उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव जितने नज़दीक आते जा रहे हैं, चुनावी सरगर्मी बढ़ती ही जा रही है। चैनलों के सर्वे एक तरफ़ भाजपा के हाथ में अगली कमान सौंपते दिख रहे हैं, वहीं भाजपा सरकार के प्रति लोगों का ग़ुस्सा चौथे आसमान पर दिख रहा है। जातिगत आँकड़ों की जोड़-तोड़ के अलावा दो मुख्य राजनीतिक दलों- सपा और भाजपा में नेताओं और विधायकों को तोडऩे की राजनीति चल रही है। जनाधार वाले नेता या तो भाजपा में जा रहे हैं या सपा में। जो भाजपा में नहीं जा सकते, उन्हें सपा में अपना भविष्य दिखायी दे रहा है। ज़ाहिर है कि बसपा और कांग्रेस पार्टी के कई जनाधार वाले नेता या तो सपा या फिर भाजपा में जा चुके हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि चुनाव से पहले भाजपा की कोशिश है कि उन दलों में सेंधमारी की जाए, जिनके नेताओं का अपने क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। ज़ाहिर है कि यह भाजपा का परखा हुआ फॉर्मूला रहा है। इसीलिए 2022 के चुनाव में भाजपा अपने टेस्टेड फॉर्मूले को एक बार फिर आजमाने में जुटी है। लेकिन इस बार उसके निशाने पर समाजवादी पार्टी और उसके नेता हैं; क्योंकि पार्टी का लक्ष्य विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना है। इसके अनेक उदाहरण पिछले चुनाव में आपको दिखायी पड़े थे, जिनमें अगर सन् 2016 की बात करें, तो बसपा से आये बृजेश पाठक, स्वामी प्रसाद मौर्य, भगवती सागर, ममतेश शाक्य, रोशनलाल, रोमी साहनी, रजनी तिवारी, राजेश त्रिपाठी थे। इसके अलावा समाजवादी पार्टी से अनिल राजभर, कुलदीप सिंह सेंगर, अशोक बाजपेई भाजपा में शामिल हुए थे। इसके बाद कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और सपा के वरिष्ठ नेता नरेश अग्रवाल भी भाजपा में शामिल हुए थे।
हालाँकि नये क़द्दावर नेताओं को जोडऩे में समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं है, उसमें भी लगातार दूसरी पार्टी के नेताओं को शामिल किया जा रहा है। पिछले दिनों पूर्वांचल की सियासत में ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी के बेटे और विधायक विनय शंकर तिवारी, पूर्व सांसद कुशल तिवारी और भांजे गणेश शंकर पांडेय को समाजवादी पार्टी की सदस्यता दिलाते हुए अखिलेश यादव ने कहा था कि आज बहुत-ही प्रतिष्ठित परिवार के लोग सपा में शामिल हो रहे हैं। यहाँ देखने वाली बात यह होगी कि मुख्यमंत्री योगी के क्षेत्र गोरखपुर से आने वाले ये क़द्दावर नेता समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद भाजपा को कितना नुक़सान पहुँचाते हैं।
सवाल यह है कि चुनाव जीतने की कोशिशें सत्ताधारी पार्टी भाजपा और सपा के बीच इस क़दर बढ़ गयी हैं कि अब हर तरह से दोनों पार्टियाँ मतदाताओं को लुभाने में जुटी हुई हैं। बाक़ी पार्टियाँ भी इसी कोशिश में हैं; लेकिन उन्हें पता है कि उनके हाथ क्या लगने वाला है। भाजपा की अगर बात करें, तो प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी मिलकर इन दिनों जनता को शिलान्यासों, उद्घाटनों के तोहफे देने में जुटे हैं। जो काम उन्हें अपने अब तक के कार्यकाल में कर लेना चाहिए था, उस सबकी याद चुनाव के दौरान आ रही है। हद तो यह तक है कि चुनाव जीतने के लिए कई दर्ज़न कैमरे लगाकर प्रधानमंत्री मोदी को दिसंबर के महीने में गंगा में डुबकी लगानी पड़ी।
