत तक’ से मैंने शुरुआत की. तब वैसी फिल्म कोई नहीं कर सकता था. ‘अंदाज अपना अपना’ देख लें. उस समय मुझे ऐसी फिल्मों की जरूरत नहीं थी. मैं तो स्टार था. ‘जो जीता वही सिकंदर’ या ‘सरफरोश’ नाॅर्मल फिल्में नहीं हैं. यहां तक कि ‘दिल’ भी… लेकिन हां, ‘लगान’ अलग लेवल की फिल्म थी. उससे हिम्मत बढ़ गई. आप जिस निर्भीकता की बात कर रहे हैं, वह मेरे एटीट्यूड में पहले से था. दुनिया की नजरों में हमेशा से पंगे लेता रहा हूं. वास्तव में अपनी पसंद का काम करता रहा हूं. मुझे मालूम है कि जो मुझे अच्छा लगता है वह पब्लिक को भी अच्छा लगता है.
कोई एक टर्निंग पॉइंट रहा होगा, जब आप को एहसास हुआ होगा कि आप अपनी मर्जी का काम करें तो भी दर्शक पसंद करेंगे?
नहीं, कोई टर्निंग पॉइंट नहीं है. यह एक्सपीरिएंस ‘कयामत से कयामत तक’ के समय ही हो गया था. बड़ी सीख मिली थी. फिल्म सफल रही थी. उसके बाद मैंने नौ फिल्में साइन की थीं. सारी फिल्में मैंने यही सोच कर साइन की थीं कि अच्छी होंगी. उसी दौरान मैंने डायरेक्टर के महत्व को समझ लिया. उन दिनों मुझे जिन डायरेक्टरों का काम अच्छा लगता था और मैं जिनके साथ काम करना चाहता था, वे मुझे साइन नहीं कर रहे थे. वजह जो भी रही हो… तब खुद को प्रूव करना आसान नहीं था. मैं तब तक स्टार नहीं बना था. फिर मैंने नए डायरेक्टर चुनने शुरू किए. मैंने परखा कि कौन-कौन डायरेक्टर नए हंै और अच्छा काम कर रहे हैं. एक फिल्म की शूटिंग में पता चल गया कि डायरेक्टर ही सब कुछ है. स्कि्रप्ट कितनी भी अच्छी हो, डायरेक्टर उसे कहीं भी पहुंचा सकता है. फिल्म बुरी हो सकती है. तभी मैंने फैसला किया कि तीन चीजों (स्क्रिप्ट, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर) से संतुष्ट होने पर ही फिल्में साइन करूंगा. प्रोड्यूसर अगर उन्नीस हो तो चीजें संभाली जा सकती हैं, लेकिन स्क्रिप्ट और डायरेक्टर कमजोर हों तो कुछ नहीं किया जा सकता. वैसे टर्निंग पॉइंट बताना ही है तो ‘लगान’ को मान सकते हैं.
‘दर्शकों का प्यार सुनामी की तरह आता है. आप सावधान न रहें तो बह जाएंगे. कुछ पकड़ कर रखना पड़ता है. जमीन में पांव धंसा कर रखना पड़ता है’
‘लगान’ के बाद की आपकी फिल्मों में ‘गजनी’ और ‘फना’ दो फिल्में अलग किस्म की हैं. दोनों भटकाव लगती हैं.
