खबर थी कि राहुल गांधी पार्टी या/और सरकार में बड़ी भूमिका निभाना चाहते हैं. बड़ी खबर थी कि राहुल गांधी बोले. एक तो वे बोलते ही कम हैं और उत्तर प्रदेश की हार के बाद प्रेस वालों से शायद यह उनकी पहली बातचीत थी.
पिछले आठ साल की राहुल गांधी की उपलब्धियों के बारे में पूछें तो जवाब मिलता है कि उन्होंने युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का जबर्दस्त लोकतंत्रीकरण कर उन्हें सुधार दिया है. मगर मनचाहे पद पर बैठ जाने की इच्छा जाहिर करते ही ऐसा हो जाना किस तरह के लोकतंत्रीकरण की श्रेणी में आता है? कहा जा सकता है कि समूची कांग्रेस पार्टी की इच्छा थी कि राहुल गांधी कांग्रेस में आएं और इतने सारे लोगों की इच्छा का आदर करना सच्चे लोकतांत्रिक होने की ही तो निशानी है. मगर समूची कांग्रेस तो पिछले आठ साल से ही उन्हें न जाने क्या-क्या करने-बनने के लिए कहती रही है.
राहुल ने संगठन में लोकतांत्रिक और दूसरे सुधारों के लिए सबसे ज्यादा काम उत्तर प्रदेश में किया है. वहां के विधानसभा चुनाव में कुछ ही महीनों पहले हुई पार्टी की फजीहत हम सबके सामने है. उनके किए सांगठनिक सुधारों की हालत यहां यह थी कि पार्टी को ढूंढ़े से भी ढंग के प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे थे. उसने तमाम महत्वपूर्ण जगहों पर दूसरी पार्टियों, खासकर सपा से आए नेताओं को खड़ा किया था. पार्टी की हालत कांग्रेस पार्टी और नेहरू-गांधी परिवार के गढ़ सुल्तानपुर-रायबरेली में ही किसी को मुंह दिखाने वाली नहीं थी. हाल ही में हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में भी पार्टी का उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया. अब इसके बाद क्या उनकी संगठन को बनाने या संगठन की उनके द्वारा बनने की क्षमताओं के बारे में कुछ और जानना बाकी रह जाता है. अब तो केवल उनकी प्रशासनिक क्षमताओं के बारे में जानना बाकी बचा है, जो हो सकता है कि जल्दी ही हो जाए.
फिलहाल यूपीए सरकार की जिस तरह की हालत है उसमें कैसे भी करिश्माई व्यक्तित्व से आते ही चमत्कार की आशा करना व्यर्थ है. राहुल वैसे भी घोषित तौर पर पहले जानने-सीखने और फिर कुछ करने की बात करते रहे हैं. तो क्या यह अच्छा नहीं होता कि वे केंद्र सरकार में शामिल होकर कुछ अजीबोगरीब मुश्किलें खड़ी करने के बजाय किसी कांग्रेस शासित प्रदेश – जैसे दिल्ली – के मुख्यमंत्री बनते, वहां के हालात में चमत्कारिक बदलाव लाते और फिर केंद्र सरकार में कुछ भी बनने के स्वाभाविक अधिकारी हो जाते.
जैसी हालत आज कांग्रेस पार्टी की है उसमें पार्टी में ऐसे बड़े बदलाव लाना मुश्किल है, जो किसी भी चुनावी परिणाम को सर के बल खड़ा कर दें. मगर किसी भी प्रदेश में बहुमत की हालत में अपनी प्रशासनिक क्षमता – अगर है तो – साबित करना कहीं आसान साबित हो सकता है. वह भी तब जब केंद्र की सरकार आपकी एक-एक इच्छा पर 10-10 बार बारी जाने को तैयार हो. इसके बाद बड़े फलक पर आपको आजमाने की लोगों की इच्छा आपके लिए संभावनाओं के बुलंद दरवाजे खोल सकती है.