‘बोहनी’ का मिथ बिहार में बहुत गहरा है. पहली जून को बिहार की ‘बोहनी’ एक अच्छी खबर से होनी थी. बिहार ने आर्थिक विकास दर 13.1 प्रतिशत पहुंचा कर गुजरात, तमिलनाडु जैसे राज्यों को पीछे छोड़ दिया था. कायदे से इसी उपलब्धि का गुणगान होना था. लेकिन अल सुबह ही बिहार की बोहनी गड़बड़ा गई. साढ़े चार बजे भोर में ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया की उनके शहर आरा में हत्या कर दी गई. यह खबर जंगल में आग की तरह फैली और बहुतों को झुलसा गई. सरकारी भवन जलाए गए, दलितों के छात्रावास पर हमला हुआ, बाजारों में तोड़फोड़ हुई, गाड़ियों को फूंका गया, रेल सेवाएं रुक गईं. कर्फ्यू लगाने के बाद स्थिति काबू में आई. जिन ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की हत्या के बाद सूबे का तापमान चढ़ा था, वे रणवीर सेना के प्रमुख और संस्थापक थे. सवर्ण और भूपतियों वाले सामंती समाज के सहयोग से उन्होंने नब्बे के दशक में इसे खड़ा किया था. सेना भूमिगत नक्सली संगठनों के जवाब में अस्तित्व में आई थी. नब्बे का पूरा दशक इन दोनों की आपसी लड़ाई के लिए बदनाम रहा. असल में इस हिंसक टकराव की पृष्ठभूमि में जातियों (सवर्णों और दलितों) का टकराव था जो भारतीय समाज का सनातन दुर्गुण रहा है. इस दौर में बिहार ने इसका सबसे वीभत्स चेहरा देश और दुनिया के सामने रखा. नरसंहारों का सिलसिला चला. 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे बहुत चर्चित और नृशंस नरसंहार था जिसमें 57 दलित मारे गए. मुखिया इसके मुख्य अभियुक्त थे. इसी तरह बथानीटोला, शंकरबीघा, नारायणपुर, मियांपुर आदि नरसंहारों में भी मुखिया मुख्य सूत्रधार बताए गए. कुल 277 हत्याओं और 22 अलग-अलग नरसंहारों से मिलकर मुखिया का बायोडाटा तैयार होता है. मध्य बिहार में उनकी इतनी दहशत फैल गई थी कि रणवीर सेना को तत्कालीन सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. मुखिया उस दौर में पांच लाख के इनामी बदमाश घोषित हो गए. 2002 में वे पटना में पुलिस की गिरफ्त में आ गए. अगले करीब नौ साल उन्होंने जेल में बिताए. इस दौरान 22 में से 16 मामलों में वे बरी भी हो गए. पिछले साल आठ जुलाई से वे जमानत पर चल रहे थे.
संगठन का खूनी इतिहास पुराना पड़ता जा रहा था और मुखिया की राजनीतिक महत्वाकांक्षा गहराती जा रही थी. यह 2004 का साल था. तब मुखिया ने जेल से ही लोकसभा चुनाव लड़कर करीब डेढ़ लाख वोट बटोरे थे और अपनी राजनीतिक ताकत साबित की थी. हत्या से 25 दिन पहले मुखिया ने अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन बनाकर किसानों के हित की लड़ाई लड़ने का एलान किया था. मुखिया कहते थे कि वे हमेशा से किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन सरकार ने उन्हें बदनाम किया. मुखिया की हत्या वाले दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भागलपुर में ‘सेवा यात्रा’ पर थे. यह उनके लिए परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें अंदेशा था कि मुखिया की मौत उनके शासन के लिए संकट की घड़ी है. मुख्यमंत्री ने शांति की अपील की पर बात बनी नहीं. असल में आरा की आग का दायरा बढ़ाया था शासन की चुप्पी ने. वह मूकदर्शक और मूक सहमति वाली भूमिका में था. नतीजतन अगले दिन राजधानी पटना की सड़कों पर भी उसी नजारे की पुनरावृत्ति हुई. ऐसा लगा कि प्रशासन ने उत्पातियों को खुली छूट और एक समुदाय की जान संकट में डालकर कानून व्यवस्था स्थापित करने की रणनीति बना रखी थी. पटना की सड़कों पर ऐसा उन्माद और जंगलराज पहले कभी देखा-सुना नहीं गया था. मुखिया की शवयात्रा में शामिल हजारों लोगों ने सरेआम हथियार लहराए, सरकारी बसों को आग के हवाले किया, मंदिर जलाए, मीडियाकर्मियों को पीटा, दुकानों में लूटपाट की, आम जनों व महिलाओं के साथ बदसलूकी की, सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से सबसे चुस्त माने जाने वाले मुख्यमंत्री आवास एक अणे मार्ग की तरफ जाने की भी कोशिश की. खून का बदला खून से लेंगे का नारा माहौल में गूंज रहा था.