मैं नहीं मानता. ‘गजनी’ और ‘फना’ दोनों के बारे में कई लोगों की राय है कि ये मुझे नहीं करनी चाहिए थीं. मैं सहमत नहीं हूं. मैंने दोनों फिल्में इसलिए कीं क्योंकि दोनों की स्क्रिप्ट मुझे अच्छी लगी. मैं बहुत ज्यादा इंटेलेक्चुअलाइज नहीं करता. मैं दिल की सुनता हूं. जो मुझे अच्छा लगता है, वही करता हूं. मैं जानता हूं कि ‘फना’ की तुलना ‘रंग दे बसंती’ से नहीं की जा सकती. ऐसे ही ‘गजनी’ की तुलना ‘तारे जमीन पर’ से नहीं की जा सकती. मैंने जब ओरिजनल ‘गजनी’ देखी तो मुझे बहुत मजा आया था. मनोरंजन की जब हम बात करते हैं तो उसकी कई किस्में होती हैं. दर्शक भी कई प्रकार के होते हैं. ‘फना’ और ‘गजनी’ उस लेवल पर आपको अच्छी नहीं लगी होंगी, लेकिन बहुत सारे दर्शकों के लिए ‘गजनी’ ‘फना’ नंबर वन फिल्में हैं.
ऐसा लगता है कि आप अपने स्टारडम का सही इस्तेमाल करते हैं. आप लगातार हिट फिल्में दे रहे हैं. कुछ नया कर रहे हैं. सफल हैं. इन सारी उपलब्धियों के बावजूद हर मुलाकात में मैंने महसूस किया है कि आप किसी आम आदमी की तरह व्यवहार करते हैं. आपके घर में भी ताम-झाम नहीं है?
वास्तव में अपने स्टारडम को मैंने कभी सीरियसली नहीं लिया. स्टारडम का मतलब कि लोग आपको पसंद करते हैं. आपको प्यार और आदर देते हैं. इन बातों में मुझे भी मजा आता है. मैं जानता हूं कि मेरे काम की वजह से ही यह सब हो रहा है. पर्सनल लाइफ मेरी कैसी है, इसके बारे में उन्हें कुछ नहीं मालूम. वे मुझे मिले भी नहीं हैं. आप लगातार नायक की भूमिका निभाते हैं. उन भूमिकाओं में नेक काम करते हैं. आपके बारे में उनके मन में अच्छे विचार बनते हैं. लाखों की तादाद में लोग फिल्में देखते हैं. उनकी पॉजीटिव एनर्जी आपकी तरफ आती है. दर्शकों का प्यार सुनामी की तरह आता है. आप सावधान न रहें तो बह जाएंगे. कुछ पकड़ के रखना पड़ता है. जमीन में पांव धंसाना पड़ता है. इस सुनामी में कई स्टार बहक जाते हैं. उन्हें भ्रम हो जाता है कि वे इंसान से बढ़ कर हैं. मैं इस भ्रम में कभी नहीं पड़ा.
लेकिन यह सीख और समझ कहां से मिली? आंतरिक गुण है या आपने औरों से सीखा?
हम-आप ऐसे क्यों है, उसकी खास वजह होती है. बचपन में या ग्रोइंग एज में जैसे प्रभाव पड़ते हैं, उनसे ही हमारी पर्सनैलिटी बनती है. ज्यादातर माता-पिता का असर होता है. परिवार के अन्य सदस्यों और रिश्तेदारों का भी असर होता है. दोस्तों का असर सबसे ज्यादा होता है. स्कूल-कॉलेज का असर होता है. एक बार पर्सनैलिटी बन जाए तो उसे बदलना बहुत मुश्किल होता है. बहुत कम लोग हैं जो 40-45 की उम्र के बाद भी अपनी सोच और नजरिया बदलने की कोशिश करते हैं. उसके लिए बहुत स्ट्रांग विल चाहिए. मेरे ऊपर माता-पिता का असर है. मेरे खयाल से अम्मी ने बहुत कुछ सिखाया-बताया. एक और खास बात रही है कि मेरे इर्द-गिर्द स्ट्रांग वीमेन रही हैं. मैं उनकी तरफ जल्दी आकर्षित होता हूं. मेरी अम्मी फौलादी महिला हैं. उनकी फूफी, जिन्हें मैं नानी जान बोलता था, उनकी बहुत स्ट्रांग पर्सनैलिटी थी. नुजहत, इमरान की अम्मी… मैं ऐसी औरतों के बीच रहा और पला हूं.