इसके अलावा अगर दूसरे पहलू पर नज़र डाली जाए, तो इस समय देश में दो तस्वीरें हमारे सामने हैं। एक तो यह कि कोरोना महामारी का एक नया वायरस ओमिक्रॉन वारियंट देश में दस्तक दे चुका है और वह तेज़ी से फैल रहा है। दूसरी यह कि देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और अन्य कई केंद्रीय मंत्री विधानसभा के चुनावों में अपनी पार्टी की जीत के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं और उन्हें कोरोना के इस घातक ओमिक्रॉन वारियंट के बढऩे से जैसे मानो उन्हें कोई मतलब ही नहीं है।
तो क्या सरकार उस समय का इंतज़ार कर रही है, जब देश में पहले की तरह हर जगह इस वारियंट के मरीज़-ही-मरीज़ हों और दोबारा लॉकडाउन लगने की नौबत आ जाए? क्या चुनावी प्रचार इतना ज़रूरी है कि केवल पाँच राज्यों और उनमें भी महज एक राज्य उत्तर प्रदेश को मुख्य तौर पर जीतने के लिए पूरे देश को ख़तरे में डाल दिया जाए? इससे क्या हासिल होगा? अगर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार दावा कर रही हैं कि उन्होंने पिछले पाँच साल में काम बहुत अच्छा किया है और प्रदेश में सबसे ज़्यादा विकास किया है, तो राज्य की जनता उन्हें चुन ही लेगी, इसमें दिन-रात डेरा डालकर देश भर की चिन्ता छोड़कर राज्यों में पड़े रहना केंद्र सरकार के लिए कितना उचित है? दूसरी बात प्रचार की रही, तो राज्य सरकार अपना देख लेगी, जैसे दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ अपना प्रचार करती हैं। वैसे ही राज्य स्तर की कोर चुनाव की ज़िम्मेदारी सँभालने के लिए है ना!
दूसरा पार्टी अध्यक्ष ख़ुद समझ लेंगे कि कहाँ, कितना समय उन्हें देना है? इसमें केंद्र सरकार के मंत्रियों को राज्य में जीत के लिए दिन-रात एक करना और डेरा जमा लेना क्या देश के अन्य राज्यों के साथ धोखा नहीं है? किसी विद्वान ने कहा है कि एक मोहल्ले को बचाने के लिए एक आदमी की, एक गाँव को बचाने के लिए एक मोहल्ले की, एक ज़िले को बचाने के लिए एक गाँव की, एक राज्य को बचाने के लिए एक ज़िले की और एक देश को बचाने के लिए एक राज्य की अगर बलि भी देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए। क्योंकि बड़े बचाव के लिए छोटी क़ुर्बानी देने से काम चले, तो उसे स्वीकार करना चाहिए।
आज ओमिक्रॉन की चपेट में पूरा देश ही है, ऐसे में इंसानियत और राज धर्म यही कहता है कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम को राज्य में पार्टी प्रचार-प्रसार छोड़कर देश को बचाना चाहिए और यही उनका धर्म भी है। क्योंकि देश की जनता ने उन्हें देश के लिए चुना है, न कि अपनी पार्टी के प्रचार के लिए। बहरहाल फ़िलहाल प्रदेश में राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। जानकारों का मानना है कि धीरे-धीरे प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवों में बदलने जा रही है। हालाँकि इस ध्रुवीकरण के बाद भी बसपा को 15 फ़ीसदी से 16 फ़ीसदी वोट मिलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता, जबकि राष्ट्रीय सियासी दल कांग्रेस भी कम-से-कम 4 से 5 फ़ीसदी वोट पश्चिम बंगाल की तरह अवश्य पाएगी। इसके अलावा 5 फ़ीसदी वोट में निर्दलीय तथा अन्य छोटे दल सेंध लगाने में कामयाब होते दिखायी दे रहे हैं।