सवाल है कि मुखिया की लाश को 70 किलोमीटर दूर पटना ले जाने की क्या वजह रही. पटना के घाटों का कोई गया-काशी जैसा महत्व तो है नहीं. जानकार बताते हैं कि यह सिर्फ अपनी राजनीतिक ताकत प्रदर्शित करने, सरकार पर दबाव बनाने और एक तबके को डराने के लिए किया गया. इस स्तर पर सरकार की बहुत बड़ी असफलता रही कि उसने पटना में शवदाह की इजाजत दी. राज्य के पुलिस महानिदेशक अभयानंद तर्क देते हैं, ‘उस रोज हमने कोई कार्रवाई न करके राज्य को जलने से बचा लिया. चार-छह घंटे यह सब इसलिए बर्दाश्त किया गया ताकि पटना में ही सारा गुस्सा निकल जाए, राज्य के दूसरे हिस्से में अशांति ना फैले.’ राज्य सरकार के मंत्री व भाजपा नेता गिरिराज सिंह के मुताबिक यह विपक्षी दलों के गुंडों की कारगुजारी थी. अभयानंद और गिरिराज सिंह के ऐसे तर्क सुशासन, न्याय और विकास के दावों को तार-तार करते हैं.
‘अब हत्या और नरसंहारों का दौर पहले की तरह शुरू नहीं होने वाला क्योंकि भूमि के सवाल पर फिलहाल उस तरह के संघर्ष रुक चुके हैं’
सवाल है कि जब एक जून को ही आरा पूरी तरह अशांत हो चुका था, उसके बाद भी लाश को पटना ले जाने की इजाजत दी गई और उसके बावजूद सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए गए. डीजीपी कहते हैं, ‘मुखिया के परिजनों की इच्छा पटना में लाश जलाने की थी तो हम भला कैसे रोक सकते थे?’ लेकिन सूत्र कुछ और ही कहानी बताते हैं. एक जून को मुखिया की हत्या के बाद डीजीपी मुखिया के परिजनों से मिलने पहुंचे थे. परिजनों ने लाश को गांव में जलाने की इच्छा जताई थी. जानकारी के अनुसार डीजीपी ने ही कहा कि गांव में भीड़ होगी, बक्सर ठीक रहेगा. परिजनों ने बक्सर जाने में साधन की परेशानी बताई. डीजीपी ने एक खुला ट्रक शव के लिए और एक गाड़ी लोगों को ले जाने के लिए देने का आश्वासन दिया. लेकिन यह योजना धरी रह गई और शव को तिरंगे में लपेटकर शवयात्रा बक्सर के बजाय उलटी दिशा में पटना के लिए निकली. इसके बाद जो हुआ, वह सबने देखा-सुना. मुखिया की हत्या के बाद राजनीति का गंदा खेल भी शुरू हो गए. विपक्षी नीतीश को घेरने में लग गये. रामविलास पासवान ने कहा कि सत्ता पक्ष के लोगों ने मुखिया को मरवा दिया. जिन दलितों की पीठ पर सवार होकर पासवान ने अब तक राजनीति की है उन्होंने पिछले कुछ समय से पासवान को दुत्कार दिया है, शायद इसीलिए अपने मूल वोटबैंक के बिखरने का कोई खतरा उन्हें नहीं दिखा.