पापा के साथ कैसे संबंध थे.
अब्बा जान… बचपन में मैं उनसे बहुत डरता था. हम चारों भाई-बहन डरते थे. वे तुनकमिजाज थे. उन्हें जल्दी गुस्सा आता था. अब्बा जान का गुस्सा बहुत तेज होता था. फैमिली में उनका गुस्सा मशहूर था. हम लोगों में उन्हें लेकर इतना डर था कि हम दूर-दूर ही रहते थे. वे घर पर आते थे तो हम अपने कमरों में छिप जाते थे. बाहर नहीं निकलते थे. डर रहता था कि सामने पड़े तो किसी न किसी बात पर डांट पड़ जाएगी. हां, कभी प्यार करते थे तो बहुत लाड़-प्यार दिखाते थे. तब हम सरप्राइज होते थे. अरे, आज क्या हो गया? हमलोग इमोशनली अम्मी के ज्यादा नजदीक थे. अब्बा जान के लिए दिल में इज्जत थी और मन में डर. बड़े होने पर यह डर धीरे-धीरे कम हुआ, लेकिन वह पूरी तरह से नहीं गया. सच है कि मैं इमोशनली उनके ज्यादा करीब नहीं था. यह भी हो सकता है कि तब परिवार के पुरुष सदस्य बच्चों से ज्यादा लाड़-प्यार नहीं दिखाते थे. वे अपने बच्चों से ज्यादा घुलते-मिलते नहीं थे. पढ़ाई के अलावा उनके पास सवाल नहीं होते थे या कहीं से कोई शिकायत मिली हो तो हमारी जवाबतलबी होती थी.
अपने बच्चों से कैसे संबंध हैं आपके? कितना जरूरी मानते हैं कि बच्चों को पालन-पोषण के साथ प्यार भी मिलना चाहिए?
बच्चों के साथ मेरा रिश्ता दोस्ती का है. मैं उनके साथ दोस्तों जैसा ही व्यवहार करता हूं. बहुत नजदीक हूं उनके. पहले की पीढ़ी के पुरुष इस मामले में थोड़े कटे और सख्त थे. वे खयाल नहीं रखते थे भावनाओं का. मां तो तब भी सीने से चिपकाए रहती थी. बच्चे बड़े हो जाएं तो भी उनके लिए छोटे ही रहते हैं. हमारी सोसायटी में पुरुष जल्दी इमोशन नहीं दिखाते. मैं अपने इमोशन तुरंत बता देता हूं. कुछ भी छिपाता नहीं. किसी बात पर रोना आ जाए तो रो देता हूं. खुशी होती है तो उसे भी नहीं छिपाता.
‘सरफरोश’ या यूं कहें कि ‘गुलाम’ के समय से आप किरदार पर अधिक मेहनत करने लगे. आपकी मेहनत पर्दे पर भी नजर आई. उन किरदारों का दर्शकों से रिश्ता बना…
किरदार तो मैंने ‘राजा हिंदुस्तानी’ में भी बहुत सही पकड़ा था. ‘जो जीता वही सिकंदर’ के संजय लाल के बारे में क्या कहेंगे? ‘रंगीला’ का किरदार देख लीजिए. ‘राजा हिंदुस्तानी’ में स्माल टाउन के युवक का रोल प्ले किया था. वह नैरो माइंडेड है, मेल शोवेनिस्ट है… लोगों को मैं बहुत पसंद आया था. अभी किरदार पर खास ध्यान देता हूं. उसके साथ रहना और उसे जीना… यह सब ज्यादा अच्छी तरह होता है. मैं भी थोड़ा मैच्योर हुआ हूं और अपनी फिल्मों की तैयारी के लिए पूरा समय निकालता हूं. किरदार की हर बारीकी पर ध्यान देता हूं.
