उत्तराखंड कांग्रेस में इन दिनों खुले आम असंतोष अभियान चल रहा है. असंतुष्ट कांग्रेसी विधायकों, मुख्यमंत्री और कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों के बीच फिल्मी अंदाज में डायलॉग बोले जा रहे हैं. इस राजनीतिक ड्रामे की शुरुआत धारचूला के विधायक हरीश धामी के बयान से हुई . नेपाल और चीन सीमा पर बसा धारचूला बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका है. पांच जून को धामी ने राजधानी देहरादून में आकर बयान दिया कि उनके विधानसभा क्षेत्र का विकास नहीं हो रहा है और अगर 15 दिन के भीतर इस दिशा में सरकार की ओर से सकारात्मक प्रयास नहीं हुए तो वे विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे. उन्होंने इस्तीफा देकर धारचूला से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने की बात तो कही ही, मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को भी अपने खिलाफ मैदान में उतरने की चुनौती दे डाली. उनका कहना था, ‘मुख्यमंत्री बेहद कमजोर हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है. इन दोनों कारणों से राज्य में नौकरशाही बेलगाम है और भ्रष्टाचार चरम पर है.’
जिस दिन धामी देहरादून में मीडिया के माध्यम से इस्तीफा देने की धमकी दे रहे थे, उसी दिन विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने भी नैनीताल से बयान दे डाला कि उत्तराखंड ने भ्रष्टाचार के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है. खुद को सरकारी मशीनरी के कामकाज से व्यथित बताते हुए उनका कहना था, ‘प्रदेश में पैसा देने से मना करने पर शवों का पोस्टमार्टम तक नहीं किया जाता.’ पिछले महीने भी उन्होंने राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार पर सार्वजनिक बयान दिया था.
ये बयान बम फूटने के अगले ही दिन अपनी ही सरकार से नाखुश कांग्रेसी विधायकों और उन्हें समर्थन देने वाले निर्दलीय विधायकों के भी नाराजगी भरे बयान खुलकर आने लगे. चंपावत के विधायक हेमेश खर्कवाल, पिथौरागढ़ के मयूख महर, कफकोट के विधायक ललित फर्स्वाण और अल्मोड़ा के मनोज तिवारी धामी के आरोपों की पुष्टि करते हुए उनके समर्थन में आगे आए. उन्होंने भी अपने क्षेत्रों की दुर्दशा और राज्य में भ्रष्टाचार का रोना रोया.
सरकार के कामकाज पर उंगली उठाने वाले ये सारे विधायक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और केंद्र सरकार में मंत्री हरीश रावत खेमे के माने जाते हैं. धामी के बयान देने के अगले दिन रावत ने असंतुष्ट विधायकों की मांगों का समर्थन भी किया था. मुख्यमंत्री को नसीहत देते हुए उनका कहना था, ‘विकास के मामले में विधायकों की चिंताओं को दूर किया जाना चाहिए .’ लेकिन इसके दो दिन बाद मुख्यमंत्री बहुगुणा ने दिल्ली से देहरादून आते ही एक बयान देकर असंतोष की आग को और भड़का दिया. उनका कहना था कि उन्हें 41 विधायकों का समर्थन है और चार विधायकों के जाने से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. असंतुष्टों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि वे टाइगर हैं और हिरनों की परवाह नहीं करते. मुख्यमंत्री के बयान पर हरीश रावत का कहना था, ‘मैं सालों से पहाड़ों की पगडंडियों पर हिरन की तरह भाग रहा हूं और हर बार कोई टाइगर झपट्टा मार कर मेरी मेहनत उड़ा कर ले जाता है.’
मुख्यमंत्री के टाइगर-हिरन वाले भड़काऊ बयान के बाद असंतुष्ट विधायकों की संख्या बढ़कर 10 तक हो गई. सुनवाई न होते देख धामी ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने की मांग कर दी. आखिर पांचवें दिन मुख्यमंत्री ने नाराज विधायकों को वार्ता के लिए सचिवालय बुलाया. इस बुलावे को असंतुष्ट विधायकों ने अस्वीकार कर दिया. इसके बाद मुख्यमंत्री के करीबी कांग्रेस प्रवक्ता धीरेंद्र प्रताप ने वार्ता निमंत्रण ठुकराने वाले विधायकों में से अलग-अलग जिम्मेदारियां संभाल रहे तीन विधायकों को इस्तीफा देने की चुनौती दे दी. इससे माहौल और भड़क गया.
खुले आम असंतोष दिखाने वाले इन विधायकों में से सभी दुर्गम पर्वतीय जिलों से चुन कर आए हैं. उनका दर्द है कि मंत्री और नौकरशाह पहाड़ी क्षेत्र की समस्याओं और उनका निदान जानने की कोशिश तक नहीं करते हैं. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में हरीश रावत खेमे की भी भूमिका बताई जा रही है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेसी विधायकों की संख्या के हिसाब से सबसे अधिक विधायक रावत के साथ थे. लेकिन इसके बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया. बताया जा रहा है कि रावत खेमा इस समय मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए जोर लगाने के बजाय पार्टी अध्यक्ष पद पर अपने खेमे के किसी नेता को बैठाना चाहता है. हर तरफ से हो रही नित नई बयान बाजी से यह लग रहा है कि असंतुष्टों का गुस्सा अब दिल्ली दरबार की मध्यस्थता से ही शांत होगा.