इस स्थिति में मुख्य मुक़ाबला शेष बचे 70 फ़ीसदी वोट बैंक के लिए होगा, जो क़रीब 36 फ़ीसदी के आँकड़े को पार करेगा। उस दल की ही सरकार बनेगी, जो 36 फ़ीसदी वोटों को पार कर जाएगा। हालाँकि फ़िलहाल इस आँकड़े में भारतीय जनता पार्टी मामूली बढ़त के साथ ऊपर दिखायी दे रही है। लेकिन सपा से उसे पूरी चुनौती मिल रही है और भाजपा नेताओं को सपा से हार का डर दिन-रात सता रहा है। फ़िलहाल सपा-रालोद गठजोड़ को जाटव दलित के अलावा यादव जाट पिछड़ा और अगड़ा वोट बहुत कम मिलता दिखायी पड़ रहा है। जबकि गठजोड़ को मुसलमानों अधिकांश वोट मिलता दिख रहा है। परन्तु गठजोड़ के दोनों प्रमुख दलों के जाट एवं यादव मतदाताओं के 20 से 40 फ़ीसदी वोट सत्ताधारी दल भाजपा में जाते प्रतीत हो रहे हैं। जिससे गठजोड़ को नुक़सान होने की सम्भावना है।
ज़ाहिर है पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़ मेरठ की परिवर्तन सन्देश रैली में सपा-रालोद के दोनों युवा नेताओं की एक झलक पाने के लिए भारी जन-सैलाब उमड़ा था। लेकिन यहाँ सवाल यह खड़ा हो जाता है कि इतनी बड़ी रैली होने के बावजूद क्या रैली में आये लोग इन पार्टियों के गठजोड़ से एकमत हो पाएँगे? क्योंकि अक्सर देखा गया है कि चुनाव के दौरान बड़ी-बड़ी रैलियाँ होती हैं; लेकिन चुनाव के समय जब मतदान होता है, तो उतना मतदान नहीं होता, जितने की उम्मीद की जाती है। तो क्या यह कहना सम्भव है कि रैलियों में जो भीड़ आ रही है, वह मतदाता भी बनेगी? इसके लिए हमें चुनाव का इंतज़ार करना होगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से जानने वाले सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ पत्रकार राजीव सैनी बताते हैं कि भाजपा हर हाल में 34 फ़ीसदी वोट के क़रीब पाती दिख रही है। ऐसे में सपा-रालोद गठजोड़ भी हालत में 38 फ़ीसदी वोट लिए बग़ैर भाजपा को नहीं हरा पाएगा। क्योंकि सपा-रालोद के उम्मीदवार कुछ चुनिंदा सीटों पर बहुत बड़े भरी अन्तर से जीतते प्रतीत हो रहे हैं। जबकि भाजपा के उम्मीदवार अधिकांश सीटों पर बहुत छोटे अन्तर से जीत दर्ज करते दिख रहे हैं।
इस अन्तर को मिटाने के लिए भाजपा के मुक़ाबले चार फ़ीसदी अधिक वोट लाना नितांत आवश्यक है। हालाँकि प्रदेश की जनता में भाजपा की योगी सरकार के प्रति क़रीब 75 फ़ीसदी से अधिक विरोधी लहर (एंटी इनकंबेंसी) होने के बावजूद समाजवादी पार्टी के पिछले शासनकाल में यादववाद, भाई-भतीजावाद एवं मुस्लिम परस्ती होने के कारण अभी तक जीत की स्थिति बनती नज़र नहीं आ रही है। जानकार इस के दो बड़े कारण गिना रहे हैं, जिनमें पहला है प्रदेश की जनता को समाजवादी के घोषणा-पत्र से सीधा-सीधा सा प्रतीत नहीं हो रहा है कि उनके लिए क्या होगा और उसके लिए क्या किया जाएगा? दूसरा, प्रदेश की शत-प्रतिशत आबादी तक इस गठगोड़ के लोग वोट माँगने नहीं पहुँच पा रहे हैं। कई लोग ज़मीन पर संगठन का न होने को इसका बड़ा कारण मान रहे हैं। लोगों का मानना यह है कि प्रदेश के 70 से 75 फ़ीसदी लोग भाजपा की विरोधी लहर के चलते इस गठजोड़ को जिताना चाहते हैं; लेकिन इन दलों के नेता जनता के बीच पूरी पैठ नहीं बना पा रहे हैं।
इसलिए फ़िलहाल मामूली अन्तर से ही सही सपा-रालोद गठगोड़ चुनावी जंग पिछड़ रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी द्वारा तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के बाद किसानों की नाराज़गी कुछ हद तक कम होने के बाद भाजपा मामूली बढ़त बनाती दिखायी दे रही है। हालाँकि साफ़तौर पर अभी कुछ भी कहना उचित नहीं है। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक ऊँट किस करवट बैठेगा, इसके लिए चुनावी परिणाम आने तक इंतज़ार करना होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)