‘मेरा कॉमन सेंस कहता है कि मैं समझ जाऊंगा कि अब दर्शक मुझे पसंद नहीं कर रहे हैं. यह महसूस होते ही मैं काम छोड़ दूंगा. आप देख लीजिएगा’
क्या करियर को लेकर कोई खास प्लानिंग रही या जब जो फिल्म आई वह कर ली?
मैं लांग टर्म प्लानिंग नहीं कर सकता. मुझे क्या मालूम कि साल-दो साल में मेरे पास कौन-सी स्क्रिप्ट आएगी. अपना काम मेहनत और ईमानदारी से जरूर करता हूं. कोशिश रहती है कि अच्छा परिणाम मिले.
आप और बाकी दोनों खान (शाहरुख-सलमान) आगे-पीछे आए और अभी तक चल रहे हैं. चिंता तो होती होगी कि आखिर कब तक? क्या आप मानसिक तौर पर तैयार हैं कि कुछ साल बाद आप आज की स्थिति में नहीं रहेंगे?
मैं तो नहीं तैयार हूं. मेरे खयाल में तैयार होना भी नहीं चाहिए. मैं अपनी बात करूं तो बहुत आगे की सोचता ही नहीं. इस वक्त जो जी रहा हूं, उस पर मेरा ध्यान रहता है. शॉर्ट टर्म में सोचता हूं. अभी रीमा कागटी की फिल्म ‘तलाश’ पूरी कर रहा हूं. मेरा टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ आ रहा है. उसकी वजह से मेरी फिल्मों का शेड्यूल आगे खिसक गया है. ‘सत्यमेव जयते’ जरूरी और महत्वाकांक्षी टीवी शो है. फिर ‘धूम 3’ करूंगा. उसके आगे का मुझे भी नहीं मालूम. मेरा कॉमन सेंस कहता है कि मैं समझ जाऊंगा कि अब दर्शक पसंद नहीं कर रहे हैं. यह महसूस होते ही मैं काम बंद कर दूंगा. इसे समझने का सिंपल तरीका है, जिस दिन मुझे अपना काम करने में खुशी नहीं होगी उस दिन से काम बंद कर दूंगा. आप खुश नहीं हैं, फिर भी आप साबित करना चाह रहे हैं कि आप स्टार हैं. अब भी आप अच्छा काम कर सकते हैं. यह खामखयाली है. या यह लगने लगे कि मेरा काम दर्शक नहीं समझ पा रहे हैं तो इसका मतलब है कि मैं डिस्कनेक्ट हो चुका हूं. मुझे अंदाजा नहीं है कि मैं कब तक सफल रहूंगा. जिस दिन मुझे या मेरे दर्शकों को मेरा काम पसंद नहीं आएगा, उस दिन से सब कुछ बंद… आप देख लीजिएगा. मैं बिल्कुल कैलकुलेटिव नहीं हूं. मैं शुद्ध रूप से अपने इमोशन पर चलता हूं.
आपकी बिरादरी में यह धारणा है कि आमिर कुछ भी यों ही नहीं करते?
यह सही है कि मैं यों ही कुछ नहीं करता. और फिर क्यों करूं? एक जिंदगी है और इतने सारे काम हैं. मेरा एक फोकस है लाइफ में. अपने प्रोफेशन में मैं अच्छा काम करना चाहता हूं. अच्छा काम करने के लिए जब जिससे मिलना होता है, मिलता हूं. मेरी जबान पर वही बात होती है जो मेरे दिल में होता है. मैं दोमुंहा नहीं हूं. अगर मुझे आपका काम अच्छा नहीं लगा तो बोल दूंगा कि आपका काम अच्छा नहीं लगा. मेरे साथ काम कर चुके प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर हैं. उनसे बात करें. अभिनय देव से पूछ लीजिए. उनके शूट किए सीन पसंद आने पर अच्छा कहा. पसंद नहीं आया तो मैंने कहा कि मजा नहीं आया. जो बात मेरे दिल में होती है, वही कहता हूं. मेरे इंटरव्यू में भी आपको यह बात दिखेगी.