लालू यादव एक कदम और आगे निकल गए, कहा- ‘मुखिया जैसे भी थे, बड़े आदमी थे. अगर मेरे समय में यह हत्या हुई होती तो कहा जाता कि मेरे इशारे पर मारा गया.’ लालू भूल गए कि ब्रह्मेश्वर मुखिया उन्हीं के राज में भगोड़े अपराधी घोषित थे. इस बीच मंत्री गिरिराज सिंह ने मुखिया को गंभीर गांधीवादी नेता व विचारक घोषित कर दिया. मुखिया के अंतिम दर्शन के लिए प्रतियोगिता-सी चली. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर, जदयू के विधायक सुनील पांडेय, भाजपा विधायक संजय टाईगर को लोगों ने विरोध कर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया. इस बीच मौके की तलाश में लगे नीतीश के पक्के दोस्त से प्रसिद्ध दुश्मन बने पूर्व सांसद ललन सिंह को पटना में मुखिया की लाश के अंतिम दर्शन करने में सफलता मिल गई. नीतीश गहरे दबाव में थे, इसलिए उन्होंने तुरंत सीबीआई जांच की सहमति दे दी. ऐसा कर नीतीश ने सबसे पहले अपने तमाम राजनीतिक विरोधियों राजद, लोजपा और भाजपा का मुंह बंद कराया, जो सीबीआई जांच की रट लगाए हुए थे. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर पूछते हैं, ‘एक साल पहले फारबिसगंज कांड की जांच की मांग तो सीएम ने सुनी तक नहीं, मुखिया मामले में तुरंत राजी हो गए!’
नीतीश की हड़बड़ी की ठोस वजहें हैं. मुखिया कुख्यात होने के बावजूद मध्य बिहार में प्रभावशाली जाति भूमिहारों में जातीय नेता के तौर पर भी स्थापित थे. हालांकि इसी जाति के एक बड़े समूह ने मुखिया को कभी अपना नेता नहीं माना. नीतीश सत्ता के आरंभिक दिनों से ही इस जाति से तालमेल बिठाकर चलते रहे हैं. उनका सवर्ण, अतिपिछड़ा, महादलित का जो कॉकटेल है उसमें सवर्ण खेमे से भूमिहार अहम हैं. हालांकि 1932 में हुई जातिगत जनगणना में इस जाति की आबादी बिहार में ढाई प्रतिशत थी. अब मोटे तौर पर इसे चार से पांच प्रतिशत माना जाता है. आबादी ज्यादा नहीं है लेकिन बिहार में इस जाति की राजनीतिक सक्रियता, धनबल और मध्यवर्गीय चेतना बहुत प्रभावी है.
एक अधिकारी बताते हैं कि सीबीआई जांच की सहमति देने के बाद सात जून से प्रस्तावित आरा-भोजपुर की ‘सेवायात्रा’ में मुख्यमंत्री हर हाल में जाना चाहते थे ताकि यह संदेश जाए कि कहीं अशांति नहीं है और उनके खिलाफ नाराजगी भी नहीं है. लेकिन सुरक्षा कारणों से सेवा यात्रा स्थगित करनी पड़ी.