लेकिन कभी क्या खतरा महसूस नहीं होता? अपनी लोकप्रियता और स्वीकृति से व्यक्ति आत्मकेंद्रित और निरंकुश भी हो जाता है. फिर आस-पास के लोग डर या खौफ में रजामंदी जाहिर करने लगते हैं. गलत निर्णयों को भी सही बताने लगते हैं.
मेरे साथ अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. मेरी हर फिल्म की टीम के सदस्य को पूरी छूट रहती है. ‘डेल्ही बेली’, अनुषा रिजवी की फिल्म ‘पिपली लाइव’, ‘तारे जमीन पर’, किरण की फिल्म ‘धोबी घाट’ या ‘लगान’ में आशुतोष… जब भी कोई सवाल मन में आता है तो मैं सभी से पूछता हूं. भैया, ऐसा लग रहा है. मैं यह सोच रहा हूं. तुम लोग क्या सोच रहे हो? उन्हें जो फील होता है वे बताते हैं. मेरे सामने लोग खुल कर अपनी बातें कहते हैं. यह मेरी स्ट्रेंथ है. अब यह अलग बात है कि मैं उनकी राय से सहमत होऊं या न होऊं. मेरी फिल्मों के आडियंस टेस्ट के समय आए हुए दर्शक मुझे भला-बुरा कहते हैं. मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. कभी आपको ऐसे शो में बुलाऊंगा. कई बार पहली दफा मिल रहे व्यक्ति भी बेबाक राय देते हैं कि आपकी फिल्म पसंद नहीं आई. मजा नहीं आया. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मेरी प्रेजेंस में भी वे झिझकते नहीं हैं.
फिल्मों की समीक्षा के बारे में क्या राय है?
रिव्यू पढ़ते समय मेरी उम्मीद रहती है कि समीक्षक फिल्म की आत्मा को समझ सका कि नहीं. अगर वह वहां तक नहीं पहुंच सका तो हमें बताए कि उसे क्या दिक्कत हुई. उसे क्या कमी लगी. फिल्म के दिल तक पहुंचना जरूरी है. मैं यह मान कर चलता हूं कि मेरी हर फिल्म के बारे में समीक्षकों की राय अलग-अलग होगी. सभी अपने हिसाब से लिखते हैं. मैं सिर्फ यह देखता हूं कि समीक्षक मेरी फिल्म के दिल और आत्मा तक पहुंच सका कि नहीं. मेरी कमियों को ढंग से जाहिर कर सका कि नहीं? मुझे अपने काम में जो कमजोरी नजर आ रही है, क्या वही आपको भी नजर आ रही है? या आप कोई नई बात बता रहे हैं, जिस से मेरी आंखें खुल रही हैं. कई बार फिल्म की व्याख्या अलग लेवल पर हो जाती है.
क्या दर्शक हर फिल्म सही ढंग से समझ पाते हैं?
मेरे खयाल में दर्शक हमेशा फिल्म को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं. ऐसा नहीं होता कि किसी फिल्म को दर्शक न समझ पाएं. उनकी समझ हमेशा सही होती है. वे सिर्फ अपनी राय देते हैं. हम लोग अपनी राय में दूसरों की राय जोड़ने की कोशिश करते हैं. मैं अपनी फिल्म के बारे में ऐसा नहीं कह सकता कि उसे सारे रिव्यू अच्छे मिले. ‘लगान’ ज्यादातर लोगों को अच्छी लगी थी.
मुझे याद है कि एस आनंद ने ‘लगान’ पर लिखते समय कचरा को दलित एंगल से समझने की कोशिश की थी और फिल्म की आलोचना की थी?
शायद आशुतोष ने भी इतना नहीं सोचा होगा कि मैं कचरा को क्यों ला रहा हूं. कचरा दलित है. वह विकलांग क्यों है? कई बार फिल्म की व्याख्या उसके विषय और चरित्रों को अलग संदर्भ दे देती है.