भोजपुर-आरा क्षेत्र में नीतीश कुमार की प्रस्तावित सेवा यात्रा स्थगित कर देने का फैसला इतना आसान नहीं था. यह दुर्लभ मौका था जब ताकतवर नीतीश सरकार विवश दिखी. इसके पहले 23 मई को बक्सर के चैसा में नीतीश कुमार की सेवा यात्रा के काफिले पर आक्रोशित ग्रामीणों द्वारा हुए पथराव ने विरोधी नेताओं के चेहरे पर मुस्कार बिखेर दी थी. सीएम के पीछे चल रहे आधे दर्जन वाहनों के शीशे चटकाए गए थे. इन दिनों कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर लगातार विफलता मुख्यमंत्री की परेशानी बढ़ाए हुए है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि एक साल में लगभग चार हजार से अधिक हत्याओं के मामले दर्ज हुए हैं. नीतीश कुमार के राज में आने से पहले के पांच साल में संज्ञेय अपराधों की संख्या पांच लाख के करीब थी जो उनके राज के पांच साल में पौने आठ लाख के करीब पहुंच गई. आंकड़ों को परे भी कर दें तो सिर्फ पिछले मई की ही कुछ घटनाएं राज्य की कानून व्यवस्था पर रोशनी डालती हैं. राजधानी पटना में सात मई को डीजी रैंक के एक अधिकारी के भाई साकेत कुमार की हत्या सरेआम कर दी गई. दो दिन बाद पटना में ही साकेत की हत्या के मुख्य आरोपी प्रेम सिंह की भी हत्या हो गई.
मुखिया की हत्या की जांच सीबीआई के सुपुर्द किये जाने के बाद भी एसआईटी तत्परता से लगी रही. अभी तक हत्या के रहस्य से परदा नहीं उठ सका है. सुकून देने वाली बात यह रही कि इस घटना के पीछे अब तक माओवादियों और रणवीर सेना की पुरानी दुश्मनी की भूमिका सामने नहीं आ रही है. इसके चलते आगे प्रतिक्रिया में हिंसा होने की गुंजाइश पहले दिन से ही कम हो गई. हत्या के तार मुखिया के पड़ोस में रहने वाले बसपा नेता हरेराम पांडेय के भतीजे अभय से जुड़ रहे हैं. अभय की तलाश में बिहार-झारखंड के कई शहरों में छापेमारी हुई है. पटना में सन्नी नामक युवक से भी पूछताछ हुई. इसके अलावा जमशेदपुर से मोनू नामक एक कबाड़ व्यापारी को भी पुलिस ने गिरफ्त में लिया था. मोनू ने यह जानकारी दी कि रणवीर सेना प्रमुख मुखिया का पैसा रियल इस्टेट, स्क्रैप व्यवसाय, ट्रांसपोर्ट आदि के धंधे में लगा है. धनबाद, कोलकाता, जमशेदपुर में मुखिया का कारोबार फैला हुआ है. कही सुनी बातें यह भी हैं कि रणवीर सेना के खाते में तीस करोड़ रुपये जमा हैं. इस संपत्ति को भी जान जाने की एक वजह माना जा रहा है.
मुखिया की मृत्यु के बाद अधिकांश लोग मानते हैं कि खंड-खंड हो चुकी रणवीर सेना की कहानी अब सदा-सदा के लिए खत्म हो जाएगी. एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘अब हत्या और नरसंहारों का दौर पहले की तरह शुरू नहीं होने वाला. इसके पीछे ठोस वजह यह है कि भूमि के सवाल पर फिलहाल उस तरह के संघर्ष रुक चुके हैं. अब सवर्ण या सामंतों में भी एक बड़ा शहरी मध्यवर्ग तैयार हो गया है जो इस तरह के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता.’ एक संभावना प्रतिक्रियात्मक हिंसा की भी जताई जा रही है. लेकिन मुखिया के पुत्र और अपने पंचायत के वर्तमान मुखिया इंदूभूषण कहते हैं, ‘मैं बाबूजी के द्वारा छोड़े गए पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन तो करने की कोशिश करूंगा लेकिन किसी संगठन वगैरह का संचालन मेरी प्राथमिकता में नहीं है, न ही यह संभव है.’ मुखिया द्वारा गठित राष्ट्रवादी किसान संगठन के महासचिव राकेश सिंह कहते हैं कि आगे की रणनीति मुखिया के श्राद्धकर्म के बाद तय की जाएगी. यह एक ऐसा तथ्य है जिस पर नीतीश कुमार को नजर रखनी होगी, वरना तीसरी पारी के लाले पड़ सकते हैं.