मुझे लगता है कि आपके अभिनय में निखार आने के साथ आपकी संवाद अदायगी भी बदली है.
हां, मैं मानता हूं इस बात को. आपका यह आब्जर्वेशन सही है. पहले मेरी स्पीच तेज थी. मैं बहुत जल्दी-जल्दी बोलता था. समय के साथ मैंने उसे नियंत्रित किया और जरूरी सुधार लाया. अपनी गलतियों से सीखा. मैंने संवाद अदायगी में किसी की नकल नहीं की है.
भाषा का ज्ञान और उसकी समझ की जरूरत पर कुछ बताएं. इन दिनों हिंदी फिल्मों में ही हिंदी शब्दों का सही उच्चारण नहीं होता.
एक्टर के लिए भाषा बहुत जरूरी है. आप जिस भाषा में अभिनय कर रहे हैं उस भाषा पर अधिकार तो होना ही चाहिए. आप पिछली पीढ़ी, हमारी पीढ़ी और आज की पीढ़ी को देखें तो यह फर्क समझ में आएगा. हिंदी क्षेत्रों से आए एक्टर और बड़े शहरों के एक्टर की भाषाएं अलग-अलग हैं. उनके बोलने के लहजे की बात नहीं कर रहा हूं. शब्दों और वाक्य को समझना और उसे सही ठहराव के साथ बोलना जरूरी है. लहजा तो किरदार के साथ बदलता है. वजन सही हो तो दिमाग में चल रही सोच और बोले गए अल्फाज में एक रिश्ता बनता है.
क्या आप जो बोल रहे होते हैं उसे समझ भी रहे होते हैं? कई सारे एक्टर सिर्फ संवाद बोल देते हैं. वे शब्दों के अर्थ नहीं समझते तो चेहरे पर भाव भी नहीं आता…
इतना तो बुरा नहीं हूं मैं. मैं अपने संवादों को समझने के बाद ही बोलता हूं. समस्या है कि युवा पीढ़ी के ज्यादातर एक्टर शहरों के हैं. उनकी पढ़ाई-लिखाई और परवरिश अलग माहौल में हुई है. वे हिंदी में उतने कंफर्टेबल नहीं हैं. चूंकि वे ढंग से नहीं समझते, इसलिए पर्दे पर मिसमैच दिखाई पड़ता होगा. उनके संवादों में जान नहीं आ पाती.
एक खास ट्रेंड देख रहा हूं मैं कि इंडस्ट्री के पुराने या नए डायरेक्टर रीमेक, सीक्वल या कही गई कहानियों को िफर से कहने में लगे हैं, जबकि बाहर से आए डायरेक्टर नई कहानी लेकर आ रहे हैं….
मैं मानता हूं यह बात. आप काफी हद तक सही हैं. ये आपका ऑब्जर्वेशन सही है कि फिल्म परिवारों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के डायरेक्टर के रेफरेंस पॉइंट फिल्में ही हैं. वे इतनी फिल्में देख चुके हैं. उन्हें जिंदगी का तजुर्बा भी फिल्मों के जरिए ही मिला है. उनके सारे रेफरेंस पॉइंट और कैरेक्टर भी वहीं से आते हैं. जो लोग बाहर की जिंदगी जीकर आते हैं, उनके रेफरेंस पॉइंट में रियल लाइफ होती है. किरदार रियल होते हैं. मुझे लगता है कि रियल लाइफ से जुडे़ रहना जरूरी है. क्रिएटिव इंसान के लिए कामयाबी के साथ यह लगाव कम होता जाता है.
‘धोबीघाट’ का ही उदाहरण लें. ऐसी फिल्म आप नहीं सोच सकते थे.
सही कहा आपने. उसमें किरण की जिंदगी से अनुभव हैं. मैं वैसे अनुभवों से नहीं गुजरा. फिर भी आप ऐसा न समझें कि मैं रियल लाइफ से कटा हुआ हूं.